Saturday 30 March 2013

पुष्प सृजन के सहकारी

तुम ने कभी सोचा भी है ,
जो है तुम्हारी ,
आत्मा का अंश ,
वह कितना ,
जी पा रहा है ,
या ,
जीने के लिए ,
करा रहा है जद्दोजहद .

जिन को सौंप दिया है ,
तुम ने अपने उद्यान का ,
महकता पुष्प ,
उन के साय में ,
वह खिलता है ,
या ,
खिलने के लिए ,
हाथ-पैर मार रहा है ?

तुम अव्वल दर्जे के,
गैरजिम्मेदार माली हो ,
जिस ने अपने खिलते ,
पुष्पों की सुध नहीं ली ,
जब भी मुर्झाता है पुष्प ,
अच्छे से समझ,
ओ ! नासमझ माली ,
तेरे उद्यान पर ,
मंडरा रहा है काला साया .

तू चाहता है ,
तेरा उद्यान खिले ,
और ,
तेरे पुष्पित पुष्पों से ,
और भी उद्यान पुष्पित होते रहे ,
तब ,
तुझे सही समय पर ,
अपनी प्रतिक्रिया ,
काले साय के खिलाफ,
दर्ज करनी होगी ,
यह समझदारी है .

तेरे पुष्प सृजन के सहकारी हैं ,
निर्दय विप्लव के ,
लाचार लक्ष्य नहीं .

यह है एक प्रच्छन्न लड़ाई ,
जिसे समय रहते लड़ ,
अपने लिए ना सही ,
सृजन के लिए ही सही ,
पर लड़ .
छोड़ ना , सभ्यता का लबादा ,
फ़ेंक यह बोझा ,
और ,
मूल्यों के लिए खडा हो जा ,
वर्ना तेरे ही उद्यान के पुष्प ,
तेरे माली होने के वजूद पर ,
प्रश्न चिह्न लगायेंगे ,
फिर तेरे पास पश्चाताप के सिवाय ,
नहीं रहेगा कोई विकल्प .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

हमारी लड़कियां

मैने आज पढ़ा -
ईरान में लड़कियां ,
बुर्के में रहती है ,
वे लडकियां ,
बुर्के में ही करती है नौकरी ,
बुर्के में ही जाती है पढ़ने ,
और ,
हद तो तब हो गयी ,
वे नाटक के मंचन में ,
अमरीकी लड़की का अभिनय भी ,
करती है बुर्के में ,
वे अपने-अपने घरों में ,
किस तरह रहती ,
मैं नहीं जानता ,
क्योंकि ,
इस सम्बन्ध में " असगर वजाहत " भी ,
पूरी तरह नहीं जानते.

मेरे इस कथन पर ,
शायद बहुत खुश होंगे ,
चलो हमारे हिन्दुस्तान में ,
हमारी लड़कियां ,
कितना खुलापन लिए जीती है ,
परन्तु ,
यह कितना सच है ,
इस का प्रमाणन करने के लिए ,
तुम्हारे घरों में ,
बेटियों का होना जरूरी है ,
तभी मालूम चलेगा ,
तुम्हारी हिन्दुस्तानी लड़कियां ,
किस तरह झूल रही है ,
तथाकथित आधुनिकता
और दकियानूसीपन के झूले में ,
जहां सवार है ,
उस के सर पर ,
अपनी ही जात का दोगलापन ,
जिस में जीने के जद्दोजहद में ,
मरने की दुखद इच्छा पालने को ,
हो जाती है प्रतिबद्ध .

मैं यह अच्छे से जानता हूँ ,
ईरान की लड़कियां भी ,
हमारी लड़कियों जैसी ही ,
हमारी लड़कियां है ,
वे बंधनों से मुक्त होनी ही चाहिए ,
लेकिन ,
एक बात बहुत साफ है ,
वे हमारी लड़कियों की तरह ही ,
अपनी ही जात से ,
दोहरी मार से मर नहीं रही है ,
तथाकथित आधुनिकता और
दकियानूसी के झूले में
झूल नहीं रही है .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

ख़त अपने वारिस होते हैं



जब भी तेरे ख़त आते हैं , ख़त में हम ही तो होते हैं
ख़त में मेरी सेहत ले के , बस चिंता के क्षण होते हैं

कागज़ के पुर्जे स्याही में  , दौलत के वे गढ़ होते हैं
भीनी गंध लिए आते ये , ख़त रिश्तों के पथ होते हैं

निर्जन औ अँधेरे घर में  , ख़त आये दीपक होते हैं
उत्सव पर्वों पे आते-जाते , सच में वे ही घर होते हैं

मैंने सब को कह डाला है , ख़त सारे निर्दय  होते हैं
ख़त  होते श्वांसो के जैसे ,  रुक जाये तो डर होते हैं

जब से जा के शहर बसे , ख़त मिलने दुर्भर होते हैं
बंटवारे जैसी चुभती बातें ,नस्तर जैसे स्वर होते हैं

कल ही तो चाचा जी बोले , ख़त बिना सूने होते हैं
दीवारें छाती चढ़ आती , ख़त अपने वारिस होते हैं


                                  - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Tuesday 26 March 2013

फागुन के दोहे .




कंत  गये  परदेश में , धण  छूटी इस देश.
टेसू  फूले  दहक  के ,   फागुन  दहके गेह .

कब जाऊं मैं देश में , कब  देखूं घर - बार .
देह दहकती ज्वाल सी ,ये फागुन की मार.

मांड रही वो मांडने , रुचिकर औ बहु भांत .
आँगन तब सजता नहीं , बहे ले अश्रु-धार .

कंत सरीखा  कौन है , इस  फागुन के माह.
कंत सरीखा  कंत है , सुन  फागुन के माह.

आकर्षण में आ मिले ,इस फागुन के माह .
अब कैसे होए विलग , नयन हुए अब चार .

धण को धन ना चाहिए ,ना महल नहीं राज .
तू अटका परदेश में ,किस कामण के काज.

हे प्रिय ! मन की चाह में , ऐसो करे न काज .
तुम पे  रंग श्यामल चढ़े , मैं मर जाऊं लाज .

मैं  प्राण  कीर  को सुनूं , वो  गाये  तव नाम .
उड़ने  को  आतुर  हुआ ,  कैसे  रहूँ  रे   राम .

सावन तो सूखा गया , फागुन फुर-फुर जाय .
बालम तू विमुख रहा , यौवन झर-झर जाय .

देवर  रंग  ले  आ  गये ,  बहुरि  करे  श्रृंगार .
समझा  भी  घर है  नहीं ,फागुन  मारे  मार .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Sunday 24 March 2013

फागुन आया है !




घर-घर भारी धूम मची है , फागुन आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

नन्द हवेली थाली बजती ,
गली-गली में चंग .
ललना गाती मधुर बधाई ,
ले डफली का संग .

नन्द-यशोदा मोदक लाओ , राजन आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

रसिया सरसे मधुर कंठ से,
बरसे रंग हजार .
गाली पर गाली चलती है ,
मस्ती हुई अपार .

राधा से मिलने को कान्हा , कानन आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

फागुन तो फागुन है राजा,
राधा हुई निहाल .
जो लाला पिचकारी मारी ,
बेचारी हुई बेहाल .

बाहों में भर राधा को बोले , फागुन आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

हल्दी केसर रंग घुलाये ,
घर-घर डोल भरे हैं.
नाचे रति सी राधा प्यारी,
कान्ह मृदंग धरे हैं.

नटखट कान्हा राधा के ही , कारण आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

रंगों की इस बारिस ने ,
सब भेद भुलाये हैं .
नेह भरे इस फागुन ने ,
सब दिल मिलाये हैं .

संत्रासों की इस दुनिया में , तारण आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .



                                                                                     -त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.


Thursday 21 March 2013

थोड़ा-थोड़ा सा.

उलझे प्रश्नों को सुलझा लें थोड़ा-थोड़ा सा .
फागुन आया रंग उड़ा दें थोड़ा - थोड़ा सा .

अंतरवेदन से है बोझिल जीवन खाली सा.
बहुत जरूरी हल्का हो लें थोड़ा - थोड़ा सा .

सारा वन भी सुर्ख हुआ है तेरे आनन सा.
रंग गुलाबी दिल का घोलें थोड़ा-थोड़ा सा.

जीवन को जाना जाता है भारी पाठों सा.
सरगम में गा लेते जीवन थोड़ा-थोड़ा सा.

पंख लगाये समय दौड़ता ये परदेशी सा .
आपस में हम रंगे जायें थोड़ा-थोड़ा सा.

किसे पड़ी है कौन देखता जग है भूला सा.
छिड़को दिल का रंगी पानी थोड़ा-थोड़ा सा.

फागुन है सब मौसम में ये मान-मनौवल सा.
कुछ बचपन ही फिर से जी लें थोड़ा-थोड़ा सा.

      -त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .

Monday 18 March 2013

बेटियाँ ! तुम नदी हो .

बेटियाँ बीच राह पड़ी ,
कोई निर्जीव ,
वस्तु नहीं है ,
या,
मात्र इस्तेमाल की ,
वस्तु नहीं है ,
जिसे मन चाहे ,
कर लिया इस्तेमाल ,
और मन चाहे ,
दुत्कार दिया ,
किसी बिस्किट के,
रेपर की तरह .

बेटियाँ जीवन का ,
वह उमड़ता श्रोत है ,
जिस के हर प्रवाह पर ,
जीवन ऊर्ध्वमुख होता है .
और ,
जीवन के उत्सव में ,
वह छंदोबद्ध सामगान की तरह ,
मुखरित होती है ,
लेकिन ,
जहां भी बहाती है ,
अपने गर्म-गर्म आंसू ,
तब ,
उस के आंसूओं की तपिश में ,
सब कुछ जल कर ,
भस्म हो जाता है ,
जैसे ज्वालामुखी के लावे में,
विशाल और वज्र से पत्थर भी ,
जल कर ख़ाक हो जाते हैं .

बेटियाँ ,
तुम नदी हो ,
नदी का तरह बहो ,
नदी अपने अवरोधों को ,
तोड़ कर बिखेर देती है ,
ठीक वैसे ही ,
तुम भी अपने अवरोधों को ,
छिन्न-भिन्न कर बिखेर दो ,
बेटियाँ ,
नदी अपने तटों को ,
देख कर गंदा ,
करती है कोप ,
और जल प्लावन में ,
सारी की सारी गन्दगी,
फेंक देती है ,
तटों से दूर ,
तुम भी अवांछित को हटा दो ,
आंसूओं को व्यर्थ ना करते हुए .

बेटियाँ ,
तुम एक बात ,
ठीक से समझो ,
जीवन के सृजन के लिए ,
पवित्र वातावरण के साथ-साथ ,
चाहिए ,
स्नेह और सम्मान का निर्झर ,
तभी तुम ,
पयस्विनी हो कर ,
कर सकोगी सृजन ,
मैं ,
हमेशा ही तुम को ,
भोली गाय की जगह ,
उमड़ती हुई नदी के रूप में ,
देखना पसंद करूंगा ,
जो जीवन के सृजन के लिए ,
आवश्यक रूप ले सके .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

सभ्यों के वेश में .

सभ्यों के वेश में ,
मिलते हैं ,
हिंस्र वनेले पशु ,
जिन को अपनी ,
पैनी दाढ़ों को ,
गड़ाने की ही ,
लगी रहती है .

नरभक्षी व्याघ्र ,
को नरों के वध से ही ,
होती है संतुष्टि ,
ऐसे ही सभ्य वेश में छिपे ,
कुछ हिंस्र पशु ,
करते रहते हैं ,
उन अबोध का शिकार ,
जिन्हें अभी दुनिया का ,
और लहराते जीवन का ,
उत्सव-दर्शन
करना भी है पूर्ण शेष 
पर उन नराधमों को,
तिल-तिल कर अबोध को
मारने में संतुष्टि ही मिलती है.


ये नराधम पिशाच ,
या,
रक्त पिपासु हो कर ,
ले बैठे हैं ,
नागर जन का रूप ,
इसी रूप की शुचि अवनिका में ,
बहुत फर्क करते हैं ,
रिश्तों में ,
कुछ रिश्ते में ये पूर्ण समर्पित ,
कुछ में ,
इन का रूप नराधम का .

घर की चार दीवारों में ,
ये तिल-तिल कर मार रहे हैं,
उन को ,
जो उन के नहीं हो कर भी बने ,
सामजिक सरोकारों में ,
या,
विधि की विडम्बना में ,
ये नराधम शब्दों के ,
पैने सूये से ,
मन छेद रहे छलनी सा,
जिस के कारण मन का ,
कोने-कोने से रिस रहा .
संत्रस्त जीवन ,
हाय ! यह सब कितना ,
संत्रास भरा होता है .

क्या ?
हमने नहीं पहचाना ,
सभ्यों के वेश में ,
नराधमों प्रेतों को ,
हिंस्र निशाचरों को ,
फिर तो सच में ,
हम अपराधी हैं ,
नराधमों !
इस अपराध का
प्रायश्चित करने को ,
हम कृत संकल्प ,
क्या तुम भी ,
करना चाहोगे प्रायश्चित ,
या,
प्रतिशोध का कारण ही
रहना चाहोगे .

  - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Saturday 16 March 2013

कविताओं के विद्रोही स्वर


यदि कितना अच्छा होता ,
तुम मेरे दिल की ,
उन तमाम बातों को जान जाते ,
जिन्हें मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ .
जो कि अन्दर ही अन्दर ,
इस तरह उमड़-घुमड़ रही होती है ,
जैसे कोई चक्रवात ,
हाँ उसी चक्रवात की प्रतिक्रिया में ,
मेरी कविता को समझें  .

जिंदगी कहाँ होती आसान ,
कई उतार-चढाव से ,
भरा हुआ है उस का विरल सफर ,
जिस में उतरते-चढ़ते लोग ,
हांफते मिलते हैं ,
लगता है -
कभी किसी बीच चढ़ाई में ,
अब दम निकला कि अब दम निकला,
बस ऊपर चढ़ते जाते हैं,
प्राणवायु की आकांक्षा में बेचारे.

कन्धों पर आरूढ़ ,
घर-परिवार का बोझा भी ,
चिपका हुआ है ,
किसी बैताल की तरह
हाँ , यही बोझ ढोते-ढोते ,
पहुँच जाते हैं यहाँ-वहां ,
जिस से और भी कसैली ,
हो जाती है जिजीविषा,
पर इसी कसैले जीवन से ही ,
कुछ अमृत बूंदों की संभावनाओं में ,
सब सहते हैं ,
जो सहना भी नहीं होता आसान .

तब उसी की प्रतिक्रिया में उपजे ,
कविताओं के विद्रोही स्वर ,
उसी कसैले जीवन में ,
मर्म भेदती वीणा के स्वर से  ,
स्वर भर देते हैं ,
इस स्वर-संजीवन के प्रभाव से ,
फिर मृत संसार खडा हो जाता ,
एक हल्का सुरभित ,
प्राणवायु का झोंका फहरा जाता है ,
ले जीवन का केतन ,
जीवन की नयी फसल ,
फिर लहरा जाती ,
जैसे फागुन में हो जाती है ,
नवसंवत्सर की तैयारी.

               - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

इस के भी कुछ मायने हैं.

फूल खिला तेरी नजर से , इस के भी कुछ मायने हैं .
फूल गिरा तेरी नजर से , इस के भी कुछ मायने हैं .

एक बिरवा जो तूने लगाया , फूल भी थे कांटे भी थे .
वो ही बिरवा तूने उजाड़ा , इस के भी कुछ मायने हैं .

कह गए थे बुजुर्ग हम से , तुम राह सब निर्मल रखो .
तू ने राहें उलझा रखी तो , इस के भी कुछ मायने हैं .

लहू से सने हैं पैर सब के , वो दोष भी हम पर मढ़ा है.
तू ने चाकू घर में छिपाया , इस के भी कुछ मायने हैं .

कह रहा था तू ही सभी को , उपवास पर है दिन टिका .
तेरी दाढ़ में हड्डी फंसी तो , इस के भी कुछ मायने हैं .

फौज मरियल सी खड़ी कर , तू ने भी खूब आंसू बहाये.
तेरी सुविधाएं बढ़ गयी नित , इस के भी कुछ मायने हैं.

तिस्नगी में कितने मरे हैं , उन की मैयत में तू न था.
उन की शहादत कह रहा तू , इस के भी कुछ मायने हैं.

लोग अंगुल दो ऊंचे हुए कुछ , कद तेरा छोटा हुआ तब.
तब पैरों में चलाई थी करौती, इस के भी कुछ मायने हैं.

कुछ लोग कुदाली थामते हैं , कुछ कद तेरा भी नापते .
कुछ लोग मिट्टी खन रहे तो , इस के भी कुछ मायने हैं.

                            - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्

डुगडुगी कब से बजी है

डुगडुगी कब से बजी है , जोर की बाजी जमी है
तमाशबिन भी आ गये , भीड़ बढ़ती जा रही है

इक जमूरा सामने आ , बाजीगरी से टकरा रहा
कश्मकश के माहोल में , सांस थमती जा रही है

खाली कटोरा उठ गया , खाली ही पलटा गया है
फिर कई जो गुल खिले , ताली बजती जा रही है

बालिस्त भर का जमूरा , अब जमीं पर सो गया
दो टूक देखा बाजीगरी में ,आँख बहती जा रही है

एक सन्नाटा पसर कर , भीड़ को है जड़ कर रहा
छटपटाता देखा जमूरा , भीड़ सुबकती जा रही है

भावना की बाजियों में , आदमी की चालें खुली हैं
बाजीगरों की साजिशों में , भीड़ फंसती जा रही है

पहले तो गुल का खिलाना , फिर जमूरा काटना
हमदर्दी से बाजीगरों की , जेब भरती जा रही है

ये डुगडुगी ये बाजीगिरी , रोज की सौदागिरी भी
बीच चौराहे पर ही चलेगी , भीड़ जुटती जा रही है

ले ने को तो सौदा गये थे , हाथ खाली लौट आये
क्या करे ये ग़ालिब बिचारे , जेब कटती जा रही है

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Saturday 9 March 2013

जिंदगी का हाट ही ना मिलता.

उम्र का दरिया बिखर जाता , यदि तेरा किनारा ना मिलता.
फिर ये दुनिया भी ना होती , जिंदगी का हाट ही ना मिलता.

तेरे पहलू में सिमट कर के , हर कोई खोलता अपनी आँखें.
ज़रा सा भी वो खिसक जाए , फिर कौन है जो यहाँ मिलता.

तू एक हौवा इस महफिल का , तेरे रंग जो हजारों पे हजार .
तेरे रंगों की होती ना बारिस , गुलशन गुलजार ना मिलता .

तू नूर है जो फैला हर ओर , जिस के लिए जुकता खुदा भी.
तेरी रहमते ना होती यहाँ पे,खुशियों का उजाला ना मिलता.

तेरे होठों पे देखी है हंसी ही , भले दिल में रहा दर्द का दरिया .
तेरी नर्मी के गलीचे ना होते, मुहोबतों का रिश्ता ना मिलता .

हर रूप में तेरे कदमों ने ही , मेरी जिंदगी को सदा ही निहारा.
ऐ नूर !मेरा क्या होता यहाँ पे , जो तेरा सहारा ही ना मिलता.


- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .

ब्रह्म-राक्षस

उस की अपनी ऐंठन है ,
उस ऐंठ में ही ,
ढो रहा है कई सारी गांठे ,
उन गांठों में फँस गया है ,
फंसा-फंसा ही चिल्लाता है ,
ब्रह्म-राक्षस सभ्यों के मध्य .

ब्रह्म-राक्षस चीखता है ,
अपनी भयावह डकारों से,
सारा वातावरण कर देता है कसेला ,
अपनी समस्त चेतना को ,
लगाए रखता है ,
हर उस व्यक्ति को चबा जाने में ,
जिसने भी काटा है रास्ता ,
उस के बरगद के नीचे से .

सभ्य डरते हैं ,
उस के अदृश्य व्यक्तित्त्व से ,
उस की हिंस्र अभिवृत्तियों से ,
उस की तुच्छ प्रवृत्तियों से ,
उसकी गंदली विचारधार से,
तिस पर वह ब्रह्म-राक्षस जो है ,
हाँ , वह ब्रह्म-राक्षस ,
पैदा हुआ है ,
किसी त्रस्त आत्मा के शाप से ,
जिस के कारण ,
भटकता है वह शापित ब्रह्म-राक्षस ,
उस के ही अपने अन्दर ,
अपने ही अहम् के जंगल में .

यह और भी बुरा हुआ ,
उसे बोध हो गया है कि
वह है ब्रह्म-राक्षस ,
जिस का तोड़ नहीं है किसी के पास,
क्योंकि वह अच्छे से जानता है ,
सभ्य नहीं जानते ,
शाबर मारण-उच्चाटन मन्त्र ,
रक्षा या कीलक मन्त्र ,
इसीलिए तो वह ,
भयंकर अट्टहास कर ,
स्वच्छंद होता चला जा रहा है ,
हाँ एक बात है ,
सभ्यों का मोक्ष तो निश्चित है ,
पर ब्रह्म-राक्षस ,
जन्म-जन्मान्तर ,
अपनी ऐंठन की गांठों में ही ,
संत्रास भोगता रहेगा ,
बेचारा....... " ब्रह्म-राक्षस " ,
उस के प्रति मेरी सहानुभूति है,
बेचारा............................

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...