Saturday 31 March 2012

प्रयाण गीत गान से , वर वीर वाहिनी के ,
                  क्षिप्रता से बढ़े जैसे , दावानल बढ़ते .
कपि-वृन्द उत्साह से, कूर्दन-धावन करे ,
                  विटप उखड़ते हैं , भूधर भी धंसते .
बढ़ते विराट ऋक्ष , वक्ष पीट-पीट कर ,
                  पुष्ट गात्र घर्षण से , शैल भी लुढ़कते .
भोले-भाले वनवासी , राम सह मोद भरे,
                  राम-लक्ष्मण-सुग्रीव ,उत्साह से भरते.


आगे बढ़ एक वीर , देखता है राह शुद्ध ,
                तब वह शेष वृन्द , बुलाता-बढाता है .
वृन्द एक पहुँच के, अन्य को बुलाता है,
               अग्र गामी होने हेतु ,देखता-दिखाता है.
वनवासी वृंद दोड़, श्लथ वीर संभालते,
               परिचर्या - उपचार , करता-कराता है .
राम जय घोष लगा , वाहिनी सतत चले ,
               वर वीर ओज भर , जुड़ता-जुड़ाता है.
निर्बल समझ कर , जब धूलि रोंदी जाती ,
                चरण से चाँपी धूलि , मौलि चढ़ जाती है .
सुरभि सरल जान , पुच्छ जब ऐठीं जाती,
                सुरभि सरल तब , श्रृंग लिए आती है.
लोक को सहज जान,जब गति रोकी जाती , 
                बन के प्रलय रूप , ध्वंस कर जाती है .
सीता हर रावण ने , काल को ही न्योत दिया ,
                काल रूप वाहिनी जो,लंका चली जाती है.

वीर-यूथ बढ़ कर , गाते हैं प्रयाण गीत ,
                लोक-नद बढ़ता है , अब इसे राह दो .
शोषण -विरुद्ध सब, जाति वर्ण भूत एक,
                हर - हर कर बढे , अब इसे राह दो .
लोक-शक्ति भवानी है , देववृत्ति  मांगती है .
                असुर सुधर जाओ , अब इसे राह दो. 
तृण  सब  मिलकर , रज्जू बन गज बांधे, 
                संगठन में शक्ति है, अब इसे राह दो.


शोषण व अत्याचार , खूब लोक में हुए हैं,
               अब नहीं होने देंगे , मुक्ति अधिकार है.
भौतिकता की चाह में , निर्मम हो मूल्य चांपे,
               हमें मूल्य चाहिए ही , मुक्ति अधिकार है.
अर्थवृत्ति प्रिय जिन्हें , अतीव  षड्यंत्र रचे ,
               उनके षड्यंत्रों से ही , मुक्ति अधिकार है.
लोक आज पीड़ित है , अर्थ जन मूल्य रुद्ध ,
               रावण की काराओं से , मुक्ति अधिकार है.


सीता सह  लोक-मुक्ति , राम करने आये हैं ,
                चलो साथी हम सब , रणोत्सव मनाते हैं.
नित्य मृत्यु भय ग्रस्त  , राम से अभय मिला .
                रण भेरी बज चली , रणोत्सव मनाते हैं.
धूलि से खिले हैं हम , धूलि ही बनेंगे हम ,
                सनातन सत्य लिए, रणोत्सव मनाते हैं.
परिवर्तन हेतु ही , राम शंख नाद करे ,
                क्रान्ति का आह्वान हुआ , रणोत्सव मनाते हैं.

Thursday 29 March 2012

राम उद्बोधन  एवं राम - सेना का प्रस्थान -


वनवासी बन्धु सब , मया सह मध्य चल,
                     प्रयाण गीत गान से , वाहिनी को गति दें.
पञ्च तत्त्व देख कर , प्रकृति समझ कर ,
                     ताप-घात जान कर , वाहिनी को यति दें.
फल-फूल-मूल के , अन्न और औषध के ,
                     भण्डार - प्रबंध कर , वाहिनी को पुष्टि दें.
यत्र-तत्र फैल कर , घायल सम्हाल कर ,
                     निदान - उपचार से , वाहिनी को वृद्धि दे.


सुग्रीव सन्मुख हो के , कहते हैं सीतापति ,
                      रुज-ग्रस्त वृद्ध वीर , यहीं रुक जायेंगे .
पथ्य-लाभ लेते हुए , जनपद-बाल देखें ,
                       देश हित भाव भर , यहीं सेवा पायेंगे .
वानर प्रमादी बहु , चंचल है चित्त वाही ,
                       प्रमाद को हम कभी , सह नहीं पायेंगे.
मिलेंगे नगर-ग्राम , वन-उपवन-ताल ,
                       बिना भ्रष्ट किये सब , आगे बढ़ पायेंगे.


राम शंख फूंकते हैं , नगाड़ों की गूँज उठी ,
                       वाहिनी के बढ़ते ही,दिक्पाल कांपते हैं.
तासे और ढोल बजे , तुरही ने तान मारी ,
                       रज - कण घन बन , नभ भर जाते हैं .
चंग और झांझ बजे , बिगुल भी बज पड़ी ,
                       सीना ताने वीर देख , नग डोल जाते हैं.
उदधि उबल जाए , धक - धक धरा कांपे , 
                         राम जय घोषकर , वीर बढ़ जाते हैं.

Tuesday 27 March 2012



प्रेम जगत को सार है , बाकी सब झंझाल .
भर-भर झोली ले चलो, बाकी कूप हि डाल.

भर-भर प्याला प्रेम का,अथक करूं मैं पान.
बाकि रस-रंग व्यर्थ है , यह अंतर को ज्ञान .

प्रेम-दीप झक-झक जले, घर में भरे उजास.
वहां कान्ह कौतुक करे , राधा करे विलास .

प्रेम - पुष्प विकसे नहीं , वे घर हुए उजाड़ .
पल-पल निकले कष्ट में , जीवन बने पहाड़ .

प्रेम - निमंत्रण भेजता  , पढ़ ली जो रे राम.
नाव नदी में डोलती , सरे न तुम बिन काम.

प्रेम-पंथ अद्भुत बहुत ,निस-दिन चलतो जाय.
चले  तु  सांसा  चालती , रुकते ही मरि  जाय.

श्याम  तेरे  हि  द्वार  पर , लगी  प्रेम  की मार .
घायल  कुरंग  सम  दशा ,सुध  लीजो करतार .

निबल सबल हो प्रेम ले , कौतुक  करतो जाय.
केवल  सांसा - डोर  पर  , मछली  चढ़े  पहाड़ .

झीनी  डोरी  प्रेम  की , देखत  ही   मन भाय .
छूते  ही  सुलिपट  चले , छोडो  तो  उलझाय.

प्रेम शहद अति चिपचिपो , भ्रमर जन मति मंद.
अधिक  चाह  के  भाव  में , करे  जीव  को  फंद.

Sunday 25 March 2012

धूप ! चली आओ 



धूप ! चली आओ ,
अब खुल गयी है ,
सालों से बंद , 
खिड़कियाँ . 

धूप !  आना ,
पर , 
अहिस्ता-अहिस्ता आना .
सालों से नहीं मिली हो ,
एकदम से आओगी ,
चुंधिया जायेंगी ,
मेरी आँखें ,
और , 
मैं देखने का सुख ,
भला खोना नहीं चाहता ,
हम दोनों ,मिल कर ,
चुके क्षण , ताजा करेंगे,
साफ कर दी हैं , 
झिर्रियाँ.

सुन रहा हूँ ,
बाहर का शोर ,चिल्लपों,
और चीख पुकार .
तरस गयी हैं , 
ये आँखें .
देखना चाहती है ,
मिटटी-सने बच्चे ,
नंग-धडंग बच्चे ,
जीभ निकाले , 
विकृत मुखाकृति करते ,
मेरे कक्ष के द्वार को ,
थपथपाते बच्चे .
धूप ! चली आना ,
हो जायेंगे कुछ हलके ,
सुन कर इन उद्दंड ,
बच्चों की निश्छल ,
किलकारियां .

मेरी सलोनी सहचरी,
धूप !चली आना ,
रोज सुनता हूँ ,
इस बंद कमरे में ,
झुग्गी-झोंपड़ियों से ,
आता हुआ रुदन .
जहां ,
रोज कूंदी जाती है,
पियक्कड़ आदमियों से ,
कंकाल सी औरतें  .
समझना चाहता हूँ-
विलाप करती ,
कराहती , सुबकती ,
अपने भाग्य को कोसती ,
लाचार सी ,भूखी ,
औरतों की ,दयनीय 
सिसकियाँ .

धूप ! साथ देना होगा ,
मेरी खिडकियों में बेठ,
करेंगे थोड़ी चर्चा ,
क्योंकि , 
तुम श्वेत को श्वेत ,
और ,
श्याम को श्याम , 
खरा -खरा बताती हो .
मैंने सूनी है ,
बंद कमरे में आती ,
बाहर से , फुसफुसाहट .
ज़रा साफ करेंगे ,
श्वेत आभामंडित ,
पूज्य मार्गदर्शकों की ,
अभिसारण की कामातुर ,
एवं विलासी ,
प्रवृत्तियाँ .

जल की करे तलाश .

मधुरा गोरी खाली घट ले, जल की करे तलाश .
रंग कुसुम्भी रखने वाला, सूख गया रे पलाश .

सूख गए हैं ताल-तलैया
फटी बिवाई  सी  धरती .
किसना हाथ धरे बैठा है
क्यों  नहीं  मेह बरसती .

ऋतुएँ सब ऐसे ही बीते, मौसम ने किया निराश . 
मधुरा गोरी खाली घट ले जल  की करे तलाश .

नित्य नया उद्घोषक बोले
गरज के वर्षा होगी आज.
कहीं पर छींटे तेज गिरेंगे
कहीं गिरेगी भारी गाज .
पर नहीं देखता चोकी पर, वो खाली धरा गिलास.
मधुरा गोरी खाली घट ले जल की करे तलाश .

ठूंठ हुए वृक्षों पर बैठे ,
अब गें-गें करे मयूर ,
वे धैर्य दिलाते कहते,
आयेंगे जलद जरूर .
रंग कुसुम्भी खिल जाएगा सज जाएगा आकाश .
मधुरा गोरी खाली घट ले जल  की करे तलाश .  


Friday 23 March 2012

जिस पथ पर ,चल दिए ,
लोटना मुश्किल है.
ले लिया, संकल्प जो ,
तोड़ना मुश्किल है.


कब कहा ? 
लोट-आ , लोट-आ .
कब कहा ?
भूल -जा, भूल-जा .
पर हमारे लिए ,
मुश्किलें बहुत है ,
ना लोट सकते, 
ना भूल सकते ,
छवि दिल में, बिठाई जो ,
हटाना मुश्किल है.

जिस पथ पर ,चल दिए ,
लोटना मुश्किल है.








Monday 19 March 2012

मैं नदी सा , 
बन रहा हूँ ,
सतत बहता,
जा रहा हूँ .


दो कगारों, 
मध्य फैली ,
जिन्दगी ,
अनुशासना में,
रिस रहा है ,
प्राण मुझ से ,
निर्माण की ,
अनुपालना में.
रससिक्त होता ,
जा रहा  हूँ .
मैं नदी सा , 
बन रहा हूँ .



प्रवहमान भी ,
गतिशील भी ,
व्यक्तित्व की,
पहचान है ,
बहते जाना, 
बढ़ते जाना ,
नियति भी , 
सम्मान है .
सब में गुलता , 
मिल रहा हूँ .
मैं नदी सा , 
बन रहा हूँ .



अर्जन के सह ,
विसर्जन भी , 
तृप्ति के सह,
अर्पण  भी है.
गति के सह ,
गायन भी  है ,
मुक्ति के सह ,
बंधन भी है. 
नव सृजन को,
रच रहा हूँ .
मैं नदी सा , 
बन रहा हूँ .

Sunday 18 March 2012

ग्रीष्म तेने,
आगमन को,
हो के मुखरित 
कह दिया है .
शरद से जो ,
स्वच्छ नभ था,
बवंडरों  से ,
भर दिया है .


दो दिवस से ,
जल रहा तन ,
घोर ज्वर जो ,
आ रहा है .
चार पाई से ,
चिपक कर ,
समय युग सा ,
कट रहा है .


निर्दयी ओ ! 
ग्रीष्म तुमने ,
धूल-धक्कड़ . 
भर दिया है.


देख जाते ,
घर किसी के ,
क्षुद्र घंटी ,
हम बजाते .
विनय सह ,
हम क्षेम पूछें ,
आगमन के ,
कारण बताते .


विस्तारवादी ,
ओ ! ग्रीष्म तू ,
खिडकियों से ,
भर गया है .


मेज पर  ,
रचना धरी थी  ,
उड़ा-उड़ा कर ,
उल्लास करता.
तिपाई पर ,
ओषध धरी थी  ,
गिरा-गिरा कर ,
उपहास करता .


शोषकों सा ,
ग्रीष्म बन तू,
ज्वर-ग्रस्त मुझ पर 
छा गया है.


गलत तेरा , 
आचरण यह ,
मुझ को यह ,
स्वीकृत नहीं.
निर्लज्जता से,
सना तेरा यह
यह आगमन , 
अधिकृत नहीं.


बेखबर ,
ओ !ग्रीष्म तू ,
कविता की धार पर ,
चढ़ गया है.


गीत गाती ,
प्यार से , 
कविता प्रथम,
अति नम्र बन .
अधिकार के ,
अवरोध पर ,
कविता काटती ,
अति क्रूर बन .


ग्रीष्म तेरा दंड यह , 
प्राण के उपक्रम सजा ,
कवि कुटिर में,
अहम् से जो भर गया है.

Friday 16 March 2012

दूर देश से ,
आने-जाने  वाले ,
थके-हारे ,ठहरो -ठहरो ,
मेरी मुंडेर पर ,
ओ !भोले विहग .


ओ ! विहग ,डरो नहीं ,
देखो भर दिया जल ,
भर दिया चुग्गा पात्र .
उड़े चले जा रहे हो,
एक देश से दूसरे देश,
दाना पानी के लिए ,
और तुम्हें ,
क्या चाहिए .


तुम्हारी इच्छाएं ,
हैं बहुत छोटी ,
और बहुत अल्प ,
इसीलिए ,
तुम हो पवित्र.
तुम्हें छूने को , 
करता है मन .


है ! उदार मना परिंदों ,
नहीं बाँध रखी सीमा ,
सब जगह ,
और ,
सभी को,
समझते हो अपना .
मुझे लगता है ,
यही है तुम्हारा,
सांस्कृतिक विधान.


यह बहुत उत्तम हुआ ,
तुम नहीं जानते ,
भाषाई दांव -पेंच ,
नहीं है तुम्हारा 
कोई घोषित विधान,
और ,
नहीं होती ,
मत आधारित राजनीति .


कभी -कभी अभाव ,
हो जाते हैं , वरदान ,
तुम्हारे ,
अभावों ने बचा लिया ,
द्वंद्व और द्वैत्व से ,
वर्ग-भेद और संघर्ष से .
बच गए ना ,
प्रकृति की दया से ,
अपने ही खून से ,
अपने ही हाथ रंगने से.


ओ ! विहग ,
तनिक रुक जाओ ,
दे दो मुझे भी,
अपना साहचर्य ,
मैं भी तुम्हारे साथ ,
मुक्त उड़ान ,
भरना चाहूंगा .





Thursday 15 March 2012

मैं अनगढ़ ,हूँ तो हूँ ,
यही मेरी पहचान ,
मैं जैसा हूँ ,
वैसा सम्यक हूँ.

मैं नीम , बरगद ,
या बबूल ,
क्या फर्क पडेगा ,
नहीं हो पाया आम.
तनिक करो चिंतन ,
हो भी गया  मैं आम ,
क्या आमों के मध्य ,
नहीं पनपेगा द्रोह ,
और,
क्या वे नहीं उड़ायेंगे ,
मेरा उपहास .

मैं हूँ कटु नीम ,
मेरी कटुता से ही ,
आमों की मधुरिमा ,
मान पाये हुए है.
मैं भी हो गया मधुर ,
बहुत घातक होगा ,
सामूहिक 
स्वास्थ्य के लिए .


मैं अनगढ़ बरगद ,
जटाजूट , अस्त-व्यस्त ,
इसी में ही सुगढ़ आम,
शोभा पाते .
छोड़ दूंगा ,
मेरा महाकाल रूप ,
सारे भूत-प्रेत , अवधूत ,
डाल देंगे डेरा ,
आमों के नीचे ,
फिर ,
आमों पर नहीं पड़ेंगें झूले .
यह उचित नहीं होगा ,
सामूहिक 
सौन्दर्य बोध हेतु .


मैं कंटीला बबूल ,
मेरे कंटक जाल से ही ,
आमों की मसृणता,
सराही जाती है ,
क्यों मसृणता चाहते हो . 
छोड़ दूं कंटक जाल ,
तहस-नहस हो जायेंगे,
आमों के दर्शनीय बगीचे .
यह उचित नहीं होगा,
सामूहिक 
प्रतिरक्षा के लिए .


बस अभ्यर्थना है-
जैसा हूँ वैसा रहने दो ,
इस जन गंगा के ,
तीव्र प्रवाह में ,
मुक्त हो कर बहने दो . 







Wednesday 14 March 2012

आज कल शतरंज ,
खेली कम जाती है ,
परन्तु उसकी चालें,
बहुत चली जाती हैं.


तुम्हें क्या मालूम कि ,
उनकी मान - मनुहार ,
प्यार भरी अभ्यर्थनाएँ,
और , 
गलबहिया में ले-ले ,
सीने पर भींच - भींच,
कपोलों को चूम-चूम   
कब बना दे ,
शहादत का बकरा.


बना देंगे  देवमूर्ति,
बिठा देंगे ,
किसी आलय  में ,
तुम्हारे नाम पर लेंगे ,
चढ़ावा ,भेंट एवं उपहार ,
और -
तुम पर डाल देंगे ,
कुछ छींटे .
जिस दिन ,
तुम्हारे नाम पर ,
आने वाला चढ़ावा ,
हो जाएगा कम ,
या , उकता जायेंगे तुमसे ,
या,  लगने लगोगे बोझ ,
उस दिन ,
तुम्हारा लगाया जाएगा मोल ,
विरासत के नाम पर ,
उसके बाद बिकोगे ,
और , फिर बिकोगे ,
यह क्रम चलता जाएगा.


तुम्हें सीखना होगा ,
अभाव में जीना ,
और ,
चुपचाप विदा हो जाना,
क्योंकि ,
तुम्हारी कामनाओं की ,
आड़ में ही ,
चलते हैं शतरंज की चालें .
यदि चाहते हो ,
अपनी कामनाओं को ,
पूर्ण करना ,
तब, तुम्हें भी सीखनी होगी ,
शतरंज की निर्मम चालें.

Tuesday 13 March 2012

वाहिनी के अग्र-अग्र, सेनापति नील चलें , 
                     सेनापति तय करें ,वाहिनी के मार्ग को .
मार्ग वही उत्तम है , सुधा सम नीर मिले ,
                     छाँव फल मधु युक्त , तय करें मार्ग को .
उचित विस्तार लिए , सहज स्वरूप लिए ,
                     मुक्त हो चयन करें , निरापद मार्ग को .
शिविर लगाने हेतु , रजनी बिताने हेतु ,
                     सरल भू भाग मिले , बढ़ चलें मार्ग को .



वाहिनी का अग्र भाग , नील से रक्षित रहे ,
                           नील अनुचर सब , मार्ग को परख लें .
गिरी-गह्वर-गुहा में , लघु वन प्रांत में भी ,
                           अरि के षड्यंत्र होंगे , उचित परख लें .
सुधा सम नीर श्रोत , गरल से भ्रष्ट होंगे ,
                           वाहिनी के पान पूर्व ,प्राण को परख लें.
कपि वीर नील सह , मार्ग का सृजन करें ,
                            मार्ग में आगत सेतु , ठोक के परख लें.
                                         

ऋषभ दाहिनें रहें , वाम गंधमादन हों,
                     वाहिनी  रक्षित रह , मध्य  बढ़ी जाएगी .
वीर द्वय सजग हो , पार्श्व द्वय संभालेंगे ,
                     अरि घात लिए होगा , बची चली जाएगी .
मध्य भाग वाहिनी में , मया सह लक्ष्मण से , 
                     हनुमान - अंगद से , प्रेरणा  दी  जाएगी .
वाहिनी के पश्च भाग , जाम्बवंत सुषेण हो ,
                     वेगदर्शी  वानर  हो ,  दृढ़  होती  जाएगी .



Monday 12 March 2012

छल देखें हैं ,छलिया देखे ,
छलिया हो जा सावधान.
मित्र मेरे सब जाग गए हैं ,
अब दृष्टि का है प्रावधान .


कदम मिलाकर बढ़ जाते ,
ये मस्ताने मित्र मेरे ,
रज से सने हुए हाथों में ,
लिए मशाले मित्र मेरे ,
छलिया तेरे लिए सीख है ,
हटा मार्ग के सब व्यवधान .
छल देखें हैं ,छलिया देखे ,
छलिया हो जा सावधान.


अँधेरे  में  या  परदे में ,
क्या करता ये जान गए ,
खूब  जड़ें   तेने खोदी है ,
अच्छे  से  पहचान  गए,
ये दीवाने मांग रहें हैं ,
मुक्ति पथ का समाधान .
छल देखें हैं ,छलिया देखे ,
छलिया हो जा सावधान.


सरल सहज सीधेपन में, 
बन्दर बाँट बहुत कर दी,
मौन  मूक थे  मुखर हुए,
भींचे जबड़े कस दी मुट्ठी,
षड्यंत्रों से हाथ खींच ले,
इस में ही तेरा सम्मान .
छल देखें हैं,छलिया देखे ,
छलिया हो जा सावधान.


शकुनी सी तेरी चालें हैं, 
बंद करो अब बंद करो,
मुक्ति पथ को मांग रहे हैं,
मुक्त करो अब मुक्त करो.
धूल उड़ाता नव युग आता,
बचा-बचा अपना परिधान.
छल देखें हैं ,छलिया देखे ,
छलिया हो जा सावधान.

Sunday 11 March 2012

नव  गीत .
========
कलम के सिपाही ,
जाग रे जाग ,
अभी भी तुझ पर ,
है विश्वास .

जिंदगी के  खेत  ,
फेले हैं  ,
श्वांसों की फसल ,
झूमे हैं .
लुटेरे लगाए हुए  ,
उस पर घात  .
कलम के सिपाही ,
जाग रे जाग .

कुछ लुटेरे लगे ,
हुए हैं ,
जिन्दगी की खुली ,
लूट में ,
चाहते हैं कब लगे ,
तेरी आँख.
कलम के सिपाही ,
जाग रे जाग .


कर  पेनी  कलम ,
अनुभूति लिए ,
अवांछित हटा,
अभिव्यक्ति लिए ,
पतझड़ के मौसम में ,
सृजन की है चाह .
कलम के सिपाही ,
जाग रे जाग .




Saturday 10 March 2012

चुप्पी व्याल है ,
चुप्पी कारा है ,
चुप्पी है -
एक छद्म युद्ध .


वे कहते हैं -
आज कल वो ,
बिल्कुल बदल गये हैं ,
बोलते ही नहीं ,
किसी भी  बात पर .
कोई कुछ भी करो ,
कोई लेना-देना ही नहीं ,
हो गये हैं चुप ,
जैसे जम गयी हो ,
मचलती हुई झील .
उन्हें क्या मालूम कि ,
मचलती हुई  झील ,
जब भी जमती है ,
होती है काल का रूप ,
जब भी  पिगलेगा हिम ,
तब ना जाने कितने ,
उसकी पतली पर्त से ,
खायेंगे धोखा ,
और -
मृत्यु कर लेगी उनका वरण,
चुप्पी नहीं चाहिए ,
छोड़ो-छोड़ो-छोड़ो।


कल तक जिस घर में ,
होता था शोर - शराबा ,
आज वहां है गहरी चुप्पी .
दिखने में लगता है वातावरण  ,
बहुत ही शालीन और सभ्य,
लेकिन-
अन्दर ही अन्दर ,
पनप रहा है विद्रोह,
और -
पनप रहा है दमन ,
उग रही है लहलहाती हुई ,
कुंठा व वर्जना की फसल ,
नहीं चाहिए यह सब ,
छोड़ो-छोड़ो-छोड़ो।


जीवन नदी है ,
उछलता-कूदता हुआ ,
अच्छा लगता है,
बहती हुई  नदी ,
नहीं रहती चुप,
उसके बहाव में है शोर ,
वही शोर देता है संगीत,
और -
उस संगीत में है जीवन ,
जीवन के लिए,
नहीं चाहिए चुप्पी ,
छोड़ो-छोड़ो-छोड़ो.

Friday 9 March 2012

हवा मैं फैली है , 
डर की गंध ,
बहुत भयावह .


अम्मा डरती है ,
छुटकी स्कूल जो गयी है ,
बीस बार पूछती है -
"छुटकी आ गयी क्या" ?
और -
उकता कर कहता हूँ -
"आ भी जायेगी अम्मा ,
नाहक सर खाती हो".
अम्मा है कि-
हर बार उतर जाती है ,
छुटकी के लिए लड़ने ,
तब मैं समझ जाता हूँ ,
अम्मा ने पढ़ ली होगी  , 
कोई खबर ,
या, देखा होगा दूर दर्शन ,
और-
उसकी रूह फिर-फिर कांपी होगी .


अब्बा रोज सुबह उठ कर ,
बिना लांगा किये ,नहा लेते हैं ,
और ,
प्रारम्भ हो जाता है ,
उनका अनुष्ठान .
जब कि मैं 
जमा देने वाली सर्दी में ,
दुबका रहता हूँ रजाई में ,
अब्बा आकर अपनी ,
नर्म अँगुलियों को ,
मेरे भाल पर छू भर देते हैं ,
होठो से बुदबुदाते हैं ,
महामृत्युंजय महामंत्र .
क्योंकि ,
वे रोज सुनते हैं -
ह्त्या , अपहरण और लूट .


भैया को रोज 
सबसे पहले चाहिए ,
अखबार का वह पन्ना ,
जिस पर छपा होता है ,
ग्रह-गोचर और दैनिक भविष्य ,
और ,
चीफ की डांट पर ,दोड़ पड़ते हैं ,
झोला छाप ज्योतिष के पास ,
और ,
बदलते रहते हैं रत्न संयुक्ता मुद्रिका .


डर का है साम्राज्य ,
न जाने कब किस को ,
ले लेता है गिरफ्त में ,
जैसे श्येन छोटे पक्षी को.

Wednesday 7 March 2012

चाँद !
तुमने देखें हैं ,
जिंदगी के कई,
उतार चढ़ाव .
कभी उजाले में ,
कभी अँधेरे में .
कभी अमावस में ,
कभी पूर्णमासी में .


होली के बारे में ,
पूछता हूँ विचार,
क्या तुम बोलोगे ?
या , 
किसी मोनी बाबा जैसे ,
हमेशा की तरह चुप ,
या ,
भीष्म की तरह खा ली ,
"तटस्थ "रहने की कसम .


चलो भी अब बताओ -
होली की तरह ,
कौन जलता है ?
और-
प्रह्लाद की तरह,
कौन बचता है ?

हे ! सोंदर्योपासक रजनीकर ,

तुम क्यों कर बोलने लगे ,
तुम बोलोगे तो खो ही दोगे,
मिलने वाली सारी की सारी ,
उपाधियाँ , उपमाएं ,
और -
कवियों की वे कवितायें ,
जिनमें तुम केंद्र में ,
रखे जाते हो ,
और 
तुम में देखते हैं उनकी प्रेयसी ,
या, 
कोई वात्सल्य विदग्धा माँ,
तुम्हें देख कर याद करती है,
मथुरा गए अपने लल्ला को ,
या  ऐसा ही कुछ और भी ,
जो तुम्हें रुचता है .


कोई बात नहीं सुधाकर ,
सोचना इस बारे में ,
रंग इतने फीके क्यों हो गए ?
मीठा बेस्वाद  क्यों हो गया ?
नमक बहुत तीखा क्यों हो गया ?
आम आदमी 
होली की तरह जलता क्यों ?
और -
नेता प्रह्लाद की तरह बचता क्यों ?

Tuesday 6 March 2012

मेरे आँगन में होली पर 
उतर आये इन्द्रधनुष ,
इसलिए मेरे घर पर ,
जरूर आना मित्र ,
मुझे प्रतीक्षा रहेगी .


घर पर बनाई है ,
पसंद की मिठाइयां ,
कुरकुरी नमकीन ,
मिल बैठेंगे मेरे यार ,
खायेंगे और -
थोड़ी सी कर लेंगे 
गली के खिलंदड ,
छोरों के साथ धमाल .


यही तो एक अवसर है ,
संबंधों को लाल रंग में ,
तरबतर करने का ,
आयेगा न , मुझे प्रतीक्षा है.


मैं जानता हूँ तेरा शहर ,
मेरे शहर से ज़रा दूर है ,
फिर भी तुझे आएगी , 
मेरी याद . 


तुझे याद है ना ,
होली के ही दिन ,
हमने शर्मा जी को उठा कर ,
पानी की प्याऊ में ,
खूब डुबोया था,
वो भी याद होगा ,
शर्मा चाची ने दी थी ,
दनादन गालियाँ .


शर्मा जी से मिल लें ,
उनके चरणों में,
धीरे  से बिछा देंगे, 
श्रद्धा का पीत रंग.


देख तू रोना नहीं ,
एक खबर देता हूँ ,
आजकल चाचा,
बिल्कुल अकेले हैं.


हाँ , एक बात और ,
याद होगी तुझे भूरा की ,
हाँ - हाँ ,वही भूरा ,
जो हमारे लिए ,
अपना काम छोड़ ,
गड़ दिया करता था ,
गिल्ली -डंडा और बल्ला,
हाँ वही भूरा ,
शहर में गया था कमाने ,
और , 
मेट्रो के नीचे ,
खो आया अपने पैर .


तू आजाये तो ,
भूरा का दर्द , 
ज़रा  कम होगा ,
दे नहीं सकते पैर ,
परन्तु ,दे ही आयेंगे ,
बैसाखी का एक जोड़ा  .
इस होली पर ,
उसके उदास कपोलों पर,
मल आयेंगे  , 
प्यार का मनचाहा रंग .


मुझे मालूम है -
मेरी इन बातों से ,
उदास जरूर होगा ,
पर खुश-खुश ले आयेगा ,
प्यार का रंग ,
और -
सजेगा मेरे आँगन में ,
कई सालों बाद इन्द्रधुनुष.










  
  

एक चिड़िया छोड़ आई ,

देश अपना .
चाहती थी पूर्ण करना ,
एक सपना .


चुलबुली वो बहुत खुश थी ,
चहकती थी , फुदकती थी ,
सहचर लिए वो कह रही थी ,
प्रिय -देश में अब मैं बसूँगी ,


संग साथी को लिए वो,
बुन रही थी जो  घरोंदा ,
हाय रे ! यह काल चक्र,
छिन्न-भिन्न करता घरोंदा,


लड़ रही थी काल से वो  ,
चहकती थी-फुदकती थी,  
गान गाती करुण स्वर में,
सृजन को समझा रही थी .






उत्साह सम्पन्न हो के , सीतापति कह चले ,
                     हे सुहृद सुग्रीव जी , मंत्रणा उचित है.
नभ मध्य रवि चढ़ , सचर हैं धर्म हेतु 
                     तमस  मर्दन  करे , प्रेरणा  उचित  है .
उचित मध्याह्न अभी , विजय मुहूर्त श्रेष्ठ ,
                     चर लग्न चल रहा  , गमन उचित है .
शुभ में विलम्ब ना हो , गति में विरोध ना हो ,
                     रावण का वध तय , प्रस्थान उचित है.


वाहिनी के अग्र-अग्र, सेनापति नील चलें , 
                     सेनापति तय करें , वाहिनी के मार्ग को .
मार्ग वही उत्तम है , सुधा सम नीर मिले ,
                     फल मधु युक्त हो वो , तय करें मार्ग को .
उचित विस्तार लिए , सहज स्वरूप लिए ,
                     मुक्त हो चयन करें , निरापद मार्ग को .
शिविर लगाने हेतु , रजनी बिताने हेतु ,
                      सरल भू भाग मिले , बढ़ चलें मार्ग को .

वाहिनी का अग्र भाग , रक्षित रहे नील से ,
                           नील अनुचर सब , मार्ग को परख लें .
गिरी-गह्वर-गुहा में , लघु वन प्रांत में भी ,
                           अरि के षड्यंत्र होंगे , उचित परख लें .
सुधा सम नीर श्रोत , गरल से भ्रष्ट होंगे ,
                           वाहिनी के पान पूर्व ,प्राण को परख लें.
कपि वीर नील सह , मार्ग का सृजन करें ,
                            मार्ग में आगत सेतु , ठोक के परख लें.
                                         

Thursday 1 March 2012

रावण की लंका सारी , वारिधि के मध्य बसी  ,
                      प्रभु ! लंका नगरी को , ध्वस्त कर आया हूँ .
रावण के पास कई , सुभट हैं निशाचर,
                      प्रभु !  कई  वर  वीर , मार  कर   आया  हूँ  .
रावण के ह्रदय में , परिजन-पार्षद में ,
                       निशाचर - समूह   में , शंक  भर  आया हूँ.
रावण का स्वर्ण दुर्ग , स्वर्ण नगरी सहित ,
                       धू - धू  कर  होली सम , दह  कर आया हूँ.


निवेदन कर कपि , चरण में नत हुए , 
                        राजीव  ने  उठ  कर , वक्ष पे लगा लिया .
लक्ष्मण ने आगे बढ़ , कपि कर द्वय गह ,
                        साधु-साधु कह कर , अक्ष पे लगा लिया.
सुग्रीव ने मोद भर , राज-रत्न कह कर ,
                        वानर को दक्षिण में , भुज पे लगा लिया.
अंगद ने आगे बढ़ ,राम जयघोष कर ,
                        ले  कर  के वानर को , पृष्ठ पे लगा लिया.


सुग्रीव संकेत कर , शांत कर सभासद ,
                         राघव से  कहते हैं , प्रभु ! बढ़  जाइए  .
वीर हनुमान अद्य  , निशाचर मार आये ,
                         आत्मबल हीन रक्ष , राम चाँप जाइए .
स्वर्ण रक्ष नगरी को , दुर्ग सह दह आये , 
                         रक्ष-तंत्र  भ्रष्ट  वहाँ , पूर्ण  फूँक  जाइए .
सीता सह लोकोद्धार , समय  उचित जान  ,
                         सुर्ख  हुए  लोह  पर , चोट कर  जाइए .
रावण तनय सर्व , श्रेष्ठतम सुभट हैं,
                 वर  वीर  इन्द्रजीत , दर्शनीय वीर है .
दशानन सहोदर , एक-एक  वर वीर ,
                 भीमकाय कुम्भकर्ण , भयंकर वीर है.
पार्षद व सभासद , दूर द्रष्टा नीतिज्ञ हैं,
                 श्रद्धाबुद्धि  विभीषण , बुद्धिमंत वीर हैं.
 दशानन रणधीर , सुदक्ष राज-कार्य में ,
                  हठबुद्धि  पविकर्ण , अहंकारी  वीर  है.


अतुलित संपदा का , स्वामी दशग्रीव जाना ,
                   प्रभु ! आप  सम  वह , सतोगुणी  नहीं  है.
वर वीर युक्त वह , सुवाहिनी संजोता है,
                  प्रभु ! लोकवाहिनी सी , वाहिनी ही नहीं है. 
इन्द्रजीत - कुम्भकर्ण , भयंकर निशाचर ,
                  प्रभु ! भ्राता - सुग्रीव  से , हितकारी नहीं है.
जपी - तपी वीर वह , दक्ष रणधीर वह ,
                   प्रभु !  सीतापति सम , अधिकारी  नहीं  है.


प्रभु ! नम्र निवेदन , आंजनेय का सुनिए ,
                        लोकवाहिनी को अब , मुक्त कर  दीजिए.
कगारों के मध्य बंधी , नदी सम वाहिनी है ,
                         उमड़ - गुमड  रही , फैल  जाने  दीजिए .
आप लोकनायक हैं , लोक आप ही के साथ ,
                         अग्रसर  हो  कर  के , दिशा  अब  दीजिए .
हर - हर कर  जैसे , नदी लील जाती सब ,
                         रावण से शोषकों को , लील जाने दीजिए.      

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...