Wednesday 31 December 2014

नए वर्ष से गूंजे घर में, उपलब्धि की बात.


नए वर्ष से आए घर में, खुशियों की बरात.
नए वर्ष से गूंजे घर में, उपलब्धि की बात.

नए वर्ष में छाजन छाकर,
करे छाँव की बात.
नए वर्ष में साजन आकर,
करे भाँत की बात.
एक सूत्र में बंध कर के, करें गाँव की बात.
नए वर्ष से गूंजे घर में, उपलब्धि की बात.

नए वर्ष में बालक सगला,
किलक भरे सब साथ.
नए वर्ष में उजला हिवड़ा
करे न ओछी बात.
मीठा पानी घर में आए, मेघ करे बरसात.
नए वर्ष से गूंजे घर में, उपलब्धि की बात.

नए वर्ष में खलिहान उगल दे,
घर में आए धान.
नए वर्ष में घर के कोठे,
रोज उलिचें धान.
घर आने-जाने वाले का, खूब रहे सम्मान.
नए वर्ष से गूंजे घर में, उपलब्धि की बात.

नए वर्ष में योगी-ध्यानी,
करे ज्ञान की बात.
नए वर्ष में सर्जक सारे,
करे सृजन की बात.
निर्भय हो कर देश चले जी, गूंजे जिंदाबाद.
नए वर्ष से गूंजे घर में, उपलब्धि की बात.

नए वर्ष में रोग नहीं हो,
करें योग की बात.
नए वर्ष में शोक नहीं हो,
करें ध्यान की बात.
कोई छिटका नहीं रहे जी,मिले रहें सब हाथ.
नए वर्ष से गूंजे घर में, उपलब्धि की बात.

-    त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द. (राज)

   






Monday 29 December 2014

कविता आग उगलती

कितनी घटनाएं
आस-पास रही
मानों अन्धे वन में
भारी भरकम बर्फबारी ले
उलझ गए थे I
यह उचित हुआ तब
शब्दों की अरणी से
बर्फ सरीखे जमे समय को
कुछ गरम किया था
कुछ तरल किया था
वरना यह समय
कहाँ और किसकी सुनने वाला,
इसने तो लेली ही थी
अग्नि परीक्षा
मानो हिमयुग को भोग रहे I
समय सिकाई पा कर के
जब भी होता
बहुत करारा,
भूखी दाढ़ें
तब समय कुतरती
रस लेती हैं,
मानो कई ओसरों का
भूखा जीवन,
सूखी रोटी कुतर-कुतर कर
रस लेता जाता,
यह जय है उस जीवन की
जो भूखा था
जो नंगा था,
इस जय में
वह भूखा-नंगा जीवन
धरती पर
अंटी में खोंसे स्वत्व
समय को रख सिरहाने जागे रहता I
शब्दों की अरणी से
जो आग जला सकता
उस जमे समय में,
साहस से
वही पूछता
उसके हिस्से का धान कहाँ
कहाँ गई उसकी रोटी,
दृढ हो कर
वही पूछता
उसके हिस्से का कपास कहाँ
कहाँ गया उसका वस्त्र,
कस-कस मुट्ठियाँ
वही पूछता
उसके हिस्से की धरा कहाँ
कहाँ गया उसका छप्पर I
स्वागत-स्वागत
तुम जैसे भी हो-
जमे समय हो
या,
तरल समय हो
बस खबर रहे
शब्दों की अरणी
आग लगाती,
बस इतना सा कहना है-
जिसका जितना जिसमें हिस्सा
उसे बाँट दो,
अब भी कोई खाँस रहा..................
वरना फिर मत कहना
कविता आग उगलती.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)

Friday 26 December 2014

ईद-दिवाली धरती है


अम्बर नील दुशाला जैसा, सदा एक सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
जब से आँख खुली थी मेरी
मैंने धरती देखी थी,
सुख देखा था दुःख देखा था
माँ सी धरती देखी थीI
जब भी रोया धरती ने ही
मेरे आंसू पोंछे थे,
पैरों में आँगन नर्म बना
झट से पंखे डोले थेII
अम्बर भी सब देख रहा पर, पथराया सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
पत्थर-कंकड़ सब धरती पर
मिट्टी की सौगात यहाँ,
काली घड़ियाँ घूम रही पर
जीवन की सौगात यहाँI
भीषण ज्वाला प्यास जगाती
झरनों की सौगात यहाँI
कंटक जाल बिछे यहाँ पर
फूलों की सौगात यहाँII
अम्बर भाव शून्य सा रह के, मायावी सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
अम्बर दिन में एक सरीखा
स्याही सा फैला रहता,
श्यामल संध्या के गिरते ही,
चूनर ओढ़े ही रहताI
अम्बर कब अपने वैभव के,
मद से बाहर आ निकला,
भूख-प्यास में देख धरा को,
हाथ बटाने कब निकलाII
अम्बर मद को पूरे जाता, मधुशाला सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
हाथ उठा अम्बर से माँगा
वह भरता है कब झोली,
कभी न उसने घर भेजी थी
खुशियों की प्यारी डोलीI
आकर्षण पैदा करके नभ
अपने पास बुलाता है,
इधर-उधर भटका-भटका कर
धरती पर धकियाता हैII
अम्बर यह तो सूम सरीखा, सामंतों सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
धरती पर मैं पैर टिकाए
अम्बर को आंक चलूँ,
धरती की धानी चूनर पर
नभ के तारे टांक चलूँI
हरे-हरे घावों की मरहम
धरती से ही मिलती है,
फिर क्यों अम्बर को ताकूँ
ईद-दिवाली धरती हैII
अम्बर सा अम्बर रच कर के,सच देखा जा सकता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज

Sunday 21 December 2014

कुछ भी नहीं है उचित


गुलाब रंग बदल ले
उनकी सौरभ
हवा हो जाए
तब समझ लेना
कुछ तो नहीं है उचित।
साफ आसमान में
मेघों की जगह
धूल और धूम्र भर जाए,
धरती पर ढ़ोल की धमक
चुप हो जाए
सब ओर सन्नाटा भर जाए
तब तय कर लेना
कुछ तो नहीं है उचित।
शांत घर में सोया बच्चा
भरी निद्रा में डरकर
तुम्हारी छाती से चिपक जाए,
रंगीन पुस्तकें दीमक चट कर जाए
खिलौने बिना हिले-डुले
कहीं कौने में कबाड़ के साथ हो जाए
तब आस-पास आंक लेना
कुछ तो नहीं है उचित।
तुम्हारे या किसी और के शहर में
अर्थियों पर अर्थियाँ
असमय ही निकलने लग जाए,
बूढ़े काँधों पर चढ़-चढ़
फूलों से सजी मौन किलकारियाँ
खून से लथपथ चली जाए
तब समय रहते भाँप लेना
कुछ तो नहीं है उचित।
इतने सब पर भी कलम
खोयी-खोयी सी
रंगीन स्याही उगलने लग जाए,
सयानी आँखों के सम्मुख
रेशमी यवनिका गिर आए
वे इन्द्रधनुष के रंगों में खो जाए,
तब अवश्य समझ लेना
कुछ भी नहीं है उचित॥
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज)

Thursday 18 December 2014

शैतान

कौए और सियार
गिद्ध और कुत्ते
कहीं भी हो
होते हैं वे एक जैसे।
फर्क नहीं कर पाते वे
अच्छे और बुरे में
सड़े-गले और ताजा में
बच्चे और बूढ़े में।
उन्हें मारना होता है मुंह
वे मुंह मारते हैं
जैसे आदमी के भेष में
छिपे हुए शैतान।

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज)

Friday 12 December 2014

मौन की दीवार


मौन की दीवार के रहते
एक यशोधरा को
जीवंत करता है,
दूसरा, उपलब्धियों की
मरी कामनाओं को 
पूर्ण करने के लिए,
बोधिसत्व को
शहर के व्यस्त पथ पर
निरंतर खोजता रहता।
आँखें अब भी
अभिसारण करने को
नहीं चूका करती,
शब्द का निर्झर
मौन की दीवार को
बहा ले जाने को
व्याकुल हो कर भी
सरस्वती की धार सा
छिपा जाता।
दुरभिसंधियाँ.............
दिये हुए गुलाबों की,
तह कर संभाली हुई
जीर्ण-शीर्ण चिट्ठियों की
भला कहाँ सुनती।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज)

कल जिंदा रखेगी

तुम्हें
अपनी विरासत पर
परंपरा पर
देह पर
ऊंचाइयों और गहराइयों पर 
बहुत विश्वास रहा
मुझे
अपनी ही सोच
और अप्रायोजित जीवन पर।
कितना अच्छा होता
हम बकवास में न उलझते।
तुम अपना स्वेटर बुनो
छत पर रेशमी धूप छितरी
थोड़ी देर कहीं टहल आओ
हवा संगीत गाती है
पार्क की बेंच पर बैठ
जुल्फ छितरा आना
लोगों के सामने
एक मीठी अंगड़ाई ले आना
तुम स्वतंत्र हो प्रिये!
तुम्हें उचित लगे
तब मुझे भी साथ ले लेना।
इधर मैं तब तक
अपनी भाषा के तल्ख मिजाज को
कुछ पैना कर लूँ
अपनी कूँची से कुछ
संवेदनाओं के संवाहक
शब्द भर दूँ
तब मेरे लिए कविताएं होंगी
जो मुझे कल जिंदा रखेगी,
मेरी कविताएं-
तुम्हारे लिए भाषा या जबान
शायद यह तुम्हारे द्वारा
मर्दों के खिलाफ
लड़ी जाने वाली
लड़ाई में काम आएगी।
मैं तुम्हें उधार की जबान नहीं दे रहा
वह तो तुम्हारी ही सौगात
जो तुम्हें लौटानी है
कम से कम ........................
मैं यह काम कर ही सकता हूँ।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

Saturday 29 November 2014

मेरे ह्रदय में एक मीठा ताल

अनकही हर बात
पढ़ लेती मेरी आँख
मात्र यही है एक संदर्भ
नित्य कटता जा रहा हूँ।

घुटती हुई हर सांस
रोकती मेरी सांस
मात्र यही है एक आधार
नित्य जलता जा रहा हूँ।

मेरे ह्रदय में
एक मीठा ताल
मात्र यही है एक कारण
नित्य मरता जा रहा हूँ।

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज) 

Thursday 20 November 2014

दलदल में धंसा कुरंग

कर लिए व्यतीत
साथ-साथ कुछ क्षण
जैसे धूप आई-गई
और छोड़ गई ऊष्मा
नर्म सम्बन्धों की।
वे तो हैं नहीं
अब सफर में कहीं
न दूर-दूर तक की
लौट आने की संभावना
फिर भी सम्बन्धों की प्रतीक्षा
बहुत सालती है
जैसे बर्फ बारी में
सुलगती आग की चुप्पी।
आज फिर से हादसे का
हो गया हूँ शिकार
कोई क्षण भर में ही
जीवन की वीणा के
तार छेड़ गया,
कुछ मोहक छंद कानों में
उंडेल गया
मानो बाँसों के जंगल में
रेशम सी हवा ने चल कर
वेणुवादन रचा दिया।
अब मैं फिर से
लौट कर वहीं पहुँचना चाहता
जहां से चला था
परंतु पैर उठते ही नहीं
जैसे दलदल में धंसा कुरंग
विवशताओं के रहते मरा जाता।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज.)

अप्रासंगिक नहीं

दुनिया ने आदमी को
हाथी कहा....................
आदमी की काया
हो गई विशाल
वजन बढ़ गया 
वह दँतेला हो गया
उसकी कनपट्टियों से
बहने लगी मद की धार।
अब हाथी बना वह आदमी
सामने आने वाले को
अपनी विशाल काया से
निर्ममता से रौंदता चला जाता,
अपने विशाल दांतों से
हरे-भरे वृक्षों को
समूल उखाड़ फेंकता,
नहीं दिखाई देती
नर्म पौधों की फलटन।
त्रुटि की हुई अनुभूति
भरी दुपहरी
खोदना प्रारम्भ किया गया खड्डा
नर्म हथेलियों से
बंटी जाने लगी मूँज की रज्जु,
अस्मिता के लिए
उठाई जाने लगी  कुदाल
संगठन के लिए पकडे गए नर्म-नर्म तन्तु
रगड़ कर गर्म की गई हथेलियाँ
..........................................
आज भी ..........................................
यह सब अप्रासंगिक नहीं
आदमी को आदमी बनाए रखने के लिए ।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद

Friday 7 November 2014

अब तुम लौट आना

तमाम उम्र के गुजर जाने पर
तुम मिलोगे
जैसे थकी नदी से मिलता है
खारा समुद्र
नदी का मधुर जल भी
खार से मिल
म्लान होता है,
उस मिलन के लिए
बहुत चिंतित ।
तुम विशाल
आभा मण्डल भी
बहुत चमचमाता
जैसे चमकता सूरज,
परंतु दिनभर की
प्रखरता के बाद
सूरज धरा से मिलता
तब क्षितिज की ओर
मलिन होता चमचमाता सूरज
अंधेरे में गुम हो जाता है कहीं
यह भयावह लगता।
अधर तुम्हारे
नाम का जपन करते
पहले पपड़ाये
फिर फट गए
जैसे धरती दरक गयी,
हृदय अभी भी
नेह भाव से आर्द्र
जैसे बगीचे की क्यारी
नन्हें पौधों के लिए
उँड़ेले मीठे जल से तरबतर।
आँखें तुम्हारे
दर्शन के लिए आतुर
जैसे मरती फसल के लिए
मेघदर्शन को आतुर किसान,
साँसों का हाल ......
फड़फड़ाते विहग जैसे
मानो अब उड़े कि अब उड़े।
लौटते हुए पदचाप
सुनने को अतिव्यग्र दोनों कर्ण
जैसे पकी फसल की बालियों को
खेत की मुंडेर पर
चुगना चाहती गोरैया
अब तुम लोट आना।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज)

Wednesday 5 November 2014

चिन्गारी की सीमा

चिन्गारी की सीमा
असीम
उसमें दीपक की
लौ
उसमें चूल्हे की 
अग्नि
उसमें अनुष्ठानों की
ज्वाला
उसमें क्रान्ति की
मशाल
उसमें वन की
दावाग्नि
उसमें सूरज की
सूक्ष्म ऊर्जा
उसमें प्राण, उसमें गति,
उसमें लय करने की क्षमता
लघु मानना
उपेक्षा करना
बहुत बड़ी है भूल,

चिन्गारी को जानें-समझें 
वह अनुभव होती, 
कभी वाणी से, कभी दृष्टि से 
कभी गहरे मोन के 
ठंडे सागर से,
वह आती-जाती
कहीं हमारे मध्य।

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

आदमी और कपास

आदमी ने कपास को 
पूरी ताकत से 
मारी थी ठोकर 
और ज़ोर से बोला –
देख ली मेरी ताकत। 
कपास ने प्रत्युतर में
अपने को कपड़ा बनाया
आदमी को ढका
अब आदमी..................
कपास को छोड़ना नहीं चाहता
उसे डर है-
वह नंगा ना हो जाए। 


- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज)

जीवन तो दुर्वा का

जीवन तो दुर्वा का
वह जीती है प्रतिपल जीवन
धीरे-धीरे प्रसरण करती
दिशा-दिशा में
अपनी क्षीण झड़ें रोपकर 
धवल पताका लहराती।
देखा दुर्वा उखड़-उखड़
फिर-फिर उग आती
देखा दुर्वा रुँद-रुँद
फिर-फिर हरियाती
धूप, हवा, पानी आकाश और बर्फबारी
दुर्वा की जिजीविषा के आगे हारे।
कोमल नर्म सौंधी मिट्टी से जुड़
दुर्वा अपनी नन्ही पत्ती से
विजय पताका लहरा जग को कहती-
देखो मैं जीती हूँ,
अस्तित्व के लिए युग-युग से
धूप, हवा, पानी, आकाश और बर्फबारी
के खिलाफ लड़ती हूँ ।
मैंने जीना सीखा
नहीं जानती मैं मरना
इसीलिए जीवन की जद्दोजहद के लिए
लड़ती-मरती और फिर-फिर जीती
जीवन के प्रति निष्ठा मेरी यशगाथा ।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

भरी-पूरी फसल

तुम्हारे हाथ से फेंका गया
रोटी का टुकड़ा
रोटी का टुकड़ा ही नहीं
वह भरी-पूरी फसल
जिसमें किसी का बहा है पसीना
लगी थी गाढ़ी कमाई का
मोटा हिस्सा।
उस फसल की बुवाई के साथ
बोये गए थे कुछ नर्म सपने,
कुछ आशाएँ
जो सालों से पूरी नहीं हुई,
फसल की गुड़ाई में
कुछ लोक-कल्याणकारी भावनाओं ने
कदम बढ़ाए थे।
तुम जरा इस रोटी के टुकड़े को
फसल के नजरिए से देख लेना,
तब हाथ रोटी के टुकड़े को फेंकने का
बेतुका निर्णय नहीं लेंगे। 

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज)

भ्रम में मारे जाते

जिनको भ्रम में जीना है
वे निश्चित भ्रम में जिये
भ्रम उनके लिए हवा पानी
और भोजन सा
बहुत ही आवश्यक 
वे भ्रम में चलते हैं
वे भ्रम में बढ़ते हैं
वे भ्रम में सोते हैं
वे भ्रम में ही
सारी चर्या करते हैं
बस, भ्रम में नहीं जागते
उनके पीछे विलाप
व्यर्थ करना होता है
वे भ्रम में नहीं जागते
वे भ्रम में मारे जाते।
कुछ भी बोलो
भ्रम का भी अपना साम्राज्य
भ्रम का भी अपना सुख
भ्रम में वे ही राजा
भ्रम में वे ही प्रजा
भ्रम में वे ही परमात्म
भ्रम में वे ही जीव
भ्रम में वे ही कारक
भ्रम में वे ही उद्धारक ।
जब समय का चक्र घूम-घूम कर
उनके पीछे थक जाता
भ्रम है कि नहीं छोड़ता पीछा
लंबी होती हुई छांव सा
समय झल्ला कर
खींच लेता अपने हाथ
इसीके साथ भ्रम में डूबे जन
डूब जाते गहन श्यामल तमस में
हो जाते हैं कैद
काजल सी काली कोठरियों में
जहां समय नहीं देता फिर कभी
संभलने का अवसर।
भ्रम जहर सा किसी डरावने काल के
प्रतिनिधि सा
किसी भयंकर अजगर सा
भ्रम में डूबे जन को
निगल जाने को आतुर..............................
मुझे खेद है -
कुछ लोग भ्रम से बाहर नहीं निकलते
क्योंकि वे भ्रम में नीतिनियंता
हम उनके भ्रम में पालक से
वे भ्रम में बहरे
वे भ्रम में अंधे
वे भ्रम में शून्य
नहीं अनुभव कर पाते
तरल समय को
जिसने भ्रम में भरमाए जन के
कर्मों से बहियाँ रंग दी ।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद॰ (राज॰)

नुकीली कील

नुकीली कील को लगता है
वह कहीं भी किसी के अंदर
धंस सकती है
और उसको अंदर ही अंदर
बेध सकती है, 
लेकिन कील को निकालने, काटने के साथ
कुंद करने के भी साधन
उन्होने ही बनाए हैं
जिनके वक्ष में धँसी थी कील।
जिन हाथों ने धकेली थी कील
नर्म वक्ष में
और हवा में इठलाते लगाए थे ठहाके
कुछ बदहवास से, कुछ विकृतचित्त से,
वे ही कील ठोकने वाले हाथ
नर्म और गुदगुदे पावों को
सहलाते देखे जाते हैं,
समय कभी क्षमा नहीं करता
किसी नयायाधीश की तरह।
समय देव है, समय पिता है
समय माँ है, समय ही मित्र है
समय ही हिस्से में बाँट कर देता है-
दुख और सुख,
जिसके हिस्से आए हैं दुख
उसे अब सुख मिलेगा
जिसके हिस्से आई थी
घनीभूत पीड़ा और अपमान
उसके हिस्से आएंगे शांति और सम्मान,
आखिरकार समय देता है
क्योंकि समय गधे की तरह
कभी व्यर्थ का बोझा नहीं ढोता।
शांति, सम्मान और अधिकार
स्वतः नहीं आते हैं
मांगने पड़ते हैं, कुछ लड़ना होता है
समय भी तभी सुनता है
जब हम उठा देते हैं
योद्धा की तरह शंखनाद,
समय बहरा नहीं है
समय रहता है सत्य के साथ
इसीलिए वह न्याय से पहले
लेता है कुछ वक्त,
वह देखना चाहता है कील ठोकने वाले
हाथों का विश्वास,
वे गंदे हाथ कब तक ठोक सकते हैं
नर्म वक्ष में सड़ी कीलें।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

धूप रुचिकर लगती

यह धूप
रुचिकर लगती
जब तुम
साथ होते
छाते की तरह ।
तुम्हारे भेजे हुए
तमाम संदेश
मुड़े-तुड़े हुए
मेरी जेब में है
निधि की तरह ।
तुम्हारे संदेशों के
दुहरे अर्थ के
द्वंद को ओढ़े बैठा हूँ
चोराहे पर खड़े
नागर जन की तरह ।
लोग हँसते है
सहानुभूति दिखाते हैं
डांटते हैं
देख कर मुझे
मध्य राह बुत की तरह।
मेरी मंजिल
तुम्हारे वे संदेश
जो दुहरे अर्थ में
उलझाते हैं
तुम अर्थ बता सकते हो
किसी प्रिय जन की तरह ।

Monday 15 September 2014

शायद - हाँ, शायद- नहीं

वे खुश हैं
उनका मन का हो गया
तुम खुश हो
तुम्हारे मन का हो गया
इसी के चलते 
उलझ कर रह गए
कुछ जिंदगी के वे जरूरी क्षण
जैसे उलझ जाती है
पवन और पानी के वर्तुल बहाव में
क्षीण नौका,
जिस पर सवार है
दुःख का बोझा ढोए वे मछेरे
जो निकले हैं मछलियों की तलाश में।
समुद्र के किनारे कहने को हैं मछेरों के घर
वे घर झोंपड़ियों की शक्ल में
जहाँ नित टपकता है
समुद्री हवा के साथ लवण लिए पानी,
जहां औरते करती प्रतीक्षा
मछलियों के साथ समुद्र के यात्रियों की
जिनको पाने की ख़ुशी में
वे औरतें अपनी टेढ़ी-मेढ़ी पीत पड़ी
दन्तावलियों को दिखाएंगी
क्योंकि छातियों को खींचते बच्चे
अब दिवस भर मछलियों के साथ उलझेंगे
वे मछेरों के साथ
चुल्हे में धूम्र भरेंगी
धूम्र से फूटी अश्रुधार में निहारेगी समुद्र के यात्रियों को,
शायद आज की रात चटाई के बिस्तर
और बाहुओं के उपाधान पर बीते
परन्तु, पवन और पानी का वर्तुल लहर ऐसा होने देगा
शायद - हाँ, शायद- नहीं, शायद- कभी-कभी, शायद- कभी नहीं।
पानी जैसा दिखाई देता
वह वैसा ही होगा कहना मुश्किल
पवन जैसा अनुभव होता
वह वैसा ही रहेगा कहना बहुत मुश्किल,
पवन और पानी के उलझे समीकरण से
जीवन के समीकरण को भी समझा जा सकता
शायद - हाँ, शायद- नहीं, शायद- कभी-कभी, शायद- कभी नहीं,
जीवन में मिलते हैं
भिन्न-भिन्न भूमिका में "वे" और "तुम"
साथ में "मैं" तो बस लाचार
देखता है समस्त घटनाक्रम
कभी उत्सुकता से,
जैसे मछेरे समुद्र से लौट आएंगे,
कभी भय से,
जैसे मछेरे इस बार लौट कर आएंगे नहीं
यह आसन्न भय जीवन से कभी तो विदा होता होगा -
शायद - हाँ, शायद- नहीं, शायद- कभी-कभी, शायद- कभी नहीं ।
किसी से क्या उम्मीद करें
जो बाहर से जैसा
वह अंदर से नहीं वैसा,
मैं थका नहीं हूँ,
और नहीं हूँ हताश
बस एक मिथक के गलत होने से
बहुत दुखी हूँ
जो कहता है-
जैसा वह बाहर दीखता
वैसा ही वह सब के अंदर रहता,
दोस्त सुनो-
समुद्र में उलझे मछेरों की औरतें बहुत परेशान नहीं होती होगी-
शायद - हाँ, शायद- नहीं, शायद- कभी-कभी, शायद- कभी नहीं ।
त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमंद।

Saturday 6 September 2014

दंश

कुछ घटनाओं के दंश
जीवन भर
भुलाए जा नहीं सकते,
कुछ ऐसे होते हैं दाग
अथक कोशिश से
हटाये जा नहीं सकते,
जैसे अलकनंदा-भागीरथी के
प्रकोप में
केदारनाथ-गोरी कुंड का
मरघट में बदल जाना।
वे घटनाएँ और वे दाग
कभी छोटे कभी बड़े
कभी गहरे कभी हल्के
हो कर भी
विषम जीवाणु से
चिपट जाते हैं जिंदगी से,
खाँसती बलगम उलीचती
जिंदगी कटती जाती है,
जैसे जंगल में पड़े काष्ठ के
बड़े खंड को दीमक
कुतर कर चट कर जाती ।
दीमक लगी जिंदगी
बिलकुल खोखली
और निस्सार हो कर
देखी गयी है दम तोड़ती हुई
जैसे दम तोड़ जाती है
धूम्रपान के छल्लों की
निर्जीव और आधारहीन रचना
हवा में फैलती हुई।
जीवन भला दंश भोगने के लिए
और दाग का बोझ ढोने के लिए
नहीं समझा जा सकता,
जीवन मंदिर कलश की तरह
उज्ज्वल और गर्वोन्नत हो कर
गगन को ललकारता हुआ
अच्छा लगता,
या मंदिरों की रुनझुन-रुनझुन करती
घण्टियों की तरह
टंकारें करता शुचिता का वहन करता
या स्वस्तिवाचन के स्वर सा
मंगल गुंजार करता ही अच्छा लगता।
जो भागते हैं जीवन के कटु पक्षों से
और भुलाना चाहते हैं उनको
लेकर मादक संदर्भों के बल पर
वे लोग शतुरमुर्ग से
कम नहीं हुआ करते होंगे,
वे शतुरमुर्ग से जन
आँखें बंद किए हुए रहते हैं
काल चला आता उनके पास
जैसे कसाई चला आता है
किसी अजापुत्र के पास।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमंद (राज.)

बोझे से छुटकारा

शाख झुक गयी,
फल जो लगे थे,
लेकिन, सूखा ठूंठ
अकड़ कर तना रहा,
अब ठूंठ के 
फल नहीं होंगे।
लरज़ती फलवती शाख
और अकड़ाये हुए तने में
बस उतना ही अंतर है,
जितना कि ,
किसी एक की सांस चलती है
दूसरे की सांस नहीं चलती है।
जिसकी सांस नहीं चलती है
वह चलता ही नहीं,
उसे ढोना पड़ता है
जैसे शव चलता नहीं
उसे बोझे की तरह
वहन करना होता है।
बोझा हम ढोते हैं
विवशता से
या,
तथाकथित मर्यादा के
रुक्ष बंधनों से,
फलस्वरूप,
कंधे टूटे जाते हैं,
पैर थक जाते हैं
मन घायल विहग सा
फड़फड़ाता है
आत्मा तो मरी जाती है ।
मुक्ति साहस में है,
साहस दिलाता है
कंधों को झटका कर
बोझे से छुटकारा,
तन और मन को
देता है आराम
और,
आत्मा तो पा लेती
ब्रह्मराक्षस जैसे बोझे से छुटकारा
वह पा लेती है अपना अभीष्ट
जैसे नंदनवन में
राधा को मिल जाये कुंजबिहारी।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज

चिड़िया ने चंचू खोली

चिड़िया ने चंचू खोली
इसमें भी कुछ को
चिड़िया से शिकायत है-
वह चहकती क्यों ?
वह मचलती क्यों?
वह उड़ने को आतुर क्यों?
चिड़िया ने कितनी बार कहा-
मुझे मत सताओ
पर उसकी सुनी ही नहीं गयी।
बदले में चिड़िया घायल हुई
वे खिलखिलाए,
चिड़िया रोई वे प्रसन्न हुए
चिड़िया डरी रही वे भेड़िये बनते गए,
वह समय ही विपरीत था
चिड़िया के लिए,
तब चिड़िया ने बंधनों को
काटने का साहस जो नहीं किया।
साहस बटोर कर
अब चिड़िया ने काटे,
तथाकथित मर्याद के बंधन,
जो कसे हुए थे-
उसके पंखों पर,
नन्हें पंजों पर,
सुकोमल चंचु पर।
चिड़िया ने ध्वस्त कर दी
अपने चारों और कसी दीवारें,
चिड़िया घायल पंखों के साथ
है नापने को आतुर,
श्याम नभ का विस्तार।
चिड़िया तलाश रही ,
अपने उत्पीड़न के विरुद्ध
अपनी जिजीविषा के अधिकार,
और खुली सांस की संभावनाएं,
इसमें है बुरा भी क्या ?
चिड़िया कहती है-
अरे! स्वर के सिपाही
मैं दिखाती हूँ,
मेरा घायल अन्तर्मन
लहूलुहान हुआ मेरा क्षीण तन,
नोची हुई मेरी भावनाएँ,
बस मुझ में भर उत्साह और जोश,
मैं लघु और क्षीणकाय सही
पर रोक दूँगी वह पीड़ा का दौर
जो चला था मेरी विवशता के साथ,
अब वह पूर्ण समझो संत्रासों की यात्रा।
मैं बढ़ती हूँ उस नव पथ पर
जहां से आलोक
चला आता है मेरी ओर।
जिन्होंने मेरे पंखों पर चलाई है कर्तनी,
और मेरे तन-मन पर चलाई हैं दुधारी छुर्रियाँ
जरा उनसे हिसाब तो मांग लूँ ।
अब मैं लड़ती हूँ जीवन मूल्यों के लिए
घायल और लहूलुहान तन के साथ,
मुझे नहीं मालूम,
मेरी स्वत्व की लड़ाई में
मेरा कितने सिपाही साथ देंगे,
परंतु,
अदम्य हौसला और साहस
अब मेरे दाएं-बाए हैं,
इस लड़ाई में सहभागी हो कर।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

विभ्रम

आँख के पानी का मूल्य
मालूम नहीं होने से
लोग इसकी तुलना
मोती से कर देते हैं,
मोती समंदर के ठंडे जल में
उत्पन्न होता है
जबकि आँसू झुलसते हुए
हृदय की गहराई से जन्म लेते,
हाय ! कितना सारा विभ्रम
फैलाया है शैतानों ने ।
बाहरी बनावट की एकरूपता
भ्रम पैदा करती है
लेकिन समय का संसर्ग
भ्रम को तोड़ देता है,
तब पता लगता है
मुखौटे के पीछे छिपे बैठे
शैतानों का
जो मात्र आंसुओं के
कारण ही तो बनते हैं ।
शैतान जलाते हैं
सुकोमल दिल पर
दुर्वा सी हरियाई भावनाओं को ,
ये शैतान तीक्ष्ण पंजों से
छलनी करते जाते हैं
मन के नर्म आँगन को,
जहांसे उग आती है
पीड़ाओं की अरुचिकर फसल।
शैतानों को बोतल में बंद करना
हिंसा का पथ नहीं,
यह तो मूल्यों के लिए
छेड़े गए युद्ध को
पूर्ण करने के अनुष्ठान का
है स्वस्थ संकल्प ।
अब विभ्रम क्या रखना ?
शैतानों को बोतल में
बंद करने का क्षण
हमारे हाथ लगता।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

रिश्तों की बुनियाद

रिश्तों की बुनियाद
कंकरीट पर
खड़ी होती नहीं मिलती
जब भी देखा उसे
प्यार की गीली मिट्टी पर 
पली-बढ़ी खिलखिलाती मिली।
रिश्तों के आँचल में
पनपते हैं कई सपने
जिन्हें पूर्ण करने में
एक पूरा युग खप जाता,
फिर भी कह नहीं सकते
देखे गए सपने
यथार्थ में साकार होंगे।
सपनों को पूरा करने में
कितने ही जन
कतरा-कतरा हो कर
बिखर जाते,
लेकिन ,
उन लोगों को
नहीं होता आभास कि
उनके लिए
कोई कितनी बार है मरा-खपा।
रिश्तों से भी ज्यादा
है बहुत जरूरी
पहले उनको बचाना
जो रिश्तों के नाम
असमय ही काल के पास
खड़े हो कर
नर्म सपनों में खो जाते,
उनके ही नर्म सपनों की तह में
कहीं काल अंगड़ाई लेता
अनुभव होता
हाय ! यह अनुभूति बहुत भयावह
फिर भी जीवन के लिए
जद्दोजहद बहुत जरूरी ।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

मौन की भाषा



मौन की भाषा का भी
अपना व्याकरण
होता ही होगा,
उसी व्याकरण के
आधार पर 
आँखें पढ़ लेती होंगी
मौन अभिव्यक्ति के संदेश ?
मैंने भेजें हें संदेश
मौन के बल पर
(भाव-भंगिमाओं के साथ भी )
लेकिन आजतक नहीं आया
उधर से कोई प्रत्युतर
शायद मौन की भाषा को
गढ़ने का भी होता होगा
कोई छंदानुशासन या विधान।
हँसता हूँ आज स्वयं पर
मैंने भी क्या खूब गढ़ी
मौन की भाषा
उम्र चुकती गयी
किसी अल्हड़ नदी की तरह
संदेश उधर से प्रत्युतर मेँ
लौट कर आया ही नहीं
जैसे बहा हुआ नदी का पानी
पलट कर उद्गम स्थल तक
नहीं आता कभी
अब मौन की भाषा
मेरे लिए तो
विचारणा का विषय हो गया।
कभी-कभी भोजपत्रों पर अंकित
शिकायत और प्रेमपत्र
मौन के गढ़े संदेशों की
हंसी उड़ाते अनुभव होते हैं,
कभी-कभी मौन मेँ
गढ़े संदेशे भी
इतिहास मेँ कुछ पृष्ठ
अपने नाम करते हैं
चलो मित्रों !
“कौन किस पर भारी”
इस बहस को विराम दे दें
लेकिन मिलकर
मौन के व्याकरण को
तय करते हैं
क्योंकि मुझ सहित
तमाम कवितावादियों की उम्र
मौन के आधार पर व्यर्थ जाती है
उधर से कोई संदेश जो नहीं आया।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज॰)

एक चिड़िया

मधुर ताने
छेड़ती है
भोर से ही
एक चिड़िया,
ज्यों संवेदना में 
गूढ बातें
कह रही है
एक चिड़िया ।
कल तलक तो
धूप गहरा
जुलसा रही
हरित दुर्वा,
पेड़ सारे
शिथिल होते
लताएँ मरी जाती
जो हरित पर्णा।
गर्म वातावरण मेँ
उचित गाती
एक चिड़िया ॥
कहाँ रुके हैं
नीलनभ के
खग समान
घनश्याम प्यारे,
कहाँ जा के
बस गए हैं
प्राण सम
जलद सारे।
संवेदना को
स्पष्ट करती
एक चिड़िया ।।
वह जानती है
पत्थरों पर भी
उग आती है
हरित पत्ती,
बह जाती है
मधुर धारा
दह रही हो
जब नर्म धरती।
तपस्विनी सी
बोध देती
एक चिड़िया ॥
गर्म वातावरण मेँ
उचित गाती
एक चिड़िया ॥
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज.)

बसा लूँ आज तुम को

विश्राम का समय कहाँ
कुछ देर निहारूँ
खुला गगन खुली धरती
और इनमें अभिव्यक्त तुम को।
जानता हूँ बहुत कुछ है
हर दिशा में
जो इस समय अवांछित
शांत क्षण का एक अवसर
दर्शा रहा एक क्षण में मुक्त तुम को ।
पास में निधि बहुत थी
वह असमय ही खो गयी
फिर से जुट गयी
हाथ मेरे नेह की अक्षय निधि वो
लो समर्पित कर रहा हूँ भव्य तुम को।
कौन जाने कब कहाँ
कौन आए कौन जाए राह में
समय निर्मम दौड़ कर
सब की बहियाँ देखता
बात दिल की कह चलूँ आज तुम को।
अंगार पर बैठा हुआ
साधता हूँ साधना के पथ सभी
पंचाग्नि भी शर्मा रही साधना में
मर रहा या जी रहा पर चाहता
हर रोम में बसा लूँ आज तुम को ।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

न्याय से पहले

नुकीली कील को लगता है
वह कहीं भी किसी के अंदर
धंस सकती है
और उसको अंदर ही अंदर
बेध सकती है, 
लेकिन कील को निकालने, काटने के साथ
कुंद करने के भी साधन
उन्होने ही बनाए हैं
जिनके वक्ष में धँसी थी कील।
जिन हाथों ने धकेली थी कील
नर्म वक्ष में
और हवा में इठलाते लगाए थे ठहाके
कुछ बदहवास से, कुछ विकृतचित्त से,
वे ही कील ठोकने वाले हाथ
नर्म और गुदगुदे पावों को
सहलाते देखे जाते हैं,
समय कभी क्षमा नहीं करता
किसी नयायाधीश की तरह।
समय देव है, समय पिता है
समय माँ है, समय ही मित्र है
समय ही हिस्से में बाँट कर देता है-
दुख और सुख,
जिसके हिस्से आए हैं दुख
उसे अब सुख मिलेगा
जिसके हिस्से आई थी
घनीभूत पीड़ा और अपमान
उसके हिस्से आएंगे शांति और सम्मान,
आखिरकार समय देता है
क्योंकि समय गधे की तरह
कभी व्यर्थ का बोझा नहीं ढोता।
शांति, सम्मान और अधिकार
स्वतः नहीं आते हैं
मांगने पड़ते हैं, कुछ लड़ना होता है
समय भी तभी सुनता है
जब हम उठा देते हैं
योद्धा की तरह शंखनाद,
समय बहरा नहीं है
समय रहता है सत्य के साथ
इसीलिए वह न्याय से पहले
लेता है कुछ वक्त,
वह देखना चाहता है कील ठोकने वाले
हाथों का विश्वास,
वे गंदे हाथ कब तक ठोक सकते हैं
नर्म वक्ष में सड़ी कीलें।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

वे निश्चित भ्रम में जिये

जिनको भ्रम में जीना है
वे निश्चित भ्रम में जिये
भ्रम उनके लिए हवा पानी
और भोजन सा
बहुत ही आवश्यक 
वे भ्रम में चलते हैं
वे भ्रम में बढ़ते हैं
वे भ्रम में सोते हैं
वे भ्रम में ही
सारी चर्या करते हैं
बस, भ्रम में नहीं जागते
उनके पीछे विलाप
व्यर्थ करना होता है
वे भ्रम में नहीं जागते
वे भ्रम में मारे जाते।
कुछ भी बोलो
भ्रम का भी अपना साम्राज्य
भ्रम का भी अपना सुख
भ्रम में वे ही राजा
भ्रम में वे ही प्रजा
भ्रम में वे ही परमात्म
भ्रम में वे ही जीव
भ्रम में वे ही कारक
भ्रम में वे ही उद्धारक ।
जब समय का चक्र घूम-घूम कर
उनके पीछे थक जाता
भ्रम है कि नहीं छोड़ता पीछा
लंबी होती हुई छांव सा
समय झल्ला कर
खींच लेता अपने हाथ
इसीके साथ भ्रम में डूबे जन
डूब जाते गहन श्यामल तमस में
हो जाते हैं कैद
काजल सी काली कोठरियों में
जहां समय नहीं देता फिर कभी
संभलने का अवसर।
भ्रम जहर सा किसी डरावने काल के
प्रतिनिधि सा
किसी भयंकर अजगर सा
भ्रम में डूबे जन को
निगल जाने को आतुर..............................
मुझे खेद है -
कुछ लोग भ्रम से बाहर नहीं निकलते
क्योंकि वे भ्रम में नीतिनियंता
हम उनके भ्रम में पालक से
वे भ्रम में बहरे
वे भ्रम में अंधे
वे भ्रम में शून्य
नहीं अनुभव कर पाते
तरल समय को
जिसने भ्रम में भरमाए जन के
कर्मों से बहियाँ रंग दी ।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद॰ (राज॰)

विकल्प नहीं दिखता

पुस्तकें बिना हिले-डुले
बहुत कह जाती
उनकी बात सुनने के लिए
जरा उन्हें दिल के
करीब लेकर आना होता है 
पुस्तक के अंतर में
झाँकनी पड़ती है वो बातें
जिसे सलीके से
हमें चाहती है कहना
जैसे घर का बुजुर्ग
अपनी श्लथ काया के साथ
खटिया पर पसरा
मौन आँखों से
कहना चाहता है बहुत कुछ।
पुस्तकें बहुत सी स्मृतियाँ
ताजा कर देती है
उनमें उजागर होते रहते
रुई में लिपटे पड़े
वे रिश्ते
जिन्हें संवाद के समय भी
बहुत संभाल कर
उजागर किए जाते
कुछ वे रिश्ते
जिन पर हमारी आने वाली नस्ल
जिक्र करेगी
कुछ वे रिश्ते
जिन की छाप आपके अस्तित्व पर
इस तरह लग गयी
जिसे आप छुड़ाना
नहीं करते पसंद
जैसे, यह लाल पुस्तक
अब्बा की है
जिसमें लिखा है स्वजातीय गौरव
यह पीली पुस्तक
बहुत पवित्र
जिसने जिंदगी भर मेरे कान उमेठे
और आज मैं इस जगह
यह सुनहरी पुस्तक गौरी ने
गुलाब रख कर दी कॉलेज में
जिसमें आज भी दबे हैं
रंगीन काँच के टुकड़े से
जवानी के सपने।
अलमारी से झाँकती
ढेर सारी नई-पुरानी पुस्तकें
जिन पर देखी जा सकती हैं
असीम चिंताओं की रेखाएँ
जो सवाल उठाए हैं इन पुस्तकों ने
वे आज भी हल नहीं हुए हैं
उन्हीं सवालों में
उठा रही है एक सवाल
स्वयं के अस्तित्व का
हाँ, मैं भी बहुत चिंतित हूँ
पुस्तकों का विकल्प तो है
परंतु गुलाब और चिट्ठियों के साथ
बनने वाले नर्म रिश्तों का
विकल्प नहीं दिखता ।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

Thursday 27 March 2014




जहां-तहां भिड़ रहे , मेवाड़ी-मुग़ल भट ,
खनन खनन खन , तलवारें बोलती .
कहीं तोप गरजती , गोले छोड़ छोड़ कर ,
गनन गनन गन , भुशुण्डी भी बोलती .
रणक्षेत्र हल्दीघाटी , गूँज गया धमक से ,
धनन धनन धन , धरती भी बोलती .
चेटक सवार राणा , रणक्षेत्र चांपते हैं ,
टपक टपक टाप , अश्व टाप बोलती .

काल सम काली-काली,दागती है तोप गोले ,
कुछ नहीं सूजता है , धूल भरे मेघ में .
धूल भरे मेघ देख , बढ़ते हैं पद दल ,
आपस में गुंथ भट , काटते हैं वेग में .
कहीं गज कट गिरे , कहीं अश्व कट गिरे ,
कट-कट सुभट भी , रुंदते हैं पैर में .
कर रहे सञ्चालन , रण को प्रताप ही ,
मुगलों के मुंड उड़े ,  प्रताप की तेग में 

Tuesday 25 March 2014

तब शिकायत मत करना।

अक्सर ही अभाव से 
कभी व्यक्ति 
कभी पूरा गाँव 
कभी पूरा का पूरा शहर 
घायल हो जाता है 
हर एक स्थिति में
टप-टप करते आँसू व्यर्थ नहीं होते
एक दिन जागेगी गीली आंखे  
उठेगा ज्वार आंसुओं का 
कारण अभाव के बह जाएँगे 
तब शिकायत मत करना।


जब भी तराजू सा 
डोलता है 
कभी व्यक्ति 
कभी पूरा गाँव 
कभी पूरा का पूरा शहर
इस दोलन की स्थिति में 
टप-टप करते श्रमकण व्यर्थ नहीं होते 
एक दिन संत्रस्त चरण जम जाएंगे
वे करेंगे भीषण आघात 
कारण विचलन के कुचल जाएँगे 
तब शिकायत मत करना।


धान की पकी फसल सा 
बिखर जाता है 
कभी व्यक्ति 
कभी पूरा गाँव 
कभी पूरा का पूरा शहर
इस बिखराव की स्थिति में 
टप-टप करती रक्त बूंदे व्यर्थ नहीं होती 
एक दिन उठेगी नई फसल
करेगी भीषण आक्रोश 
कारण बिखराव के जल जाएँगे 
तब शिकायत मत करना।


एकसूत्र बांधती है कविता 
बंध जाता है 
कभी व्यक्ति 
कभी पूरा गाँव 
कभी पूरा का पूरा शहर
इस संगठन की स्थिति में 
टप-टप उगते शब्द-अर्थ व्यर्थ नहीं होते 
एक दिन संवेदनहीनता के विरुद्ध 
भीषण शंख फूँकती 
क्रूर काली सी कलम बने 
तब शिकायत मत करना।


-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद (राज.)


Friday 21 March 2014

वह बचपन मेरा

मैंने बचपन को फैलाया
कागज पर ,
रंग फैले या मैं फैला
कागज पर ,
हाथों से फिसल गया
रेत घड़ी सा
वह बचपन मेरा ।

बिना किसी की लाग लपेट
जो अंदर था
वो बाहर आया ।
नीला-पीला या श्वेत-श्याम था
जैसा भी था
वो आया ही आया।
संत सरीखा,
वह बचपन मेरा ॥

रंगो की कब कहाँ प्रतीक्षा
जो मिट्टी थी
वो भी रंग होता।
पानी रंग सा रंग पानी सा
हाथ लगा पंक चाहे
वो रंगों का राजा होता ।
भूला-भटका,
वह बचपन मेरा।।

सब की जात-पाँत अपनी ही
जैसे तीर्थाटन में
सब अपना होता।
इसका खाया उसका पीया
बचपन भला कहाँ मानता
सब अपना होता।
द्वन्द्वो से खाली
वह बचपन मेरा॥

लो होली पर खोज रहा हूँ
विगत दिनो की
ले-ले रोकड़ बहियाँ।
अपने वातायन देख रहा हूँ
वे रंग भरी
परिचित गलियाँ।
फिर कैसे लौटाऊँ
वह बचपन मेरा॥

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

सच पूछो तो बात अलग है

( नव गीत )
सच पूछो तो बात अलग है
कोरे कागज़
काली स्याही जब शब्दों से
खरी बात कह आग लगाती
सच पूछो तो  बात अलग है।

पुष्पित उपवन  ,
अपने माथे अंगारों से
पुष्प सजा विद्रोह दिखाता
शपथ से कहता आग अलग है।
सच पूछो तो  बात अलग है।।

जब हंसों ने
मुक्ताओं का मोह छोड़ के
पाषाणों को राग सुनाया
ज़रा कान दो  राग अलग है।
सच पूछो तो  बात अलग है।।


अलमस्तों ने
प्राण हथेली पल में रख कर
प्राणों को निज देश पे वारा
सुर्ख धरा का  भाव अलग है।
सच पूछो तो  बात अलग है।।

शव सा रह के
कब तक शोणित व्यर्थ करेगा
ज़रा कपोलों पर शोणित मल ले
दीवानों का  फाग अलग है।
सच पूछो तो  बात अलग है।।

इतिहासों ने
उसे सहेजा जो लीक छोड़ के
आँख मिलाने चला काल से
यह जीवन का  भाग अलग है।
सच पूछो तो  बात अलग है।।
               

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राजस्थान )

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...