Monday 12 August 2013

दो छोटी कविताएँ


(१)

जिसे कोमल मान कर ,
रोंद रहे हो ,
शायद तुम को अभिमान है ,
तुम हो बहुत कठोर ,
बहुत मजबूत ,
यह भ्रम है तुम्हारा ,
पानी से हमेशा ही ,
पत्थर कटे हैं ,
और
कटे भी तो ऐसे कटे ,
वे रेत हो गए।

(२)
पानी काटता ही नहीं ,
जोड़ता भी है ,
रेत की परत दर परत ,
जोड़-जोड़ कर ,
कितने ही द्वीप बना दिए ,
पानी कोमल जो है ,
अब तुम ही बताओ ,
स्त्रियों को ले कर ,
तुम्हारे विचारों पर ,
चढ़ा काला धुंआ ,
धीरे-धीरे ही सही ,
छंट रहा होगा।


-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राज.)

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