Saturday 29 December 2012

वह सोयी है .


     मत बतियाओ ,
चुप-चुप-चुप-चुप-चुप
       वह सोयी है .

       पूरे पखवाड़े ,
  वह तड़प-तड़प कर,
जैसे-तैसे श्वासें ले कर,
        मछली जैसे ,
     मचल-मचल कर ,
अभी-अभी वह शांत हुई है,
      शायद सोती है ,
तुम से विनती एक यही है -
      उस को सोने दो,
  चुप-चुप-चुप-चुप-चुप,
         वह सोयी है .

       चेहरा उस का ,
  कितना दर्द भोग कर,
देखो कैसा म्लान हुआ है,
      जैसे रक्त कमल,
मदांधगज से नोचा जा कर,
कांतिहीन निष्प्राण हुआ है ,
  उस के घाव बहुत हरे हैं  
        बहुत थकी है
तुम से विनती एक यही है,
      विस्मृत ही रहने दो,
    चुप-चुप-चुप-चुप-चुप,
           वह सोयी है .

          सुनते हो ना ,
मदांधगज की चिंगाडों को,
  वह आवारा दिशाहीन है,
          आज जरूरत,
 मर्यादा और मूल्यों की है ,
देश अभाव से कांतिहीन है,
  उस की देह उधड़ गयी है,
          बहुत डरी है,
तुम से विनती एक यही है,
    ओढ़ दुशाला सोने दो ,
   चुप-चुप-चुप-चुप-चुप,
           वह सोयी है .

                                           - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .



Thursday 27 December 2012

ब्रह्म राक्षस


आजकल आदमी ,
डरने लगा है ,
अपने ही प्रतिबिम्ब से ,
क्योंकि -
डरना उस की
आदत सी हो गयी .

डर ?
हाँ , वह डर ,
निकलता है ,
अचानक सा ,
चलती रेल के डिब्बों से ,
बसों और ट्रामों से ,
होटलों और धर्मशालाओं से ,
प्लेटफार्मों से ,
बसों के अड्डों से ,
कभी वह डर निकलता है ,
किसी प्रेत सा ,
अस्पतालों की दवाइयों से ,
या, पढ़ने की पोथियों से .

डर -
पीछा ही नहीं छोड़ता है ,
वह रेंगता हुआ चला आता है ,
घर के अन्दर और बाहर ,
अपनों और परायों के मध्य ,
जबरदस्ती धंसा चला आता है ,
किसी ब्रह्म राक्षस की तरह ,
सहम जाती है,
कमलिनी सी तनवंगी सी देह,
और ,
डर के मारे ,
वह थर-थर कांपती हुई,
सूख जाती है ,
धूप खायी कोंपल की तरह.

डर का यह ब्रह्म राक्षस ,
हमें देख अट्टहास लगाता
हम पर प्रश्न-चिह्न मढ़ता जाता ,
मूल्य पोथियों में है कैद  ,
आत्मा में नहीं करते रास,
इसीलिए आज भी धरातल ,
बहुत लिजलिजा है ,
और ,
इतना घिनौना कि घिन आती है ,
बहुत दुखी हूँ ,
दिल्ली की खबर सुन कर,
मेरा संध्या-वंदन ,
व्यर्थ हुआ चला जाता है ,
स्वस्ति वाचन तो बेचारा,
सिर धुन-धुन कर ,
बस  पगलाया ही जाता है.

     - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Tuesday 25 December 2012

अकेलापन ओर अजनबीपन.



उसे शिकायत है,
अपने अकेलेपन से ,
और ,
उसे दिक्कत है,
अपने चारों ओर फैले ,
घने कुहरे से,
अजनबीपन से.

कोई नहीं आता ,
उस के पास,
आते और जाते हुए,
कितने सारे लोग .
रुकता कोई नहीं ,
सब के सब
गुजर जाते हैं ,
उस के पार्श्व से .
कभी किसी से ,
मिल जाती है आँख,
नहीं होता कोई भाव,
और ,
कभी नहीं पैदा होता,
अपनत्व भरा सम्प्रेषण .

अपरिचितों का रेला ,
बहता चला जा रहा,
हर एक चेहरे पर ,
अजनबीपन का ,
पुता हुआ,
श्याह काजल .
जिस के कारण ,
सब के सब एक से,
बिम्ब की तरह ,
गुजर जाते हैं .
किसी पानी के ,
बुलबुले की तरह,
बस एक ही परिचय ,
एक सा ही परिचय ,
पानी और बुलबुला ,
आदमी और रेला .

मैं हर बार ,
उस की ओर बढाता हूँ हाथ ,
वो  है कि ,
देखता ही नहीं ,
शायद उकरते हुए ,
हर बिम्ब की तरह ,
मेरे बिम्ब को भी ,
वैसा ही मानता है ,
शायद ,
उस में कोई ग्रंथि सी हिचक,
उसे नहीं करती मुक्त ,
या,
वो ही नहीं पाना चाहता मुक्ति .
इसीलिए बढे हुए हाथ ,
उसे दिखाई नहीं देते,
ओर ,
अपने वृत्त से ,
नहीं आता बाहर ,
ओढ़े रहता है ,
सर्दियों के कम्बल की तरह ,
अकेलापन ओर अजनबीपन.

                 - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.



Sunday 23 December 2012

मील के पत्थर


मील के पत्थर ,
हुआ करते थे आदर्श,
आज ,
बीते समय की ,
हो गयी है बात.
मील के पत्थरों को ,
उखड़े हुए ,
और ,
देखा है ओंधे मुंह,
लुढ़कते हुए .

अब कोई पैमाना ,
कहाँ रहा है ,
विश्वसनीय और ,
पूरा प्रामाणिक ,
वे अब बदल गए हैं ,
और ,
अपना आदर्श ,
समय के साथ ,
छोड़ चुके हैं ,
जैसे छोड़ देता है ,
सांप अपनी केचुली,
या,
बढ़ती उम्र के साथ ,
तन छोड़ देता है ,
अपनी मुक्ता सी रवानी .

जरूरत है ,
समय के साथ ,
मील के पत्थरों ,
के बदलाव की ,
नए और प्रामाणिक ,
आदर्श पैमानों के,
ठोस प्रस्ताव की.
इस हेतु ,
कभी नहीं आयेंगे ,
आकाश से आदर्श ,
हमें बनाना होगा ,
या,
फिर से गढ़ना होगा,
आदर्श रूप ,
मील के पत्थर .

जमीन से उखड़े हुए ,
मील के पत्थरों से ,
उचित पैमाने की ,
आशा -प्रत्याशा ,
बिल्कुल है  व्यर्थ ,
फिर क्यों ,
चीख-चिल्लाहट में ,
बाधित होती है गति ,
स्वयं बन सको तो बनो ,
मील के पत्थर ,
और ,
जीवन पुष्ट हो कर
पा सके गति,
ठीक भरी-पूरी ,
नदी की तरह .

     - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .

शीत सुहानी .


===========
चढ़ आई है ,
घर की बुढिया सी,
शीत सुहानी .
*******************
लिये रजाई ,
कम्बल ओढ़े आई ,
शीत सुहानी.
*******************
सी सी करती ,
दस्तक देती आई ,
शीत सुहानी .
*******************
मीठा हलुआ ,
गुड-तिल्ली ले आई ,
शीत सुहानी.
*******************
खींच रजाई ,
माँ बोली -"ओढ़ इसे" ,
शीत सुहानी .
*******************
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .

Saturday 22 December 2012

बहेगी मधुर पीयूष की धार


सुबह से लेकर सायं तक,
तुम साधते हो निशाना ,
ले कर इच्छाओं की गुलेल ,
और ,
करते रहते हो ,
किसी व्याध की तरह शिकार .

नित्य ही अपनी झोली को ,
भरते हो अपने अभीष्ट से ,
और छोटे से दीपक के तले ,
खोलते हो अपनी झोली ,
टटोलते हो अपनी ,
भयावह उपलब्धियां,
उस समय ,
विस्फारित नयनों से ,
अपनी निर्दयी दृष्टि को ,
फैलाते हो ,
और ,
अपनी अतृप्त तृषा को ,
और अधिक उद्दीप्त करते हो ,
क्योंकि ,
चुल्लू भर खारे पानी से ,
भला किसी की ,
आज दिन तक बुझी है तृषा  ,
जो तुम्हारी भी बुझ सकेगी प्यास  .

तुम्हारी इच्छाओं की गुलेल ,
कब चलना होगी बंद ,
शायद तुम को  नहीं मालूम ,
लेकिन ,
प्यास बुझाने की जग जाए होंश,
तब मेरे पास जरूर आना ,
तब तुम्हें ले चलूँगा ,
बाहर से अन्दर की यात्रा पर ,
और ,
फिर लौटा कर ले आउंगा ,
अन्दर से बाहर की यात्रा पर .

हाँ ,
यही एक विकल्प है ,
तुम्हारी अथक तृषा की शांति का ,
क्योंकि ,
तभी तुम्हारे और अन्य में ,
बैठा हुआ ,
अजदहे सा द्वंद्व होगा समाप्त ,
इच्छाओं की गुलेल होगी चुप,
और ,
बहेगी मधुर पीयूष की धार
तुम्हारी अथक तृषा होगी शांत .

    - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .

Friday 21 December 2012

जिजीविषा के लिए


खोजता हूँ तुम को ,
अन्वेषी की तरह,
शब्द में और अर्थ में ,
रूप में और रंग में ,
गंध और स्पर्श में ,
तुम हो कि ,
कभी पूरे नहीं
मिला करते ,
क्योंकि ,
तुम हर एक संस्थिति में,
थोड़े-थोड़े रूप में,
बदल- बदल कर ,
अभिव्यक्त हो .

मैं तुम्हारे पीछे ,
भागा करता हूँ ,
और,
तुम हो कि ,
मेरे साथ खेलते हो ,
लुका-छिपी का खेल .
आखिर कर तुम ,
मुझे इस तरह से ,
छकाने में,
किस तरह के ,
अहं की पूर्ति ,
अनुभव कर पाते हो .

यदि तुम को ,
इस सब में होती है
कोई संतुष्टि ,
तो यह तुम्हारा,
अकरुण व्यावहार ,
अवश्य निरंतर रहे,
लेकिन ,
तुम दयित भाव से,
किसी अवतार की तरह ,
वरद मुद्रा में आओगे,
तब,
तुम मेरी दृष्टि में ,
श्रद्धा-पात्र नहीं रहोगे .

अस्तु,
तुम इसी तरह से ,
मुझ से दूर-दूर ,
भागते रहो, भागते रहो,
और ,
अन्दर-बाहर,
छिपते-छिपाते रहो,
आँख-मिचौनी खेलते रहो,
और मैं ,
तिल-तिल ही सही ,
तुम को खोजता रहूँगा ,
नित नवीन रूप में,
तुम को पाता रहूँगा,
यह सब तुम्हारे,
ऊंचे कद के लिए ,
और मेरी जिजीविषा के लिए,
बहुत ही जरूरी है ,
जैसे जीवन के लिए ,
हवा पानी और धूप ,
बहुत ही जरूरी है.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .


Sunday 16 December 2012

कभी स्वीकार नहीं किया,



तुम ने मुझे ,
कभी स्वीकार नहीं किया,
बस , अपनी इच्छाओं से,
दे दिया रूप-आकार ,
क्षणिक प्यार ,
क्षणिक तिरस्कार.
कब तुम ने सुनी है ,
मेरे कोमल ह्रदय की धड़कनें ,
और कब समझी है , 
मेरी इच्छाओं की दुनिया,
क्योंकि,
तुम्हें अवसर ही नहीं मिला,
अपने से बाहर आने का.

तुम ने कभी जाना है,
तुमसे बाहर भी है ,
एक दुनिया,
जिसे जाने बिना ,
हर कोई है अधूरा ,
मेरी नजर में भी ,
तुम वैसे ही तो हो,
भले ही अपने अहं की ,
सम्पूर्ति में मानते हो ,
अपने को खरा-पूरा,
लेकिन सच यह है -
यह सब बहुत ही 
हास्यास्पद जीवन है,
जो है बिल्कुल आधा-अधूरा .

हमेशा मुझे माना है,
उपभोग की वस्तु ,
जितना उपयोग ,
और जैसा उपभोग ,
उसी अनुसार दिया है दाय ,
कभी स्नेह ,कभी तिरस्कार,
( उस में भी अपनत्व नहीं था )
तुम्हारे हाथों में ,
ताश की गड्डी की तरह रहा,
जी भर कर फेंटते हो,
पत्ते बाँटते हो,
रम्मी बनाने की चाहत में,
दगा भी करते हो,
बन जाती है रम्मी ,
तब चूम जाते हो ,
टूट जाती है रम्मी,
टेबल पर पटक जाते हो ,
यही तुम्हारे चरित्र का सच है .

हर रात तुम्हारी ,
अकेलेपन में गुजरती है ,
दिन अजनबीपन में,
गुजर जाता है ,
इस की वजह मैं नहीं .
एक बार छोड़ के देखो,
पत्तों की तलाश,
इक्का-बादशाह , 
बेगम-गुलाम,
नहला- दहला 
या,
जोकर का झंझाल.
मुझ में खोज के देखो,
अपना बिम्ब-प्रतिबिम्ब,
तब नहीं रहेंगे-
रातों का अकेलापन,
दिन का अजनबीपन.


Thursday 13 December 2012

यह भी सृजन का एक स्तर .


अपनी ही तलाश ,
बहुत मुश्किल ,
कार्य होता है ,
खड़े  पर्वत की ,
चढ़ाई का जैसे ,
दुष्कर भार होता है.

यह तलाश
नित्य करना,
हमारी नियति जैसा ,
या,
यों मान लें ,
हमारी दिनचर्या की ,
अनुक्रमणिका के
मुख्य चरण जैसा ,
जिस के अथ और इति,
के फैलाव में है ,
परं अर्थ जैसा.

यह तलाश इसलिए कि,
मुझ को मिला है ,
प्रकृति से -
रंग,रूप , आकार ,वर्ण ,
ये सब भिन्न है,
ह्रदय, बुद्धि और चिन्तना,
ये सब भी सभी से भिन्न हैं
और,
भिन्नता ही पहचान है ,
उस ने सजाई है ,
अपनी अल्पना ,
कुछ रंगीन करने के लिए ,
कुछ विस्तार देने के लिए ,
इसीलिए सब के अपने ,
अलग वर्ण और अपने चिह्न हैं.

मैं अलग -थलग सा ,
चल रहा हूँ तो चल रहा हूँ ,
यह बहुत जरूरी है ,
अपनी ही तलाश के लिए.
मिल कर सभी में ,
गड्ड-मड्ड होना ,
सम्यक है नहीं,
इस से तो ,
उस प्रकृति की रचित,
अल्पना बिगड़ ही जायेगी.
मैं अलग रह कर ,
अल्पना का अंश बनना
सम्यक मानता हूँ .
हाँ यह सही है -
मैं पूर्ण अल्पना,
कभी न हो सकूंगा ,
पर इस बात का ,
मुझ में परितोष होगा,
अल्पना को कभी ,
भ्रष्ट तो न कर सकूंगा .

कितना कष्टप्रद होता है,
व्यक्ति भूल जाए अपनी तलाश ,
या ,
भीड़ में खो जाए भीड़ बन कर ,
जैसे किसी काव्य-संकलन में ,
किसी छोटी कविता का ,
संकलन के बोझ में ही ,
दबे रहना और कुचलना ,
यह बहुत त्रासद,बहुत त्रासद
या,
हांशिये पर चले जाना
यह बहुत भयावह,बहुत भयावह.

सच,
अस्तित्व की तलाश ,
बहुत मधुर है, बहुत मधुर है,
तलाश के लिए जीना,
सहज तो है नहीं ,
पर,
बहुत मधुर है, बहुत मधुर है,
यह भी सृजन का एक स्तर .

तलाश .


भीड़ के रेले में ,
एक चेहरा खोजना ,
बहुत मुश्किल होता है ,
जैसे भूसे के ढेर में,
सूई का खोजना.

कितने सारे चेहरे,
आते -जाते चेहरे ,
उठते-गिरते चेहरे,
श्यामल-उज्ज्वल चेहरे,
खुले-खुले चेहरे ,
मुखौटे चढ़ाये चेहरे ,
कैसे-कैसे चेहरे ,
इतने सब में से ,
अपनी ही तलाश ,
बहुत मुश्किल होती है,
चेहरा ?
हाँ , वह चेहरा,
जिस को पा कर लगे ,
हाँ ,इसी की थी चाह ,
इसी की थी तलाश .

इसी खोज के सिलसिले में ,
कई बार खुद को ही ,
गुम होता पाते हैं,
तब उस भीड़ में ,
स्वयं से स्वयं की तलाश ,
कितनी होती है त्रासद,
तब उस चलती हुई ,
भीड़ में से ,
किसी एक को देख
बुदबुदाते हैं -
अरे ! मैं तो इस के जैसा ,
यह बोध ,
बहुत त्रासद , बहुत त्रासद .

चाहता हूँ इस भीड़ में,
मेरा भी अस्तित्व,
मेरी भी अक्षुण पहचान ,
चाहता हूँ स्वयं को ,
करना पूर्ण अभिव्यक्त,
इसीलिए तो चाहता हूँ ,
इस भीड़ में मुझ को मिले ,
अलग चेहरा ,
अलग पहचान
जो मुझ को बता सके -
इस भीड़ से मैं हूँ ,
एक अलग व्यक्तित्व ,
तब वह बहुत ही ,
सुखद होगा, सुखद होगा.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .

Wednesday 12 December 2012

घर भी ऐसा .


===========

शोर मचाती ,
है रेल फिसलती,
घर भी ऐसा .
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आगे ईंजन ,
खींच रहा है बोगी,
घर के जैसा.
*****************
ठांव-ठांव ले ,
रेल दौड़ लगाती ,
घर भी देखा.
*****************
पटरी है तो,
नित रेल चलेगी,
घर भी वैसा .
*****************
टूटी पटरी ,
ईंजन है छिटका ,
घर ही टूटा .
*****************
ईंजन-बोगी ,
लग रेल बना है ,
घर भी माने .
*****************
चलती रेल ,
चलती है पटरी,
घर भी जानें .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Sunday 9 December 2012

रेत से दिन.


कोयल कूकी,
गहराती अमिया ,
सुख के दिन ,
धीरे से रीत चले ,
रेत से दिन.

मैना चुप है  ,
झरती है अमिया ,
दुःख के दिन ,
लम्बे होते जाते हैं ,
छाँव से दिन.

चिड़िया गाती ,
हुलसाई अमिया ,
अपने दिन ,
बरस के बहते ,
पानी से दिन.

युगल देख ,
अमिया भी बौराई ,
प्यार के दिन ,
मुश्किल से टिकते ,
झूले से दिन.

    - त्रिलोकी मोहन पुरोहित. राजसमन्द ( राज.)

शीत रूपसी .

धवल वेश 
रजत रूप धर,
शीत रूपसी .
थरथर कम्पन ,
प्रीत रूपसी .

नर्म धूप की ,
स्वर्णिम चादर ले ,
शीत षोडशी,
धीरे से आती-जाती,
सजी षोडशी.

संध्या वेला की ,
श्यामल गलियों में ,
शीत रूपसी ,
देखा तमस चढ़ा ,
भीत रूपसी .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित. राजसमन्द ( राज.) 

Saturday 8 December 2012

उज्ज्वल प्रकाश.


तुम हो कि मुझ से
दूर-दूर-दूर ,
और  मैं हूँ कि ,
तुम्हारे बिल्कुल,
पास-पास-पास.

तुम्हें नहीं मालूम,
तुम मेरे अन्दर,
और,
मुझ से ही प्रस्फुटित
जैसे सूरज-किरण,
और दोनों के पास,
एक उज्ज्वल प्रकाश.

वह झील , वह पानी ,
और
उन के आपसी रिश्ते,
जो कि करते हैं ,
एक दूसरे को परिभाषित ,
बिल्कुल उन के ही ,
आस-पास और साथ-साथ.

चुप हुई सितार को,
कल मैंने उठा लिया,
जमी हुई गर्द झाड़ने के लिए,
अनायास छू गयी ,
उस के तारो को ,
मेरी अनभ्यस्त हुई अंगुलियाँ,
और
तार थे कि झनझना उठे ,
शायद वे कहने लगे,
ज़रा समझो हमारी भी,
 एक लम्बी और मूक प्यास .

बहुत ही अजीब है ना,
हम ही नकारते हैं ,
हमारे अंतर के सत्य को,
सत्य ?
हाँ, हाँ ,वही सत्य ,
तुम्हारे अन्दर , मेरे अन्दर ,
वही तो चीखता है,
घायल आदमी  की तरह ,
और कहता है ,
मुझे चाहिए , मुझे चाहिए,
खरे स्वर्ण सा निश्छल विश्वास.

         -    त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Tuesday 4 December 2012

साफ झील में ,


आज के हाइकू-
============
अब कौओं ने ,
हंस-चाल सीखली ,
लूट मचाने .
******************
साफ झील में ,
उतर हैं बगुले ,
मछली देखी.
******************
श्येन देखता
मौज का अवसर,
गर्म गोस्त है.
******************
ध्यान सिखाये ,
अजगर आ कर ,
चूहों की बस्ती.
******************
दांत दिखाती ,
गिलहरी चिल्लाई,
सांप भागता.
******************

-              त्रिलोकी मोहन पुरोहित.


सुग्रीव कथन सुन ,व्यग्र सब वानर थे ,
             अंगद सहित तब , उग्र दिखने लगे.
लक्ष्मण का वाम हस्त ,शरधि पहुँच गया,
             शर तोल-तोल कर , क्रुद्ध दिखने लगे.
हनुमान देख रहे , चंचल हैं भट सब ,
             वक्र रेख आनन पे , चिंत दिखने लगे .
राम सुन दृढ रहे , जैसे शैल-श्रृंग रहे,
             राम जैसे राम रहे , राम दिखने लगे.

सुग्रीव को देख कर ,लक्ष्मण-संस्पर्श कर
             राम मुस्करा के कहे , शांतचित्त रहिए .
संगठन ले कर के , आगे बढ़ रहे हम ,
             संगठन हेतु आप , मंत्रणा को कीजिए.
विभीषण आकर के , शरण को चाहते हैं ,
             निर्णय लेने से पूर्व , अनुभव कहिए .
उचित व्यवहार जो , सर्वहित सत्य रहे,
             विभीषण हेतु तब ,शीघ्र कार्य कीजिए.

कोई वीर कहता है , रावण अनुज यह,
             उचित न लगता है , फिर भेज दीजिए.
कोई कहे अरि यह , बच के न जाए अब,
             दल सह मार डालें , समय न चूकिए.
कोई कहे निशाचर,अरि देश से आगत ,
             बंधन में डाल कर , अरि भेद लीजिए.
कोई कहे संदेही है , गुप्तचर लगाइए ,
             संदेह के दूर होते , शरण में लीजिए .

Sunday 2 December 2012

निराकार सी .



===========
हरी दूब पे ,
शबनम तिरती ,
निराकार सी .
****************
रंग गंध में ,
या है गंध रंग में ,
निराकार सी .
****************
दसों दिशा में ,
पवन बह रही ,
निराकार सी .
****************
तेरी साँसों को ,
अपने में है पाया ,
निराकार सी .
****************
सच्ची कविता,
कल-कल बहती,
निराकार सी .
****************

   -त्रिलोकी मोहन पुरोहित.

शब्द-साधना मांगती

गंगा सम शीतल करे , शब्द नेह की धार .
तपे घृणा की आग में , शब्द हुए तलवार.

स्वर्ण-रजत के जोर पे ,किस ने पाया प्यार.
प्रेम - शब्द के जोर पे , प्यार करे व्यवहार .

शब्दों की सरिता चले ,खुलते विकट कपाट .
छैनी भी ठन - ठन करे , रचती रूप विराट .

शब्दों की विरुदावली , मम मुख बसो सदैव.
शब्द मुझे दाता दिखे , ब्रह्मा - विष्णु - महेश .

शब्द-साधना मांगती , सरल-सादगी-धार.
प्राण ज्यों ऊँचो चढ़े , ले अनुभव -विस्तार.

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित .

Saturday 1 December 2012

सूरज योगी ,


===============
भोर के आते ,
चिड़िया नगमा गाती,
स्वस्ति वाचन .
*********************
भोर चली ,
रक्तिम किरणें दे ,
सिद्धि-आसन. .
*********************
सूरज योगी ,
धीरे-धीरे चढ़ता ,
सिद्धि-साधन .
*********************
मध्य दिवस,
रवि बहुत खरा ,
मन्त्र-पठन
*********************
संध्या के आते ,
रवि हुआ विनत ,
ये मुद्रा-ध्यान .
*********************
धीरे से जाए ,
रवि अस्ताचल को ,
ये विसर्जन .
*********************
गहन रात के ,
रवि शांत कक्ष में ,
करे सृजन.
*********************
     - त्रिलोकी मोहन पुरोहित.

राम को प्रणाम कर , सुग्रीव यों कह चले,
             प्रभु एक निशाचर , तट पर आया है .
मायावी प्रवृत्ति लिये ,सहचर साथ लिये ,
             श्याम-वर्ण भीम-देह , नभ-पथ आया है.
निशाचर छलिया है, घातक स्वभाव लिये,
             सच पूछे तो प्रभु जी , मृत्यु-मुख आया है.
अस्त्र-शस्त्र साथ लिये ,कथित संत्रास लिये,
             रावण अनुज वह , शरण में आया है .

निशाचर विभीषण , रावण अनुज वह ,
             रावण को भ्रष्ट कहे , संदेह उपजता.
रावण को अघचारी , बार-बार कहता है,
             भक्ति-भाव राम प्रति , आशंकित करता.
सीता के हरण को वो, अनुचित कहता है,
             रावण से पीड़ित है , संभव न लगता.
जानकी हरण हुए , कालसूत्र दीर्घ हुए ,
             हम आये वह आया , उचित न लगता .

प्रभु मम निवेदन , आप के समक्ष यह ,
             अरिभ्राता निशाचर , विश्वास न कीजिए.
रावण से पोषित जो , शरण में आगत है ,
             माँगता शरण वह , शरण न दीजिए.
सेना और संगठन , पढ़ना वो चाहता है,
             निशाचर दुष्ट होते, प्रवेश न दीजिए.
सोया हुआ देख कर , करेगा आघात यह ,
             भीषण है दाह सम , बढ़ने न दीजिए.


दुनियादारी.


============

हरे पेड़ पे ,
पंछी की हरकत,
दुनियादारी.
*****************
चिंता के मारे ,
पंछी तिनका ढोता,
दुनियादारी.
*****************
कल खाली था ,
अब नीड भरा है,
दुनियादारी.
*****************
नीड में बच्चे  ,
ममता से लड़ते,
दुनियादारी.
*****************
नीड एक था ,
अब दिशा अलग,
दुनियादारी.
*****************
पंखों में पल ,
अब पंख फैलाए,
दुनियादारी.
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नीड बड़ा था,
अब छोटा लगता,
दुनियादारी.
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नाजुक शीत


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नाजुक शीत ,
धूप के छंद रचे,
पढ़ते हम .
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पसरी धूप,
चादर सी लगती,
ओढ़ते हम .
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चांदी ऊपर ,
नीचे स्वर्ण राशियाँ,
मुग्ध हैं हम.
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एक हो गए ,
सूरज और चन्दा ,
कम्पित हम.
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दिन को धूप ,
ले ली रात रजाई,
सिकुड़े हम.
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रात की स्याही,
ले दिन का कागज़.
लिखते हम.
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धूप की टोपी,
हर कोई पहने ,
एक से हम.
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संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...