1
अर्चन सामग्री ले के, आसन को साध कर ,
अंतर उतर राम, गुरु ध्यान करते .
मुद्रा लगी मंत्र गूंजे ,दिशाओं ने चुप्पी साधी .
भवपति नाम जप , भवानी को जपते
अर्चन को पूर्ण कर , राघव सम्मुख हो के ,
सीता-शोध करने को , अब नाम पूछते .
सब वीर मिल कर , बोले कर जोड़ कर,
मात्र नाम हनुमान , राघव से कहते .
2
राम का आदेश पाके , कपि चढ़े श्रृंग पर ,
कपि ने उछाल भरी ,श्रृंग डोल जाते हैं.
नभचारी हनुमान , तीर से बढ़े हैं लंक ,
वरवीर समूह में , जोश भर जाते हैं.
राम मुग्ध हो के देखे , लक्ष्मण हुंकार करे,
अंगद सुग्रीव सह , कपि हूंक जाते हैं.
पवन की झोंक लगी , वारि पे जो थाप लगी ,
सागर स्तब्ध हुए , अरि काँप जाते हैं.
3
नभ पथ बाधक हो , सुरसा दहाड़ मारे ,
कहाँ जाते स्वर्ण कपि , तुम मम ग्रास हो.
हाथ जोड़े बोले कपि , लंका जाना अभी मुझे ,
लौट आऊं ग्रस लेना , पूर्व प्रभु कार्य हो.
नागवंशी नहीं मानी , वदन विस्तार करे ,
हनुमान नहीं माने , वे भी ले विस्तार को.
शीघ्र लघु रूप ले के , कपि मुख घूम आये ,
सुरसा प्रसन्न बोली , वत्स जाओ कार्य को.
4
ब्रह्मा आये भारती ले , लक्ष्मीपति रमा सह,
उमा महेश पहुँचे , पहुँचे हैं गणेश .
सुरपति हर्ष करे, देवियाँ विरुद करे,
देव-मुनि गान करे , स्वस्ति पद विशेष .
सुरसा निकष हुई , कपि स्वर्ण सिद्ध हुए ,
मंद-मंद उमा हँसे , पुलकित महेश .
सुरसा कहे जाइए , प्रभु के कार्य साधिए,
सुहृदय संजोइए , रघुकुल नरेश .
5
सागर के मध्य रह , चेटक करे लंकिनी ,
नभचर मुग्धकर, पकड़ के खाए है.
मथ डाले पक्ष वहां, मथ डाले ग्रीवा वहां ,
अंग सब चट कर , रक्त से नहाए है.
पूर्व से ही हनुमान , सावधान हो गए,
चेटक चला ही नहीं,थाप खाए जाए है.
देखा वर वीर ने भी , कार्य में विलम्ब होते ,
मुष्टिका प्रहार कर , लंकिनी सुलाए है.
6
अग्रगामी हो कर के , कपि गये उस पार ,
भूधर का ताल जहां , बाज सम उतरे .
नीरव को भंग कर , कपि चढ़े भूधर पे,
उच्च एक श्रृंग पर , वह्नि सम दहके .
दश दिशा देख-देख , दृष्टि डाली चहुँ ओर,
हरी-भरी प्रकृति मे ,मणि सम चमके .
दूर देखि गति जहां , स्वर्ण-देश था वहां ,
उत्सुक हो बढे कपि , रवि सम दमके .
7
स्वर्ण मढ़ी लंका खड़ी ,पग-पग रत्न जड़े ,
आभ पड़े नगरी पे, चक्षु चुंधियाती है .
बहु पीन परकोट , खूब फैले राज पथ ,
फणी सम वीथियों में, बुद्धि चकराती है .
यत्र-तत्र ताल कूप , तडाग-बाग़-नालियाँ ,
झरनों की झरन में , वृष्टि मंडराती है.
ठौर-ठौर मधुशाला , ठौर-ठौर वधशाला ,
देख भ्रष्ट मर्यादा को,आत्मा तलफाती है.
8
लेकर के सूक्ष्म रूप , नर-नारी बीच पैठ ,
गतिविधि देख कपि , सुचर से बढ़ते.
द्वार-द्वार देख कर , पोल-पोल पैठ कर ,
कक्ष-कक्ष छान कर, शोधक से लगते.
फिर नव ठोर दिखे, फिर नव आस बंधे ,
उसी क्षण दौड़ जाते, धावक से लगते.
मिले नहीं सीता कहीं , आँखे भर आती वहीँ,
वक्ष बैठ-बैठ जाता , बालक से लगते .
9
नगर के चहुँ ओर , हलचल अतिशय ,
रक्ष - देश रक्षित है , सुभट सचल हैं .
गज-अश्व उष्ट्र-खर, आती-जाती डोलिया हैं ,
दीन यहाँ शोषित है , सुरथ सचल हैं .
अति लोल ललनाएं , रुचिर श्रृंगार किये,
मार हुआ वन्दित है , सुकाम सचल हैं
मद्य मांस मिथुन में , लिए हुए स्वेच्छाचार ,
यत्र - तत्र रमण में , सुरक्ष सचल हैं .
10
हनुमान रुककर , क्षण भर सोचते हैं,
यत्र-तत्र स्वर्ण-सज्जा, दमन प्रमुख है .
रक्ष-वृन्द हिंसा रत, अहिंसा पानी भरती ,
दया-धर्म-प्रेम नहीं , दलन प्रमुख है .
रक्ष-देश ललनाएं , लज्जित विन्यास किये ,
लाज-शर्म त्याग रहे , दहन प्रमुख है .
आतंकित नर-वृन्द , भयभीत देव-वृन्द,
दशानन देश रिक्त , सृजन प्रमुख है .
11
लंक- देश में पतित , देख कर मूल्य तत्र ,
क्रुद्ध हुए कपि श्रेष्ठ , छूट गयी लघुता .
पूर्व रूप पाते ही , देख लिया प्रहरी ने,
अस्त्र-शस्त्र लिये दौड़े , उनकी ही प्रभुता.
कपि कहाँ चुप रहे ,छीन लिए अस्त्र-शस्त्र,
इक्षु दंड सम चीर , बताई दी गुरुता .
पार्श्व में प्रासाद देख ,पुनः लिया रूप लघु ,
वेग से प्रवेश कर ,काम ले ली दक्षता.
12
ऊंचे- ऊंचे सदन जो, गगन को भेदते,
पूर्ण देख आते मानो, कभी नहीं देखे हैं.
भांत-भांत लता कुञ्ज , सघन विटप माल .
पूर्ण घूम आते मानो, कभी नहीं घूमे हैं.
भूतल में कक्ष बने, गहरे जो गह्वर थे ,
पूर्ण फिर आते मानो,कभी नहीं फिरे हैं.
ऐसा कोई कोना नहीं , जहाँ माँ को देखा नहीं ,
देखते हैं ऐसे मानो, ,कभी नहीं देखे हैं.
13
मंदिर दशानन का ,भौतिकता से पूर्ण है,
भित्ति-गच स्वर्ण में जो,नील मणि मुख्य है.
वातायन-सुद्वार के , गंध के कपाट हैं,
सूक्ष्म हुई नक्काशी में , रक्त मणि मुख्य है.
वर्तुल सोपान बने, पन्नग से रचित जो,
छाजन पे चित्रकारी , मुक्ता - मणि मुख्य है.
कई-कई स्वर्ण -कोश , कई-कई रजत कोश,
अनेक हीरक कोश , पदम् - मणि मुख्य है.
14
देख कर विलम्ब होता ,शीघ्र बढे हनुमान ,
सारे कक्ष छान लिए , महतारी नहीं है.
सुसज्जित शयन कक्ष , सुनिर्मल पर्यंक ले,
दशानन निद्रा-मग्न ,पुनिताई नहीं है.
अन्य एक मंदिर में , भद्र - जन निद्रा मग्न ,
हरि - हर शोभित जो , कुटलाई नहीं है.
राम दूत चिन्तते हैं , सीता शोध कार्य हेतु ,
हरि- भक्त मित्रता में , कदराई नहीं है.
15
प्राची अनुराग लिए , स्वर्ण किरणें फेंकती,
भाग फटे जाग हुई , विभीषण जागते .
राम-राम हरे राम , हरे-हरे राम-राम,
कोमल सुकंठ लिए , नाम श्री अलापते.
द्विज रूप धार कर, नम्र हुए हनुमान ,
चकित हैं विभीषण, विस्मित विराजते .
आप कौन द्विज श्रेष्ठ , हर हैं या हरि मेरे ,
राम हैं या रमापति ? पूछ के दुलारते.
16
नम्र होके बोले कपि , क्षमा करें संत श्रेष्ठ ,
द्विज नहीं वानर हूँ, यहाँ मैं प्रवासी हूँ .
हर नहीं हरी नहीं , नहीं राम रमापति ,
राम - दूत हनुमान , भारत निवासी हूँ .
सरल पुनीत आप , राक्षसों के मध्य कैसे ?
यही सब जानने को,अतीव जिज्ञासी हूँ.
मेरे स्वामी राम जी हैं, सीता उनकी प्रेयसी ,
सीता शोध के लिए ही,पूर्ण मैं प्रयासी हूँ.
17
नम्र होके विभीषण , बोले हनुमान से ,
आप मेरे अतिथी हैं , श्रम परिहारिए .
नित्य कर्म निवृत्ति ले, संध्या-वंदन कर लूं ,
राम -नाम ले ही लूं,अल्पाहार कीजिए.
आप जिस कार्य हेतु , यहाँ तक आये हैं ,
संकल्पबद्ध उसमें , सहयोगी जानिए.
धीर-बुद्धि विभीषण , यह कह बढ़ गये,
डूब गये चिन्तना में,ऊभ-चूभ मानिए.
18
नित्य कर्म से निवृत्ति,शीघ्र कर विभीषण ,
सरोवर तट पर , हंस सम दिखते .
अश्व - दश साध कर,संध्या-वंदन करते ,
अर्चन समय पर ,पुष्प सम खिलते.
गुरु-गौरी पूज कर , राम-नाम भज कर ,
कपि-वर भेंट कर , मित्र सम लगते.
गुणवंत हनुमान , तत्काल बोल उठे ,
कहो मित्र आप कैसे,दुखी सम रहते ?
19
भूपाल जिस देश का है कुत्सित-अहंकारी ,
कल्पित है सुख वहाँ , सत्य है बुद्धिमंत.
है उत्कोची सभासद , कर्मचारी - अधिकारी ,
जीवन अशांत वहाँ , सच कहूँ गुणवंत .
स्वेच्छाचारी जन-वृन्द , भ्रष्ट-मूल्य में जिये ,
ऐसा राज लुप्त होगा,देखिये ज्योतिर्वंत
आह लम्बी भर कर, बोल गये विभीषण ,
अग्रज हैं दशग्रीव , दुख है हनुमंत .
20
अपहरण - तस्करी,लूट जहां गर्व हेतु,
कपि-श्रेष्ठ समझिए , तत्र मुख्य स्वार्थ है.
शोषक व अत्याचारी , पाते हैं प्रतिष्ठा जहाँ ,
प्रज्ञा वहाँ मर जाती , तत्र तु कदर्थ है.
दश अश्व मुक्त कर, तन - रथ डोलता है ,
मार वहाँ मुख्य होता , तत्र सर्व व्यर्थ है.
सीता सती हरी जाती , नारी वस्तु मानी जाती,
वहाँ सुख - शांति नहीं , तत्र तु अनर्थ है.
21
अब सुनो हनुमंत , सीता के लिए कहूँ ,
विभीषण बोलते हैं, पर वाणी काँपती .
दशग्रीव हर कर , सती सीता साथ लाया ,
मंदिर चंचल हुए , धरा यहाँ डोलती .
सागर भी क्रुद्ध हुआ , अति वृष्टि होने लगी,
अग्नि अति क्रुद्ध हुई ,जीवन को सोखती.
झंझावात के ही मध्य , अशोक वन में गया ,
तब से ही नभ तले ,राम-नाम बोलती.
22
कहते हैं विभीषण, अशोक वन की राह ,
हो कर के ध्यान मग्न,सुनते हनुमान.
पूरी राह कह कर , चुप हुए संत श्रेष्ठ ,
रुदन में विभीषण , काँपते हनुमान.
बलशाली जम्हाई ले, वज्रांग तन गये ,
लोल हुए अंग - अंग , हांफते हनुमान.
मित्र श्री !उचित लगे , उसे ही आप कीजिये ,
लेकर के अनुमति , बढ़ते हनुमान .
23
कपि ले के सूक्ष्म रूप, उतरे भूधर पार ,
पहुंचे सघन वन , जो अतीव भारी है.
गगन सुभेदती है, बहु उच्च विटपमाल,
पन्नग सी हरियाली,अति मनोहारी है.
कई-कई पुष्प रूप, कई-कई फल रूप ,
भ्रमर गुंजार तहाँ , बहु रसकारी है.
दिवस में रजनी की , गति जहाँ रहती है ,
पग-पग निशाचर , खूब भयकारी है.
24
देखते हैं तत्र कपि , कुछ भिन्न भाग एक,
निर्मल आलोक वहाँ , सब कुछ शांत है.
विरुद्ध स्वभाव भूत , चर रहें साथ-साथ,
सिंह-अजा मित्र सम , द्वेष यत्र सांत है.
श्येन- व्याल साथ रह , अहिंसा भाव रचते ,
द्विज वहाँ उल्लसित,कोई नहीं क्लांत है.
सुधा सम नीर बहे, शीतल समीर बहे ,
विनीत हैं पञ्च-तत्त्व , कौन कहाँ भ्रांत है.
25
राम -चर वहाँ गये , अद्वितीय आकर्षण ,
मंद-मंद वायु बहे , क्षीण जल-धार है .
शाख-शाख झूमती है , पत्र करे झरमर ,
रवि किरणे नाचतीं , सघन गुंजार है .
सरल सरस ध्वनि , श्रुति को संपन्न करे,
तत क्षण आये शत, मन में विचार हैं.
ओह ! राम रमापति , निर्जन इस प्रांत में,
राम-राम मन्त्र गूंजे,कैसा व्यवहार है.
26
सुरोहित सुवृक्ष से , आंजनेय देखते हैं ,
सुमुखी - सुमंगला वो , आम्र तले है रोती .
अति क्षीण तन हुआ, शिथिल है गात्र हुआ ,
बल - हीन वाणी ले के , राम को पुकारती.
भुज द्वय घुटनों पे , सर धर लपेटती ,
जीर्ण हुई साडी खींच,खुद को वो ढांकती.
सज्जा हीन वेणी एक , प्रसरित भाल -बिंदु ,
घायल कपोती सम ,प्राण को वो धारती.
27
सुदूर से आता हुआ , घर्र-घर्र नाद उठा ,
देखा आंजनेय ने , सैन्य - दल आता है.
अग्र भाग गज-दल , पश्च भाग अश्व - दल ,
मध्य भाग भव्य-रथ , वेग सह आता है.
मृग एक दौड़ कर , दुखिया के अंक सटा ,
शिशु मानो मातृ-अंक ,चढ़ा चला आता है.
भय मारे भागते हैं, भोले - भाले वन्य जीव ,
छिपते हैं जीव मानो ,ध्वंस चला आता है
28
सैन्य दल फैल गया , चक्राकार रचना में ,
भव्य रथ रुक गया , दशग्रीव आया है.
ले के साथ नारियों को , आगे कर मंदोदरी ,
छैला - रूप धर कर , हतबुद्धि आया है.
बुद्धिमंत हनुमान , शीघ्र ही समझ गये ,
जानकी से मिलने को,मंदबुद्धि आया है.
सती सीता मुंह फेर , करुण विलाप करे ,
हाय ! राम शीघ्र करो , शठबुद्धि आया है.
29
हुआ सम्मुख लंकेश , सती से यूँ कहता है ,
मुझ को स्वीकार करो , रक्ष-रानी बन जा.
मेरे साथ पार्श्व-बैठ , सिंहासन कृतार्थ करो ,
वैभव तुम्हारा होगा , राज-रानी बन जा .
भूत अब भूल जाओ , वर्तमान सम्मुख है,
भविष्य भी यही तय , भव-रानी बन जा.
देव-नर-नाग सब , हैं मेरे यहाँ तत्पर ,
सबको आदेश देना , पट-रानी बन जा.
30
मध्य दुर्वा खड़ी कर , सीता बोली चुप शठ ,
देख आज दुर्वा साक्षी , संवाद जरूरी है.
सिंहासन साकेत का है, शेष सब पट्ट मात्र ,
मैं तो रानी राम की जो , निर्वाह जरूरी है.
भूत मेरे राम रहे , वर्तमान राजा राम,
भविष्य भी राम होंगे , विचार जरूरी है.
देव-नर-नाग सब , नियति में बंधे हुए ,
पर आततायी तेरा , संहार जरूरी है.
31
रावण अधीर हो के , भाल पर बल दे के
बार - बार खड्ग खींचे , भय भर जाता है.
वानर सचेत हो के , अंग सब समेट के ,
दन्तावली भींचता है , क्रोध भर जाता है.
मंदोदरी आगे आ के , दशानन को रोक के ,
सुनीति सिखाती है वो ,क्षोभ भर जाता है.
जानकी विलाप कर , राम गुण-गान कर ,
स्वप्रीति को बताती है , कंठ भर जाता है.
32
सीता मात्र राम की है, राम मात्र सीता के हैं ,
सीता के हृदय पर , राम-माल शोभती .
नहीं रुचे कंठहार, मणि-माल पुष्प-माल
राम-भुज मेरी माल,वो ही माल शोभती.
वैभव मात्र राम का , और सब दीन-हीन
मर्यादा में बंधी माल , वह माल शोभती.
रोमावली राम बसे, प्राणावली राम कहे
राम को ही समर्पित, प्राण-माल शोभती.
33
सेविकाएँ मिल कर , विकट रूप धार लो,
राम-प्रिया सो ना सके , हतबुद्धि चीखता है.
राज-वामा मानकर , मैने इसे मान दिया,
ठुकरा दिया मान को , मंदबुद्धि चीखता है.
प्राण इसको प्रिय तो, कर मेरा थाम ही ले,
न मानती लंकेश को , पापबुद्धि चीखता है.
खड्ग मेरी व्याकुल है, रक्त पान चाहती है,
नर नहीं नारी सही , हठबुद्धि चीखता है.
34
राम-राम बोल कर , प्रिय-गुण गान कर ,
कोसकर स्व दैव को ,सीता विलाप करे.
दशानन को रोक के , मंदोदरी उसे ले के ,
"अबला है" कह कर , शीघ्र प्रस्थान करे.
निशाचरी तंत्र वहाँ , सुसक्रिय हो जाता है,
भयकारी रूप ले के , मन उद्भ्रांत करे.
हरि-भक्त त्रिजटा जो , सीता को संभालती है ,
रोकती है निशाचारी , सच का उद्घोष करे.
35
सुनो-सुनो सब सुनो,रावण के दिन चार ,
अघ-घट पूर्ण हुआ ,फटने ही वाला है.
निपट है अहंकारी , दृष्टिहीन तिस पर ,
परदारा हर लाया , हटने ही वाला है.
कपि एक आयेगा ही , उधम मचायेगा ही,
लंक - देश उससे ही,जलने ही वाला है.
जलधि पे सेतु होगा , राघव बल आयेगा
दशकंठ रण में जो ,मरने ही वाला है.
36
हाथ जोड़ त्रिजटा से , सती सीता बोलती है ,
त्रास मेरा कट जाए , माता कुछ कीजिए .
प्राण कैसे धारूं अब , प्राणाधार मिले नहीं ,
प्राणाधार मिल जाए , ऐसा कुछ कीजिए.
राम सुध लेते नहीं , प्रिय बिना व्यर्थ सब,
प्राण छूट जाए अब , यत्न कुछ कीजिए .
मम राम विमुख हैं , ऐसा नहीं लगता है,
वे भी अति खिन्न होंगे , राह कुछ कीजिए.
37
राम चरणानुरागी , त्रिजटा यों कहती है,
खुद को संभाल बेटी , काहे खिन्न होती हो.
आप से विलग हो के, राम भी वियोगी होंगे ,
एक प्राण होकर भी , काहे भिन्न होती हो.
माता कह बुलाती हो , तिस पर रुलाती हो ,
मेरी वय भी तेरी हो , काहे छिन्न होती हो.
किंचित विश्राम ले लो, अल्पाहार ले आती हूँ ,
राम है हरि-स्वरूप , काहे चिन्त्य होती हो
38
मंद-मंद वायु बहे, द्विज साम छंद पढ़े.
सती सीता कहती है ,हाय ! मैं अकेली हूँ.
एक-एक क्षण मुझे , संवत्सर सा लगता,
नीरवता कचोटती , पीड़ा की सहेली हूँ .
कपि क्षण वर जान , मुद्रिका को डालते,
देख मुद्रा सती चीखी ,प्रिय !मैं अहेली हूँ .
कौन-कौन यहाँ कौन ,राम- मुद्रा कौन लाया ,
सत्य यह या माया है ?हाय!मैं पहेली हूँ.
39
श्रद्धा-सह सम्मुख हो, तत क्षण हनुमान ,
विनीत भाव से कहे , अम्ब !तव दास हूँ .
मुद्रा का वहन कर ,राम से ही प्रेषित हूँ ,
आप को ही शोधता , आपके ही पास हूँ
तव नायक रत हैं , सत्य की प्रतिष्ठा हेतु ,
राम के उद्देश्य हेतु , कार्य का विकास हूँ .
मायावी नहीं मानिए , आंजनेय शाखामृग,
राम-भक्त हनुमान , राम का विश्वास हूँ.
40
क्षमा करें कपि वर, लंक-देश नृप भ्रष्ट ,
तैसा ही है जन-वृन्द , संदेह सहज है .
माया की प्रतिष्ठा यहाँ , असत्य ही सर्वत्र है ,
साधु पर प्रश्न चिह्न , लगाना सहज है.
पग-पग मूल्य-क्षय , मर्यादा है तार-तार ,
सर पर भय-भाव , चढ़ना सहज है.
ऐसे वायु-मंडल में , श्वांस लेना दुर्भर है,
राम के वियोग में तो ,मरना सहज है.
41
खिन्न ना हो महतारी, तव वत्स उपस्थित ,
अविलम्ब लौटता हूँ, स्वामी शीघ्र आयेंगे.
मूल्यों की प्रतिष्ठा हेतु ,त्रासदी के अंत हेतु ,
देवी तव मान हेतु , प्रभु अत्र आयेंगे .
धर्म-प्रति ग्लानि को , समूल नष्ट करने हेतु ,
शुचि ध्वज आरोहण , भव - धन आयेंगे .
दशग्रीव रोंद कर , भव कर थाम कर ,
बनने संयोगी हेतु , तव प्रिय आयेंगे.
42
कपि राज वचन तव , मम हित अनुकूल ,
मरू-भू में मिला मानो,शुचि जल श्रोत हो.
अतीव सुखद हुआ , राम का विश्वस्त यहाँ ,
निर्धन को मिला मानो, अर्थ युक्त कोष हो.
मूल्य की प्रतिष्ठा हेतु , प्रिय अत्र आयेंगे,
वत्स तव कथन तु , पूर्व का उद्घोष हो.
रोंदा जाए दशग्रीव , राम को उचित होगा ,
प्रिय कैसे रहते हैं , कहो तो संतोष हो .
43
महतारी कैसे कहूँ ? राम के व्यवहार को ,
वियोगी बन रहते, आप के अभाव में.
दिवस प्रारम्भ से वो , खोजते हैं जहाँ-तहाँ ,
नाम ले पुकारते हैं, आप के प्रभाव में .
रजनी व्यतीत होती, अनुज सह चर्चा में ,
हर चर्चा रंगी होती, आप के सुभाव में .
पथिक से पूछते हैं , खेचर से पूछते हैं,
शून्य में ही ताकते हैं,राम के स्वभाव में .
44
सुनते ही कपि श्री को ,जानकी विलाप करे,
हे ! राघव जानती हूँ , दुखी कर आई हूँ.
मेरे पीछे देवर हैं , यह तो संतोष है .
उनके वात्सल्य को भी,छीन कर आई हूँ .
लौटूं तो भी कैसे लौटूं ? मध्य में यह वारिधि ,
भाग्य अपने कर से , फोड़ कर आई हूँ
शायद ही आहार को , लेते होंगे समय से ,
हाय रे !व्यवस्था सारी ,तोड़ कर आई हूँ.
45
जानकी विलाप सुन , कपि- नेत्र भर कहे ,
शांत रहो माता अब , क्लेश नहीं कीजिए.
प्रभु और लक्ष्मण की , सेवा में सुग्रीव दल ,
परिचर्या सुन्दर है , खेद नहीं कीजिए .
मुद्रिका को धार कर , राम हेतु सहिजानी ,
मुझको प्रदान करें , भ्रम नहीं कीजिए .
मर्यादा के बन्ध लगे , न तु लेके चला जाऊं ,
दशग्रीव मत्सर सम , शंक नहीं कीजिए.
46
अरे वत्स !अति भोले , तुम अति कोमल हो ,
दशग्रीव अति दुष्ट , सुभट से युक्त है.
कई क्रूर मल्ल यहाँ , महाकाय -विकराल ,
ऋक्ष - वानर सरल , लघुता से युक्त है
देव - नर- नाग सब , दमित हैं राक्षसों से ,
कोई नहीं सहाय्य है ,बंधन से युक्त है
कैसे पार पाओगे , यहाँ रक्ष छलि - बलि ,
तिस पर मायावी हैं,साधन से युक्त है.
47
कंकण प्रदान कर , कहने लगी जानकी,
वत्स स्वामी से कहना , सीता मरी जाती है.
जैसे कर सिक्ता धरी , धीरे से खिसकती है ,
वैसी ही है प्राण - दशा , अब श्वाँस जाती है.
अब न विलम्ब करो , तन जर्जर हुआ ,
पक्ष सब विलग हैं , हंसी उड़ी जाती है .
आशा के ही बल पर , प्रतिदिन लड़ती हूँ ,
निगोड़ी ये मृत्यु मुझे , खींचे चली जाती है.
48
शाखामृग हाथ जोड़ , कहते हैं जानकी से ,
जननी विचार यही , रखना उचित है .
तप में ही तपा हुआ , कुंदन निखरता है,
कुंदन को वह्नि-दाह , सहना उचित है.
शुद्ध स्वर्ण मोल चढ़े , स्वर्णकार हाथ चढ़े ,
अलंकार उसका ही , गढ़ना उचित है .
सीता की नियति राम ,राम की नियति सीता,
प्रकृति - पुरुष रूप , मानना उचित है.
49
माता ! जग मंच सम , हम सब पात्र हैं ,
नाट्य व्यवहार सम , खेलना ही होता है.
अब मुझे जाना होगा , सन्देश लेजाना होगा ,
राज - कार्य रीती यह , करना ही होता है .
क्षुधा और प्यास से मैं , बहुत ही व्याकुल हूँ ,
उदर को उसका कर , चुकाना ही होता है.
आज्ञा हो तो माता अब , फल-फूल भोग लूँ ,
गुरु-जन की आज्ञा को , पालना ही होता है.
50
सुमुखी विहंस कर , कहती है कपि श्री से,
ओह ! वत्स आंजनेय,सुख से आहार लो.
समृद्ध अशोक वन , बहुत ही कुटिल है ,
तृप्ति हेतु कौशल से , करना विहार को .
ममतामयी आभारी,सुवत्स हूँ आज्ञाकारी ,
शीघ्र दूर करता हूँ , क्षुधा के विकार को .
कहते ही शाखामृग , चढ़ गये वृक्ष पर ,
मानो शशि-आकर्षण,खींचता है ज्वार को.
51
विटप से विटप को , आंजनेय कूदते हैं ,
गहरी हुंकार कर , शाख - शाख धावते.
कूर्दन - धावन कर , वन को झकझोरते ,
पत्र-पुष्प -फल से ही , अवनी को पाटते .
भ्रष्ट हुई शाखाएं जो , क्षपा सम चीखती हैं ,
वनपाल दैत्य सब , भय मारे ताकते .
देखो-देखो कैसा कपि , निर्भय व्यवहार में ,
वन को उजाड़ता है , कह - कह भागते.
52
वनपाल मिल कर , संगठित हुए सभी ,
सब मिल वानर को , वन से हटाते हैं .
कपि श्री वहाँ किसी से , बांधे नहिं बंधते हैं ,
दैत्य धूलि चाटते हैं , कुछ मारे जाते हैं .
क्षण भर में ही वन , क्रंदन से भर गया,
कुछ सिर धुनते हैं , कुछ भागे जाते हैं.
लंकेश सम्मुख कहे , स्वामी क्षमा कीजिए ,
मीचु सम कपि आया ,रक्ष फाड़े जाते हैं .
53
वृत्तांत श्रवण कर , दशग्रीव चिंतातुर ,
भेजता है निशाचर ,सुभट व मल्ल को .
दैत्य देख कपि श्री को , उपहास उड़ाते हैं ,
अरे यह तुच्छ जीव , उचित चर्वण को.
कोई कहे रज्जु लाओ , ले चलो सुबंधन में,
स्वर्णिम गात इसकी , उचित रंजन को.
कपि क्रुद्ध होते हुए , विटप से कूदते हैं ,
ठोर - ठोर हूंकते हैं ,पीसते रदन को .
54
जातुधान सैन्य दल, छिन्न-भिन्न होकर के,
कहता लंकेश से है , रक्ष मारे गये हैं.
शाखामृग गुरुत्तर , निर्भय है बलशाली ,
बंधन नहीं लगते हैं, रक्ष काटे गये हैं.
विद्युत वेग धावता , यकायक दृष्ट होता ,
भीमकाय रूप लेता, रक्ष रोंदे गये हैं.
पद-तले चाँप कर , कई वीर खींच दिये ,
हाय !दो-दो अंश कर , रक्ष फेंके गये हैं.
55
चिंता- मग्न दशग्रीव , पूछता है पार्षदों से ,
कैसे अवरुद्ध होगा , लंका में प्रमाद जो ?
सभासद मध्य बैठा ,कनिष्ठ तनय बोला ,
तात आज्ञा मिल जाये ,रोक दूं विवाद को.
लंकेश बोला तत्क्षण, आपको उचित होगा ,
यथा शीघ्र रुद्ध करो , कपि के उन्माद को .
अक्षय कुमार चला , सुभट को साथ लिये ,
निमंत्रित कर बैठा , हाय रे ! वो काल को .
56
अक्षय कुमार गया , जहाँ हनुमान थे ,
देख कर शाखामृग , करता प्रहार है.
भ्रष्ट कर प्रहार को , आंजनेय हूँकते हैं ,
दैत्य - सैन्य मार दिये, मुष्टिका प्रहार से .
रावण तनय श्लथ , होकर के चिन्तता है,
भोला हूँ विजया खाली ,बिना ही विचार से.
तभी उसके वक्ष पे , कपि ने आघात किया ,
मृत्यु-मुख में गया वो , अल्प ही प्रयास से.
57
अक्षय कुमार क्षय, जान कर दशग्रीव ,
मेघनाथ कह भेजा , स्थिति संभालिए .
लंका में उत्पात करे,शासन को भ्रष्ट करे ,
यह कौन वानर है ? जरा पहचानिए .
सुभटों को साथ कर , अस्त्र-शस्त्र सज्जित हो ,
जैसे भी हो ले ही आओ , वानर दिखाइए .
सीधी अंगुली से कभी , घृत हाथ आये नहीं ,
अंगुली को वक्र कर , कार्य साध जाइए .
58
देखा कपि श्री ने वहाँ , दुर्धर सुभट आया,
दिवस में लिया मानो,अवतार तम ने .
श्याह-देह वक्र-मुख , घन सी गंभीर काया ,
मेघनाथ लगता था , रूप लिया घन ने ,
वज्रांग हुंकार करे , गंभीर गर्जन करे ,
दैत्य के समक्ष मानो , रोष किया यम ने.
कुछ मरे कुछ भागे , मेघनाथ चिन्तता है ,
वानर सा वानर या , कपि रूप हर है.
59
वीर द्वय भिड़ गये , रण होता कौशल से ,
ठेल - ठेल भिड़ते हैं , भिडंत दिखाते हैं .
मध्य में आते -जाते , अन्य रक्ष मारे जाते,
दाँव मार - मार कर , लड़ंत बनाते हैं .
अस्त्र-शस्त्र साध कर , घात-प्रतिघात कर ,
पूर्ण प्राण साधकर , सुखंभ टिकाते हैं.
श्रृंग चूर -चूर होते , धूलि-घन मंडराते ,
आग्नेयास्त्र चलते हैं , सुअंत रचाते हैं .
60
थाप मारी कपि ने , अचेत हो इन्द्रजीत ,
लोट गया धरा पर , मानो कटा वृक्ष हो .
शीघ्र ही सचेत हो के , बढ़ता है कपि ओर ,
कपि वृक्ष पर चढ़े , मानो यही फल हो.
सुघात लगाते हुए , शाखा-शाखा कूदते हैं ,
चढ़ जाते दैत्य मार , मानो यही कर्म हो .
इन्द्रजीत विवश हो , कर गहे ब्रह्म - सर,
मानो कपि साधने का , शेष यही पंथ हो .
61
विटप समूल तान , वर्तुल भ्रमण कर ,
दैत्य सारे लक्ष्य कर , दल चपेट लिया .
भुज द्वय खोल कर , रक्ष भींच - भींच कर ,
मर्दन - कर्तन कर , वहीँ निचोड़ दिया .
जातुधान चीखते हैं, कहाँ गये इन्द्रजीत ?
हाय !हमें तोड़ दिया , अरे ! मरोड़ दिया.
मेघनाथ ध्यान कर , ब्रह्म - सर साध कर ,
लक्ष्य कर वानर पे , तत्क्षण छोड़ दिया.
62
देख कर ब्रह्म - शर , कपि तत्र चिंतते हैं ,
कर दिया रोधन तो , ब्रह्म - अपमान है.
मानकर हरि- इच्छा, शक्ति को स्वीकार करूँ ,
ब्रह्म-हरि -हर का ही , इसमें सम्मान है.
लक्ष्य भ्रष्ट होने पर , शक्ति रुकती ही नहीं ,
जन-धन हानि होगी , पूर्व के प्रमाण है.
ब्रह्म-शक्ति माता आप , भवदीय सुपुत्र हूँ ,
कार्य सिद्धि आपसे ही , मम अनुमान है.
63
स्फुलिंग उडाती शक्ति , आ लगी हृदय पर ,
मानो स्वर्ण सुमेखला , मिली स्वर्ण श्रृंग से.
लुंठित पवन-पुत्र , धरा पर फैल गये,
हाय ! शिशु सोया मानो , जननी के वक्ष पे .
राक्षसों ने बंध बांधे , मूर्छित आंजनेय के,
सूम ज्यों सचेष्ट होता , हाथ लगे धन पे .
श्रम-कण छिटकता , इन्द्रजीत बैठ गया,
मिली मुक्ति मानो उसे , क्रूर काल यम से .
64
कपि श्री को प्रस्तुत कर , इन्द्रजीत बोलता है,
प्रभु ! यह वानर वो , जिसने हिलाया है .
अगणित रक्ष - भट्ट , आयुध अमोघ चले ,
इन्द्रजीत वीर को भी , छकाया-नचाया है .
वानर सम वानर , पर वानर ये नहीं .
यह कोई सुदेव है , शक्ति को पचाया है.
अप्रतिम वीर यह ,ब्रह्म-शक्ति सह गया,
आप जाने कौन यह ? स्वधर्म निभाया है.
65
वाह - वाह इन्द्रजीत , आप अनुपम वीर ,
हमें बताया वानर , कैसा हृष्ट-पुष्ट है.
दर्शन में सरल है , अनुभूति ठीक नहीं ,
अतीव उत्पात रचे , गुरुत्तर दुष्ट है.
अक्षय कुमार क्षय , हुआ इसके कर से ,
अब नहीं बच पाये , दैव अद्य रुष्ट है .
जाओ-जाओ वीर आप, श्रम- परिहार करो
इसको मैं देखता हूँ , लंकेश संतुष्ट है.
66
रक्त नेत्र लिये हुए , दशग्रीव बोलता है,
अरे ! कपि कौन तुम, लंका में हो कब से?
किस की है अनुमति , लंका में प्रवेश हेतु ,
इतना उत्पात किया , कौन से मंतव्य से ?
वन को उजाड़ कर ,कई सारे रक्ष मारे ,
अक्षय कुमार मारे , किस अपराध से ?
राज दशानन अत्र , रक्ष -संस्कृति है अत्र ,
निश्चित मारे जाओगे , किया जो विरोध है.
67
कपि श्री विनम्र बन , कहते दशग्रीव से ,
स्वामी ! मैं हूँ शाखामृग , शुद्ध वनवासी हूँ.
चतुष्पद भूत मात्र , भ्रमण स्वभाव मम ,
आगत स्वभाव वश , पक्ष से प्रवासी हूँ .
पत्र - पुष्प मैं चर्वित , प्रताड़ित राक्षसों से ,
आत्म-रक्षार्थ रक्ष हत , मैं निरपराधी हूँ .
राजा मानूं राम मात्र , शेष सब दास मात्र ,
प्राण-सूत्र राम-हस्त , पूर्ण मैं विश्वासी हूँ .
68
दशानन कहता है ,वानर तू अपराधी ,
अति अपराध कर , हमें धमकाता है .
अशोक को उजाड़ के , सुपाट दिया शव से ,
राज-रक्त से सना तू ,आँखें दिखलाता है .
लंका और रावण से , कौन परिचित नहीं ?
मेरे गृह में मुझ को , दास बतलाता है.
सिंहासन से उतर , विचलित दशग्रीव ,
लगता है जैसे फणि , फुत्कार करता है.
69
कपि दृढ हो के कहे , स्वामी अब सुनिये ,
अपराधी मुझे कहें , स्वयं को ही मानिए .
बिना अधिकार के ही , सीता हर लाये आप ,
मूल्य हीन काज में , कुहर्ता ही मानिए .
देव नर नाग सब , लूट -लूट कर बैठे ,
कुत्सित कार्य के लिए , तस्कर ही मानिए .
क्रोध-हिंसा-अहंकार , वशीभूत मन के हो,
मार दिए मूल्य सारे , दास तो ही मानिए.
70
जनक सभा के मध्य , हिला ही नहीं पिनाक ,
लज्जित हुवे थे अति , तत्र अहंकार से .
यमी साक्ष्य लिए हुवे , सहस्त्रबाहु द्वंद्व के ,
आप वहाँ बच गए , सुमाली सौभाग्य से .
कौतुक में ही बालि ने ,चाँप लिया भुज तले,
छोड़ दिया विप्र मान , पुलस्त्य प्रभाव से .
स्वामी ! भवत् विरद से , पूर्व से ही भिज्ञ हूँ मैं ,
प्रीति हो तो और कहूँ ? आप के आदेश से .
71
विचलित दशग्रीव , इंगित कर तर्जनी ,
कहता है वानर से ,कपि कटुभाषी है.
कई-कई रण कर , देव-नर-नाग जीते ,
पर तुझे दृष्ट नहीं , अति बकवादी है.
अनुभूत सत्य यह , सुकृति है रक्ष-राज ,
अंध नेत्र सुहाये ना ,अति ही विरोधी है.
जिसे चाहा खुद आया , नहिं आया जीत लिया,
मेरा कहा कौन टाले? रावण यशस्वी है.
72
स्वयं का विरद गान , तुच्छ जन करते हैं,
अन्य जन यश कहें , सम्मान वो मानिए.
व्यक्तिनिष्ठ हो कर के, लोक का दमन कर ,
तुच्छ काम साधते हैं , कुराज वो मानिए.
शोषण-दमन कर , हरण-दलन कर ,
तन्त्र चाहे कैसा भी हो ,ध्वस्त ही वो मानिए.
स्वामी यह अहंकार , पंक सम लीलता है ,
प्रभु-द्रोही संस्कृति को ,कुत्सा ही वो मानिए .
73
अब नहीं गोपन है , स्वामी ! सब सामने है,
राम - दूत हनुमान , कहा आप मानिए .
अपहृत जानकी को , राम-हस्त सौंप कर
क्षमा मांगें आप अब , सत्य राह मानिए .
भूल-चूक होती ही है , समय पे सुधार लें ,
भूल को स्वीकार करे , भद्र जन मानिए .
अद्य सत्य राम रूपि , सत्य को स्वीकार कर,
काल-जयी बन जाएँ , राम प्रभु मानिए .
74
कही गयी स्वामी सब , गरल सम उक्तियाँ ,
रुजता में गरल ही , सुधा सम बनता .
ध्यान नहीं देने पर , रुजता विषम होती ,
रुजग्रस्त तन-मन , भार सम रहता.
पथ्य लिया जाए तब , रुज कट-छंट जाता ,
रुज को दबाने पर , काल सम बनता .
महारुज अहंकार ,आत्ममुग्ध करता है ,
हे लंकेश ! मुग्ध जन,अंध सम बनता .
75
ऐसा नहीं स्वामी अत्र , हों ही नहीं बुद्धिजीवी ,
पर यहाँ भयभीत , कुछ नहीं कहते.
बुद्धिजीवी कहते तो , सत्य नहिं कहते हैं ,
सत्य यदि कहते हैं ,पूर्ण नहीं कहते.
पूर्ण सत्य कहते तो , तंत्र कोप भोगते हैं ,
तंत्र तले अभिव्यक्ति,मुक्त नहीं करते.
प्रतिफल स्वेच्छाचारी , मूल्य भ्रष्ट करते हैं ,
हरण जैसे कृत्य में , चूक नहीं करते.
76
इसी स्वेच्छाचार तले , सीता का हरण हुआ ,
सीता-राम दंपत्ति के ,स्वत्व का हनन जो .
जहाँ स्वत्व छीना जाता , विद्रोह पनपता है ,
स्वत्व हेतु लोक में , संघर्ष चलन जो .
फूटता विद्रोह जब , गुरुत्तर ध्वंस करे ,
मानो ध्वंस कर जाये , भारी भू कंपन जो.
वारिधि के उस पार , लोक सह राम खड़े ,
स्वत्व सौंप क्षमा मांगें , उचित अंकन जो.
77
कुलिश वचन सुन , कहता है दशग्रीव,
अरे कपि ! मम कृत , सदैव उचित है.
विद्रोह-विरोध सदा , बाधक रहे मार्ग में ,
साम-दाम साध लूंगा,नहिं अनुचित है.
हर सौंपे दश शीश , हर प्रति विनत हूँ,
मृत्युंजयी दशग्रीव , हर से रक्षित है.
कौन सीता कौन राम ? कैसा स्वत्व कहते हो?
मात्र स्वत्व लंकेश का,सदैव रचित है.
78
यह कह दशग्रीव , अट्टहास करता है ,
यह कह दशग्रीव , अट्टहास करता है ,
ज्वालामुखी का विवर ,मानो फटा जाता है .
तीक्ष्ण दृष्टि डाल कर , मंदिर में भ्रमता है ,
धूमकेतु नभ-मध्य , मानो चला जाता है .
कोलाहल कर-कर , रक्ष-वृन्द पहुँचता ,
प्रभंजन में वारिधि , मानो बहा जाता है .
रक्ष-वृन्द फैल गया , कपि श्री के चारों ओर ,
रंजन में बाल-वृन्द , मानो देखा जाता है .
79
कोलाहल के मध्य में , कपि श्री गरजते हैं ,
स्वामी!आप का कथन,हितकर नहीं है.
विद्रोह -विरोध सदा , नहीं कुचले जाते हैं ,
अरिवृद्धि नृप करे , यशस्कर नहीं है.
साम दाम राम हेतु , स्वामी ! व्यर्थ सिद्ध होंगे ,
श्री राम को न मानना, अर्थकर नहीं है.
ब्रह्मा हरि हर प्रभु , राम से इतर नहिं ,
इन में भेद करना , श्रेयष्कर नहीं है.
80
कपि श्री के बोलते ही , नीरवता ही छा गई ,
रक्ष-वृन्द स्तब्ध हुआ,गाज जैसे गिरती.
कहते हैं रावण को , मिला यह अवसर,
व्यर्थ नहिं करें आप , प्राण-धार मिलती.
प्रकृति स्वरूपा सीता , हर कर लाये आप,
पञ्च तत्त्व क्रुद्ध रहे , लंका खूब हिलती .
श्री राम की शरण लें , सीता सौंप क्षमा मांगे ,
लंका को सुशासन दें , यही राह बचती .
81
झुंझला कर लंकेश , कहता है वानर को,
जानता हूँ श्रेय मेरा , जानता हूँ नीति को .
शासन और सत्ता की , वल्गा थामे रखता हूँ ,
चाहूँ जैसे चलते हैं , जानता हूँ रीति को .
सीता राम कौन होते ? हर आगे सब तुच्छ,
पूर्व में ही कह चुका , हर प्रति प्रीति को.
मम शासन सत्ता को , मूल्य भ्रष्ट खूब कहा,
दारुण दंड पा कर , पाओ अति भीति को.
82
आप जैसे शासक से , उचित अपेक्षा यही ,
दंड जो भी देना चाहें , वानर को दीजिए .
निजता की तुष्टि हेतु , अहंकार पुष्टि हेतु ,
शासन की थामी वल्गा,शीघ्र मुक्त मानिए .
श्रुति रुद्ध दृष्टि बद्ध , जहाँ तंत्र बनता है ,
वहाँ अंध कूप में ही , मूल्य गये जानिए .
मूल्यों की प्रतिष्ठा हेतु , राम दस्तक देते हैं ,
मूल्य हन्ता रक्ष - तंत्र , अब नष्ट मानिए .
83
सुनो-सुनो लंक-वासी , कपि अति बुद्धिमान ,
हमें मूल्य हन्ता कहे ,पालक तो राम है .
हमें स्वत्व हर्ता कहे,श्रुति-दृष्टि रुद्ध कहे,
श्रुति-दृष्टि से सम्पन्न,विचारक राम है .
सत्ता और शासन में , हमें भ्रष्ट मानता है ,
हम लोक विरोधी हैं ,नायक तो राम है .
दशग्रीव चीखता है, जातुधान ! मारो कपि,
हमें दास कहता है , मात्र राजा राम है .
84
रक्ष-वृन्द दौड़ पड़ा , रावण के बोलते ही,
मानो श्याम घन फैले , पवन प्रवाह से .
चहुँ ओर श्याम काय , मध्य स्वर्ण काय कपि ,
मंडराती मक्षिका ज्यों,सौरभ प्रभाव से.
एक -एक जातुधान , बढ़ता है कपि ओर ,
मानो सिद्धि चाहता है ,एक ही प्रहार से .
मित्र सह विभीषण , शीघ्र ही पहुँच कर ,
निवेदन करते हैं , अनेक प्रकार से .
85
स्वामी ! कपि मारे नहीं , यह राजदूत यहाँ ,
राजदूत का हनन , नहीं अनुकूल है.
सुदंड ऐसा दीजिए , नित्य ही स्मरण करे ,
सर्व दिशा सध जाए,जो भी प्रतिकूल है.
कपि काष्ठ -पुत्तलिका , संचालक राम है ,
कपि-स्वामी अत्र आये,नीति अनुरूप है.
विभीषण-मित्र बोले , प्रभु ! यह उचित है,
मुख्य अरि-बंधन की , रीति ही अनूप है.
86
साधुवाद विभीषण ,लंकेश का आप को है .
अंग-भंग उचित है ,और तो युक्ति नहीं .
कपि मात्र साधन है , लक्ष्य अब अन्य है ,
लंका - विचलन हेतु , मूल में कपि नहीं .
जब तक हस्तगत , राम नहीं होते हैं ,
तब तक विवाद से ,लंका की मुक्ति नहीं.
राम का ही नाम लेके, हमें धमकाता कपि .
न रहेगा बाँस ही तो , बंसी बजेगी नहीं.
87
87
सुनो-सुनो विभीषण , कपि पुच्छ विलक्षण ,
वह्नि युक्त पुच्छ करो, दौड़ा -दौड़ा जाएगा.
पुच्छ हीन कपि जब , व्यथा राम से कहेगा ,
कपि दशा देख राम , जला - भुना आएगा.
चलो सब मिल कर , कपि पुच्छ दाह करो ,
पुच्छ -दाह उत्सव से , खूब मजा आएगा.
दशग्रीव बोलते ही , निशाचर कह पड़े ,
जाओ-जाओ सब कोई , वस्त्र - नेह लाएगा .
88
सोचते हैं हनुमान , अद्य प्रभु सहायक ,
उचित समय मित्र , विभीषण आये हैं .
हटबुद्धि रावण जो , सुनता किसी की नहीं ,
अनुज कथन माना , शारदा सहाये हैं .
शारदा ने कर दिया , रावण को मतिभ्रम ,
फलतः पुच्छ - दाह , उत्सव मनाये हैं.
शक्ति सह गणपति , हरि-हर साक्षी होंगे ,
अष्ट - सिद्धिं गुरु रवि , सफल कराये हैं .
89
लंका नगरी में अब , ढम-ढम ढोल बजे ,
प्रचारक कहते हैं , अद्य उत्सव होगा .
राज्यादेश सब हेतु , सब ही पालन करें ,
रक्ष-अरि की सवारी , दृश्य रुचिर होगा .
ले के आओ घृत-तेल , लीर-चीर वस्त्र को ,
राज अवकाश जानो , गुरु रंजन होगा .
नगर में कपि फेर , पुच्छ-दाह पूर्ण होगा ,
पुच्छ-दाह देख अरि , सदा विमुख होगा.
90
आदेश के सह रक्ष , जुट गए उत्सव में ,
सदन पहुँच कर , सजते-सजाते हैं .
घृत-तेल ले कर के , लीर-चीर वस्त्र ले के ,
मधुशाला जा कर के,पीते हैं पिलाते हैं .
वधशाला पहुँचते , आमिष की प्रियता में ,
पुच्छ-दाह उत्सव को ,सुनते-सुनाते हैं.
स्वर्ण दुर्ग पहुँच कर , वानर की पुच्छ खींच ,
वस्त्र-तेल लपेट के , चीखते-चिल्लाते हैं .
91
चिन्तते हैं कपि श्री भी , कैसा रक्ष समाज है ?
यन्त्र सम चल पड़ा ,बिना ही विवेकके .
बुद्धि कहीं बेच दी है , मन कहीं मार दिया ,
हो गये हैं सहयोगी , मूल्यों के पतन में .
अंध राजा श्रुति हीन , वैसी ही प्रजा भी है ,
शीघ्र दोनों हव्य होंगे , काल के ही यज्ञ में.
प्रभु कार्य सिद्धि हेतु , लौटना जरूरी होगा ,
चलो अब लग जाऊँ , पुच्छ के विकास में .
92
कपि ध्यान साध कर , सर्पिणी जगाते तत्र ,
प्राण ऊर्ध्व मुख हो के , गरिमा वो पाते हैं .
देखा जब वानर को , भीमकाय हो रहां है ,
जातुधान कपि - रूप , देख भय खाते हैं.
सर्र-सर्र कर पुच्छ , शेषनाग सम होती ,
घृत - तेल वस्त्र अल्प , होते चले जाते हैं .
कपि अब देखते हैं , निशाचर श्रम मग्न ,
हाय - हाय करते वे , पुच्छ थामे जाते हैं.
93
कपि ठेल-ठेल कर , नगर घुमाया जाता ,
चौराहे पर रुद्ध कर , हास वो रचाते हैं .
निशाचर ढोल पीट , मृदंग को थाप मार ,
जातुधान अंगनायें , संग में नचाते हैं .
कोई पदाघात करे , मुष्टिका भी मार जाए ,
बाल वृन्द भ्रष्ट भाषी , उधम मचाते हैं .
लंक - दुर्ग मध्य आ के , पुच्छ -दाह करते हैं ,
तभी कपि लघिमा ले,पुच्छ को बचाते हैं .
94
कपि शीघ्र चढ़ कर , मंदिर के शीर्ष बैठा ,
धू - धू कर वस्त्र - ढेर , धधक के जलता .
अनल की ज्वाल पा के , अनिल चंचल हुआ ,
पुच्छ जली या ना जली , पर दुर्ग दहता .
अनल को क्रुद्ध देख , जातुधान भाग चले ,
सब ओर "त्राहि-त्राहि ",मात्र स्वर भरता .
मंदिर से मंदिर को , चला जाता वानर है ,
अनल और धूम्र से ही ,लंका नगरी भरता.
95
अब कपि रोद्र रूप , जहाँ-तहाँ दिखता,
अनल लगाता चले , राम जयघोष में .
पदाघात कर-कर ,सदन ढहाता जाए,
कुंजर प्रवेश करे , मानों कंज-कोष में .
छिप जाते लंकवासी , देख-देख हनुमान ,
छिपते हैं लवा मानो ,द्विजराज-कोप में.
जातुधान मारे जाते , वानर-हुंकार से ,
मरते शशक मानो , केसरी के घोष में .
96
जातुधान रमणियाँ , भयभीत बिलखती ,
हाय !मैया करती वो , अश्रु ढुलकाती हैं .
भयंकर ज्वाल देख , भैरव रूप कपि देख ,
ओह !तात कहती वो,संज्ञा-हीन होती हैं .
भीषण विस्फोट होते , सदन के ढूह होते,
पविकर्ण होती जाती , गर्भ खिसकाती हैं.
वह्नि फूँकते कपि को , महाकाल सम देख ,
हृदय दबाती हुई , वहीँ प्राण खोती हैं .
97
दाह की प्रचंडता में , फंसे हुए निशाचर ,
बगलें ही झाँक कर , सित्कारी वो भरते .
जातुधान रमणियाँ , रावण को कोसती हैं ,
कपि अरि सदन देख , चिंगारी को भरते .
अस्त्र-शस्त्र शाला मानी , विश्व हेतु विध्वंसक ,
भस्मीभूत कर कपि , किलकारी करते .
मधुशाला - वधशाला , लज्जा के ही हेतु मान ,
छिन्न-भिन्न कर कपि , हुंकारी को करते .
98
जुलस-जुलस कर , दुर्ग खेह होता जाता ,
ज्वाल का प्रचंड रूप , नभ चला जाता है.
गजशाला - अश्वशाला , रिक्त सब होती जाती ,
अघ घट अब मानो , फूटा चला जाता है.
महाकाय हनुमान , चढ़ बैठे श्रृंग पर ,
दश दिशा चंड ज्वाल , बढ़ा चला जाता है.
वारिधि में कूद कर , जल मथ डाला सारा ,
मानो ताप सरिता में , डूबा चला जाता है.
99
मन जब स्वस्थ हुआ , निकले वो वारिधि से ,
ज्यों वारिधि मंथन से , सुधा घट निकला.
तट से निकल कर , वन ओर बढ़ चले,
मानो घन - मंडल में , सुधाकर बढ़ता.
जानकी से मिलते हैं ,सहिदानी माँगते हैं,
बोलो आप महतारी, प्रभु से क्या कहना?
कंकण प्रदान कर, कंज नेत्री कहती है,
राम शीघ्र आयें ऐसी , दीन दशा कहना.
100
राघव से दूर हो के , रोमावली त्रास भरा ,
जल से विलग हुई , मीन सम जीती हूँ.
दृष्टि मात्र राम को ही , खोजती ही रहती है ,
मरुस्थल में बावरी , मृगी सम जीती हूँ.
राम से बिछुड़ कर , मिली मानो रजनी ,
राम -राम रटती , चकोरी सम जीती हूँ .
वत्स प्रिय को बताना , जाने को आतुर श्वाँस ,
अविलम्ब राम देखूं , इसी आस जीती हूँ .
101
वत्स प्रिय को बताना , सीता सम धरा त्रस्त ,
सीता सह धरा के भी , उद्धार को आइये.
शोषण - दुराचरण , प्रसरित है लंका से ,
विश्व अति शोषित है ,शमन को आइये.
अस्त्र-शस्त्र रचना से , आतंकित विश्व है,
भयभीत प्रकृति की , मुक्ति हेतु आइये .
राजीव नयन पर , विश्व दृष्टि साधता है,
मूल्य युक्त जीवन के , सृजन को आइये.
102
वानर सन्देश ले के , कहता विनत हो के ,
सुनो महतारी आप , प्रकृति स्वरूपा हैं .
राम सह लोक खड़ा , मुक्ति को वो चाहता,
सीता मात्र नारी नहीं ,सीता मुक्ति रूपा हैं.
शोषण-दमन और , दुराचरण-ध्वंश में,
विश्व वंदनीया सीता , शुचि शक्ति रूपा हैं.
आप के उद्धार सह , लोक का उद्धार तय ,
अब आज्ञा चाहता हूँ , आप धृति रूपा हैं.
103
सजल वो नेत्र लिये , वानर को कहती है ,
समझ में आता नहीं , स्वजन क्यों जाता है?
गमन उचित वत्स , मुझ को प्रतीक्षा होगी,
कहते ही जानकी का ,कंठ रुक जाता है.
वानर ने अब देखा , सीता वर मुद्रा लिये ,
विनत वो होकर के , श्रृंग चढ़ जाता है.
घोर गर्जन कर , नभचारी होता है ,
मानो सुतपि के प्राण , नभ चढ़ा जाता है.
104
गहन निशा में राम , गगन निहारते हैं ,
टिमटिमाते नक्षत्र , उनको चिढाते हैं .
तिर्यक मयंक देख , वाम भुज देखते हैं ,
रिक्त उसे पा कर के , आह भर जाते हैं .
आह सुनता अनुज , उठ कर बैठ जाए ,
अनुज से राम कहे , कपि नहीं आये हैं.
नित भू भ्रमण करे , आते-जाते रवि-चन्द्र ,
पर सखा सुसंदेश , काहे नहीं आते हैं ?
105
निर्मल चन्द्र ज्योत्सना , छाई हुई चहुँ ओर ,
मानो धरा मढ़ दी हो , स्वर्ण पत्र आभ से.
शुचि जल श्रोत बह , झर-झर नाद करे ,
मानो वीणा वादन का , प्रेम भरा राग है .
मंद-मंद वायु बहे , पत्र ताल देते जाते ,
शाखा झूम जाती मानो , रस पगा नाच है.
राम यह देख कर , अनुज से कहते हैं ,
सीता किस हाल होगी ? यही अनुताप है.
106
राघव को खिन्न देख , कहते हैं लक्ष्मण भी ,
कपिराज सुग्रीव को , निश्चिन्त ही मानिए.
हनुमान भेज कर , सौर तान सो गये हैं ,
हम हुए विस्मृत हैं , कृतघ्न ही मानिए.
राज-पाट लेने हेतु , मित्र-रूप धर आये ,
राज - पाट ले कर के , विमुख ही मानिए .
प्रभु का आदेश हो तो , झंकृत करूं प्रत्यंचा ,
तात ! तब सुग्रीव को , सक्रिय ही मानिए .
107
राघव अनुज कर , ग्रह कर कहते हैं ,
सखा आप सुग्रीव को , बूझ नहीं पाये हो .
जिस त्रास में हैं हम , कपिराज भोग चुके ,
व्रण उनके गंभीर , देख नहीं पाये हो .
वे तो राजराजा यहाँ , दायित्व गंभीर यहाँ ,
नव तंत्र होने से ही , मिल नहीं पाये हों .
हम हैं अतिथि यहाँ , सादर व्यवस्था दी है ,
सीता शोध को लेकर , सो ही नहीं पाये हों .
108
अश्रु ले अनुज कहे , क्षमा करें लक्ष्मण को ,
राम सम अन्य नहीं , राम सम राम हैं .
राम आप अगाध हैं , थाह नहीं मिलती है,
लक्ष्मण की पाठशाला , पाठ अभिराम हैं.
उद्धत स्वभावगत , आप सम धीर नहीं ,
लक्ष्मण तो दौड़-धूप , आप तो विश्राम हैं.
प्रभु ! सीता शोध हेतु , श्लथ भाव खलता है,
सीता कैसे जी पाएगी ? सीताप्राण राम हैं.
109
अनुज यह कह के , रामपद ग्रहते हैं ,
राम उन्हें रोकते हैं , ऐसा नहीं कीजिए .
लक्ष्मण आप भ्राता हैं , सखा भी हैं भरत सम ,
संकट में सहभागी , उर लग जाइए .
ऋणी हम आपके हैं , करणीय बताते हैं ,
कल सीता शोध हेतु , सुग्रीव बुलाइए .
निशा अब गहराई , श्रम परिहार करो ,
रुदन का त्याग कर , अंक लग जाइए .
110
सुग्रीव टहलते हैं , चिंतातुर होकर के ,
ध्रूम ज्वाल उगलती ,यम - दिशा उग्र है
हनुमान गये हुए , पक्ष पूर्ण रीत गया,
लौट कर आये नहीं , राम भी तो व्यग्र हैं .
प्रतीक्षा रत रहना , अति कष्टकारी हुआ,
राम से क्या बोलूँ अब ? प्रश्न ही तो वक्र है.
सुग्रीव ने सभासद , शीघ्र ही बुला लिये ,
सभासद भागे आये , राजाज्ञा तो अग्र है.
111
सभासद जुटते ही , प्रश्न किया सुग्रीव ने,
सीता शोध की प्रगति , मित्रवर कहिए .
हनुमान भेज कर , आप सब सो गये हैं ,
सीता शोध शपथ की , गति अब कहिए.
राज अतिथि हैं राम , अपने ही तंत्र में ,
आतिथेय रूप में ही , सीता उन्हें चाहिए.
मैने पाये वर वीर , राम-लक्ष्मण भ्राता को ,
हस्त द्वय भर-भर , मित्रता ही चाहिए.
112
तत्र वृद्ध सभासद , मिल कर कहते हैं ,
स्वामी यह आप द्वारा , व्यग्रता उचित है.
स्वामी यह आप द्वारा , व्यग्रता उचित है.
आप द्वारा जागरण , व्यर्थ नहीं जाएगा ,
सीता शोध योजना तो , पूर्व से रचित है .
मात्र एक पक्ष हेतु , हनुमान भेजे गये ,
हनुमान आते होंगे , उत्तम पठित है .
यम दिशा व्यग्र हुई , ठोस कोई कारण है ,
चर गये तट तक , दिशा परीक्षित है .
113
सुग्रीव संतुष्ट हो के , सभासद को कहते ,
सीता शोध योजना में ,शीघ्र लगना होगा.
लोक की व्यथा से राम , भली भांति विज्ञ अत्र ,
सैन्य-संघठन अभी , शीघ्र करना होगा.
अन्नागार -शस्त्रागार , पूर्ण करें आप अब ,
साधन - वाहन हमें , शीघ्र साधना होगा.
दिशा-दशा देश-काल , चाहे कोई कैसा भी हो ?
मित्रों ! रामाज्ञानुसार , शीघ्र बढ़ना होगा.
114
चिंतामग्न हो कर के , सभासद चल दिये ,
डग मग नापते हैं , मन निर्विकल्प है .
हनुमान आये नहीं , चिन्तना अनेक होती ,
अग्र गामी कैसे होगा ,शेष जो प्रकल्प है.
सीता शोध हो गया है , प्रतिष्ठा का प्रश्न अब ,
सीता मात्र हल होगा , किया जो संकल्प है.
तभी चर मिल कर , कपि आगमन कहे ,
हर्ष सह दौड़ गये , यही तो विकल्प है.
115
सागर को पार कर , श्रृंग पे उतर कर ,
किलकारी कपि कर , हुंकारी को करता.
हनुमान किलकारी , सुन कर वीर-वृन्द ,
सीता शोध मान कर ,उल्लास वो भरता.
राज राजा सुग्रीव जो , सुनते हैं कपि आया,
हर्ष सह वानर से , अंक भेंट करता.
वानर विनय सह , सीता शोध कह कर ,
दशग्रीव स्वेच्छाचार , दुर्ग-दहन कहता .
116
हनुमान आगमन , प्रसरण शीघ्र हुआ ,
मानो गंध प्रसरण , मंदिर में हो गया .
जैसे-जैसे कपि मिले , आनंद - हिल्लोर बढ़े ,
कपि का मिलन जैसे,उत्सव ही हो गया.
कपि-वृन्द फल खाते , ऋक्ष-वृन्द मधु पीते ,
जैसे कोई व्रत आज , पारायण हो गया.
हर्ष - ध्वनि सुन कर , वन-प्रांत जाग गया ,
मानो गीति काव्य का ही ,शुभारम्भ हो गया.
117
निशा अवसान सह , खग-कुल जाग करे ,
प्रथम किरण सह , प्रकृति रंजित है.
मंद-मंद स्वर सम , कलरव चहुँ ओर,
लगा जैसे साम गीत ,द्विज से स्वरित हैं .
चल पड़े कपि राज , लेकर के हनुमान ,
धीर-वीर सम द्वय , कुमार शोभित हैं.
राम-लक्ष्मण वंदन , सुघ्रीव कर कहते हैं ,
प्रभु! आपकी कृपा से , वज्रांग फलित हैं
118
श्रद्धाबुद्धि हनुमान , सविनय कहते हैं ,
प्रभु के प्रभाव से ही , सीता मिल गयी हैं.
यम-दिशा लंक-देश , रावण-राज यत्र है ,
अशोक-वन-बंदिनी , जानकी हो गयी हैं .
भयकारी उपवन , निशाचरी तंत्र दृढ़ ,
राम विना अबला वो , निर्बल हो गयी हैं .
प्रभु से अनुज सह , उद्धार की याचना है ,
शीघ्र मिलें यह मान , निष्प्राण हो गयी है.
119
हनुमान कथन से , राम गुरु गंभीर हो ,
कहते हैं वानर से , सीता हाल कहिये .
आप मम हितकारी , सखा और सेवक भी ,
अभय समझ कर , हर बात कहिये .
अतुलित बल युक्त , संकट मोचक रह ,
मम सह सुपूजित , वरदायी बनिये.
सीता शोध सुकृत है , रक्ष-तंत्र विकृत है,
अब सीता संवाद को , खुल कर कहिये.
120
तब हनुमान सादर , कंकण को सोंप कहे ,
प्रभु सीता सहिदानी , आप हेतु लाया हूँ .
कंकण को देख प्रभु , वक्ष पे लगाये कहे ,
अरे सखा ! कंकण को , मैं खूब जानता हूँ .
अरे यह कंकण तो , वरमाल सह देखे ,
कर-कंज भिन्न देख , त्रास ही तो पाता हूँ .
सजल नयन हुए , कंठ रुद्ध होता जाता,
प्रिये ! तुम्हे कष्ट में ही , सदा लिप्त पाता हूँ .
121
राघव को त्रस्त देख , लक्ष्मण उद्दीप्त हुए ,
मुख रक्त रवि सम , तत्क्षण ही हो गया .
कर गहे वज्र धनु, अवयव दृढ हुए ,
वर वीर व्याघ्र सम , क्रुद्ध वह हो गया.
प्रभंजन अंतर में , उमड़ चला है पर ,
राम अनुशासन में , स्वर रुद्ध हो गया.
अनुज की प्रतिक्रिया , देख कहते हैं राम ,
कपि! सीता-सन्देश तो , अवरुद्ध हो गया.
122
प्रभु ! सीता उद्धार को , धरा सह चाहती है,
सीता-राम की तरह , लोक भी संत्रस्त है.
स्वत्व जैसे राघव का , रुद्ध किया रावण ने ,
प्रभु वैसे धरा का भी , हर लिया स्वत्व है.
स्वेच्छाचार-कदाचार , प्रोत्साहित रावण से ,
देव - नर - नाग सब , रावण से त्रस्त हैं.
शोषण व अत्याचार , रक्ष-तंत्र मूल में है,
राघव ! विध्वंस तले , सर्व मूल्य ध्वस्त हैं.
123
देव - नर -नाग से ही , कारागार पूर्ण भरे ,
निशाचरी तंत्र ने तो , सभ्यता जलाई है.
अस्त्रागार - शस्त्रागार , यत्र - तत्र मिलते हैं ,
धर्म वहाँ लुप्त प्रभु , हिंसा दिखलाई है.
वधशाला-मधुशाला , लंका की है साज सज्जा ,
तस्करी व उत्कोचन , कर्म ही प्रभावी है.
कारागार भोगती हैं , सीता सम कई नारी ,
कोई भूली - भूली हुई , कोई पगलाई है.
राजीव से दूर हुई ,रावण की वाटिका में ,
सीता सुध खोये बोले , मैं तो डूबी राम जी.
चिड़िया को चुग्गा देती ,पौधों को पानी देती ,
भरमाई सीता कहे , यहाँ देखो राम जी.
भोजन की थाल देख , पानी का वो पात्र देख,
घूंघट को खींच कहे, खाना खाओ राम जी.
खुद की ही छाँव देख ,रोवे हँसे बतियावे,
कभी भाग - भाग कहे, घर चलो राम जी.
125
द्वार खोल-खोल कर, साँसे थाम-थाम कर ,
बाट जोह- जोह कर ,मन को मसोसती .
राम -चित्र रच कर ,पुष्प-पत्ती जड़ कर ,
खूब सोच - सोच कर ,राम को पुकारती .
सीता दिन-दिन भर ,भूखी-प्यासी रह कर ,
रोती राम - राम कर , अंगुली मरोड़ती.
रावण की बगिया में,अबला अकेली हूँ जी ,
कह - कह राम जी को ,सर को वो फोड़ती.
126
कपि कुछ क्षण रुक , हस्त द्वय बाँध कहे ,
प्रभु जहाँ प्रमाद हो , मुझे क्षमा कीजिए .
अतल में कैद हुई , देवराज इन्द्र श्री ,
आप से ही मुक्त हुई , यश दृढ़ कीजिए .
इन्द्र पुत्र काक बन , सीता-वक्ष नोच दिया ,
अक्ष फोड़ दंड दिया , राम याद कीजिए .
मर्यादा को भ्रष्ट कर , रावण तो हर कर ,
जानकी के प्राण लेगा , प्रभु कुछ कीजिए.
127
सीता तत्र आशा लिये , जैसे-तैसे जीती है,
लक्ष्मण सुघ्रीव सह ,राम लंका आयेंगे.
वर वीर वानर व , ऋक्ष यूथ लेकर के ,
वनवासी सैन्य दल , राम लिये आयेंगे.
राम चाप थाम कर , सायक को साध कर,
दशानन -तंत्र पूर्ण , ध्वस्त कर जायेंगे.
सीता सह लोक का भी , राघव उद्धार कर ,
मर्यादा और मूल्य में , प्राण फूँक जायेंगे.
128
कपि कह नत हुए , राम के श्री चरणों में,
राम अंतर हिलता ,थर-थर कर के .
कंज नेत्र आद्र हुए , कोर भरे अश्रु जल,
मानो ज्वार वारि खींचे , हर-हर कर के.
राघव नरसिंह ने , खींच लिया एक सर ,
मानो फणि निकला हो , सर-सर कर के .
सुघ्रीव को कहते हैं , चल पड़ो लंक ओर ,
कहते हैं मानो कोप , भर-भर कर के.
129
सुग्रीव प्रणाम कर , रामाज्ञा स्वीकार कर ,
जाम्बवंत को कहते, ध्वज फहराइये .
अंगद को कह कर , आदेश अंकन कर
यूथपति स्मर कर , दल बुलवाइये .
चर भेज - भेज कर , पथ सब हेर कर ,
अरि के प्रबंध सब , ठीक जान जाइये.
हनुमान अग्र कर , सैन्य संगठन कर ,
साधन को साध कर , कूच कर जाइये .
130
हर दिशा गूँज गयी , नगाड़ों की थाप पर ,
शाखामृग बढ़ गये , कपिराज दुर्ग को.
शाखा-शाखा चलते हैं , कूदते हैं धावते हैं ,
उठा लिया सर पर , हुंकारी से वन को .
भीम काय ऋक्ष वीर , गरज-गरज कर ,
गुहा से निकल कर , ठोकते हैं ताल को.
सीधे-सादे वनवासी , ढोल पीट-पीट कर ,
बढ़ गये लेने हेतु , रावण से स्वत्व को.
131
नद-श्रोत सम यूथ , बढ़ते बढाते हुए ,
कपिराज समक्ष हो , मिलते मिलाते हैं .
कपि-ऋक्ष मिल कर , संत्रास को कहते हैं,
कैसे निशाचर शिशु , खाते हैं खिलाते हैं.
वनवासी वृन्द सब , आतंक को कहते हैं ,
कैसे रक्ष - तंत्र उन्हें , दलते दलाते हैं.
लूट लिया मार दिया, दलन - दमन किया,
शोषक पे दोष वहाँ , लगते लगाते हैं.
132
कपि-ऋक्ष-वनवासी , एकत्रित होते गये ,
मानो कोई ताल वहाँ , बढ़ा चला जाता है.
पीत कपि अगणित , हिलते सुदूर तक ,
जैसे कोई धानी क्षेत्र , झूम-झूम जाता है.
श्याम ऋक्ष भीम काय , गरज के लरजता ,
मानो घन मंडल ही , गर्जन मचाता है.
शत कोटि वनवासी , लय सह झूमते हैं,
जलधि में वायु जैसे , तरंग उठाता है.
133
अतुलित सैन्य-दल , जाम्बवंत देख कर ,
सुग्रीव समीप जा के , निवेदन करते .
कपिराज आदेश से , यूथपति पहुंचे हैं ,
अब अग्र आदेश की , प्रार्थना वे करते.
कपि-ऋक्ष वृन्द सह , वनवासी पहुंचे हैं ,
राम लोक नायक हैं , उद्घोष वे करते .
सुग्रीव-लक्ष्मण सह , रामाज्ञा की कामना में ,
कपि-ऋक्ष वनवासी , जयघोष करते .
134
जाम्बवंत कथन का , मंतव्य समझ कर ,
कपिराज चल दिये , राघव से मिलने .
अग्रगामी सुग्रीव हो , पश्च हुए जाम्बवंत ,
हनुमान साथ लिये , संवाद को करने .
यूथपति -सेनाधिप , हो गये हैं अनुगामी ,
अनुभव-कौशल को , राजीव से कहने.
देखा राम-लक्ष्मण ने , सुग्रीव सदल आये ,
भ्राता द्वय बढ़ गये , सुहृद से मिलने.
135
सुग्रीव-लक्ष्मण सह, राम श्रृंग शोभते,
ऋक्ष श्रेष्ठ जाम्बवंत , संवाद को कहते .
प्रभु ! सैन्य दल अब , सज्जित है संगठित ,
यूथपति -सेनाधिप , प्रस्थान को चाहते.
अंगद-ऋषभ यहाँ , हनुमान - वेगदर्शी ,
गंधमादन - सुषेण , दर्शन को चाहते.
दो-दो हाथ रावण से , तत्पर हैं करने को .
सेनापति नील अत्र , शुभाशीष चाहते.
136
सज्जन-सरल जन , आगत विरोध चिंत ,
कार्य की प्रणाली में , डूबे चले जाते हैं.
संवाद को सुन कर , चिंता मग्न हुए राम ,
वदन गंभीर हुआ , भाव आते-जाते हैं.
आरोहित भाव हो के , पतन को चले जाते ,
जैसे घन उठ-उठ , नत होते जाते हैं .
सीता सह लोकोद्धार , प्रश्न पर विचारते ,
जैसे अलि मधु पर , मंडराते जाते हैं .
137
चिंतामग्न राम देख , सुग्रीव यों कहते हैं,
प्रभु ! सीता-उद्धार में , देर नहीं कीजिए .
आप के आदेश में ही , सब वीर बंधे हुए ,
हनुमान-अंगद को , मर्यादा में मानिए .
ऋषभ-सुषेण हो या , चाहे गंधमादन हो ,
जाम्बवंत-नील में से , कोई आप चुनिए .
रावण विध्वंश हेतु , सीता के उद्धार हेतु ,
पर्याप्त है एक वीर , आदेश तो कीजिए .
138
राम कहे सुग्रीव से , मित्र वर क्या कहूं ?
मैं भी शीघ्र चाहता हूँ , सीता के उद्धार को .
मूल्य सब तिरोहित , हो गये व्यवहार से ,
मानो बन कपोत चले , गगन विहार को .
जानता हूँ राघव से , लोक को अपेक्षा बहु ,
इस हेतु चाहता हूँ , रावण संहार को .
मध्य में है प्रसरित , पारावार भयंकर ,
घेर लेती हताशाएं , करता विचार को .
139
करबद्ध सुग्रीव हो , कहते हैं राघव से ,
शोक ग्रस्त मन सदा , बुद्धि कुंद करता .
शोक और विषाद तो , प्रकल्प में बाधक हैं ,
अरि भाव युगल तो , कर्म भ्रष्ट करता .
हताशा है व्याली सम , बारम्बार दंश मारे ,
गज सम आत्मबल , पल-पल मरता.
आशा व उल्लास लिये , प्रभु ! आगे बढ़ें आप ,
पाता है विजय वही , उत्साह से बढ़ता.
140
राम ! अपनी क्षमता , अल्पतर न मानिए ,
ब्रह्म-विद्या से सम्पन्न , अनुपम वीर हैं.
पारावार विस्तृत है , भयंकर मान लिया ,
तेज आगे तुच्छ वह , अतुलित वीर हैं.
रावण से निशाचर, कौतुक में मारे कई ,
कोई नहीं प्रतिस्पर्धी , अद्वितीय वीर हैं .
अनल-अनिल विद्या , वारि विद्या में प्रबल ,
अष्ट-सिद्धि से सायुज्य , सर्वोपरि वीर हैं.
141
प्रभु ! बहु शास्त्र विज्ञ , तीक्ष्ण बुद्धि से सायुज्य ,
वारिधि लंघन हेतु , साधन को सोचिए .
शोक और हताशा को , शीघ्र त्याग स्वस्थ हो के ,
उत्साह संचार कर , प्रेरणा को दीजिए .
लक्ष्मण अंगद अत्र , हनुमान ऋषभ से ,
नील सह कई वीर , ओज भर दीजिए .
लंका तक जाने हेतु , सेतु के निर्माण हेतु ,
वर वीर सब आये , मंत्रणा को कीजिए .
142
सुग्रीव उद्बोधन से , राम स्वस्थ हो के कहे ,
कठिन कराल कार्य , तप से संभव है.
वारिधि लंघन हेतु , वाहिनी वहन हेतु ,
सेतु का सृजन अत्र , मुझ से संभव है.
आप सब निश्चिंत हो , अपेक्षित को कहिए ,
मम तप साधना से , साधन संभव है.
हनुमान आप कहें , लंका परिचय हमें ,
तभी रण नीति और , योजना संभव है.
143
हनुमान विनत हो , कहते हैं सभा मध्य ,
लंका बनावट को मैं , देख कर आया हूँ .
पीन परकोट तत्र , है द्वार चत्वारि यत्र ,
जटिल है यंत्र-तंत्र , ज्ञात कर आया हूँ.
वारि युक्त खाई जहाँ , भयंकर जलचर ,
पद - पद काल देख , बच कर आया हूँ .
वर वीर युक्त दल , सुविस्तृत है वाहिनी
रावण की क्षमता को , तोल कर आया हूँ .
144
सदन बने हुए हैं , पीन परकोट पर ,
परकोट पालक जो ,निशाचर रहते .
चत्वारि द्वार पर हैं , काष्ठ सेतु बने हुए ,
वारि युक्त खाई पर , आच्छादित रहते.
कई-कई यंत्र वहाँ , स्वतः संचालित हैं ,
अरि और मित्र पर , तीक्ष्ण दृष्टि रखते.
यत्र-तत्र सैन्य-दल , रक्षण में लगे हुए ,
आगमन - निर्गमन , उचित परखते .
145
नद-नाल कई-कई , सघन है वन वहाँ ,
दुर्गम भूधर वहाँ , गमन कठिन जो .
गह्वर हैं खड्ड जहाँ , दुर्गम है घाट वहाँ ,
रवि-चन्द्र दिखे नहीं , अन्धकार राज जो.
है भूल भूलैया अति ,विभ्रम ही विभ्रम है ,
दिशा ज्ञान होता नहीं , निशाचरी तंत्र जो.
छिपे हुए निशाचर , छल करे घात करे ,
कोई नहीं बच पाए , रावण का राज जो.
146
एक उच्च भू धर पे , रावण का दुर्ग बना ,
स्वर्ण दुर्ग से सज्जित , स्वर्ण नगरी वहाँ ,
स्वर्ण नगरी बसी है , भूधर के चहुँ ओर ,
सुन्दर सदन कई , नभ छूते हैं वहाँ ,
विस्तृत है राज पथ , विस्तृत है वीथियाँ ,
गज-अश्व की सवारी , रथ फिरते वहाँ .
स्वेच्छाचारी रक्ष -वृन्द , मकारी में रत रह ,
प्रकृति विरुद्ध कर , भोग करते वहाँ .
147
प्रभु ! स्वर्ण-मणियों से , हर एक रचना है,
स्वर्ण-मणि मिल कर , आँखे चुंधियाती है.
पद -पद मधुशाला , अगणित वधशाला ,
स्वेच्छाचार देख कर , आँखें नम होती है .
रक्षण के हेतु वहाँ , ठोर -ठोर सैन्य दल ,
शस्त्रागार कई जान , श्वाँस रुक जाती है.
कारगार भरे हुए , देव नर नाग से ही ,
देख उनका शोषण , करुणा ही आती है.
148
द्वार - द्वार पालक हैं , वर वीर मल्ल यत्र ,
हर एक द्वारपाल , सजग हो रहता.
दश दिशा शिविर में , सुदृढ़ है सैन्य-दल ,
कुशल है युद्ध हेतु , अभ्यासी हो रहता.
युद्ध हेतु दशग्रीव , उत्सुक सदैव रह ,
नव-नव व्यूह रच , कौशल को रचता .
जपी-तपी सिद्ध वह , रणधीर सुविज्ञ है ,
हर एक वर वीर , रावण पे मरता .
149
रावण तनय सर्व , श्रेष्ठतम सुभट हैं,
वर वीर इन्द्रजीत , दर्शनीय वीर है .
दशानन सहोदर , एक-एक वर वीर ,
भीमकाय कुम्भकर्ण , भयंकर वीर है.
पार्षद व सभासद , दूर द्रष्टा नीतिज्ञ हैं,
श्रद्धाबुद्धि विभीषण , बुद्धिमंत वीर हैं.
दशानन रणधीर , सुदक्ष राज-कार्य में ,
हठबुद्धि पविकर्ण , अहंकारी वीर है.
150
अतुलित संपदा का , स्वामी दशग्रीव जाना ,
प्रभु ! आप सम वह , सतोगुणी नहीं है.
वर वीर युक्त वह , सुवाहिनी संजोता है,
प्रभु ! लोकवाहिनी सी , वाहिनी ही नहीं है.
इन्द्रजीत - कुम्भकर्ण , भयंकर निशाचर ,
प्रभु ! भ्राता - सुग्रीव से , हितकारी नहीं है.
जपी - तपी वीर वह , दक्ष रणधीर वह ,
प्रभु ! सीतापति सम , अधिकारी नहीं है.
151
प्रभु ! नम्र निवेदन , आंजनेय का सुनिए ,
लोकवाहिनी को अब , मुक्त कर दीजिए.
कगारों के मध्य बंधी , नदी सम वाहिनी है ,
उमड़ - गुमड रही , फैल जाने दीजिए .
आप लोकनायक हैं , लोक आप ही के साथ ,
अग्रसर हो कर के , दिशा अब दीजिए .
हर - हर कर जैसे , नदी लील जाती सब ,
रावण से शोषकों को , लील जाने दीजिए.
152
रावण की लंका सारी , वारिधि के मध्य बसी ,
प्रभु ! लंका नगरी को , ध्वस्त कर आया हूँ .
रावण के पास कई , सुभट हैं निशाचर,
प्रभु ! कई वर वीर , मार कर आया हूँ .
रावण के ह्रदय में , परिजन-पार्षद में ,
निशाचर - समूह में , शंक भर आया हूँ.
रावण का स्वर्ण दुर्ग , स्वर्ण नगरी सहित ,
धू - धू कर होली सम , दह कर आया हूँ.
153
निवेदन कर कपि , चरण में नत हुए ,
राजीव ने उठ कर , वक्ष पे लगा लिया .
लक्ष्मण ने आगे बढ़ , कपि कर द्वय गह ,
साधु-साधु कह कर , अक्ष पे लगा लिया.
सुग्रीव ने मोद भर , राज-रत्न कह कर ,
वानर को दक्षिण में , भुज पे लगा लिया.
अंगद ने आगे बढ़ ,राम जयघोष कर ,
ले कर के वानर को , पृष्ठ पे लगा लिया.
154
सुग्रीव संकेत कर , शांत कर सभासद ,
राघव से कहते हैं , प्रभु ! बढ़ जाइए .
वीर हनुमान अद्य , निशाचर मार आये ,
आत्मबल हीन रक्ष , राम चाँप जाइए .
स्वर्ण रक्ष नगरी , दुर्ग सह दह आये ,
रक्ष-तंत्र भ्रष्ट वहाँ , पूर्ण फूँक जाइए .
सीता सह लोकोद्धार , समय उचित जान ,
सुर्ख हुए लोह पर , चोट कर जाइए .
155
उत्साह सम्पन्न हो के , सीतापति कह चले ,
हे सुहृद सुग्रीव जी , मंत्रणा उचित है.
नभ मध्य रवि चढ़ , सचर हैं धर्म हेतु
तमस मर्दन करे , प्रेरणा उचित है .
उचित मध्याह्न अभी , विजय मुहूर्त श्रेष्ठ ,
चर लग्न चल रहा , गमन उचित है .
शुभ में विलम्ब ना हो , गति में विरोध ना हो ,
रावण का वध तय , प्रस्थान उचित है.
156
वाहिनी के अग्र-अग्र, सेनापति नील चलें ,
सेनापति तय करें ,वाहिनी के मार्ग को .
मार्ग वही उत्तम है , सुधा सम नीर मिले ,
छाँव फल मधु युक्त , तय करें मार्ग को .
उचित विस्तार लिए , सहज स्वरूप लिए ,
मुक्त हो चयन करें , निरापद मार्ग को .
शिविर लगाने हेतु , रजनी बिताने हेतु ,
सरल भू भाग मिले , बढ़ चलें मार्ग को
157
वाहिनी का अग्र भाग , नील से रक्षित रहे ,
नील अनुचर सब , मार्ग को परख लें .
गिरी-गह्वर-गुहा में , लघु वन प्रांत में भी ,
अरि के षड्यंत्र होंगे , उचित परख लें .
सुधा सम नीर श्रोत , गरल से भ्रष्ट होंगे ,
वाहिनी के पान पूर्व ,प्राण को परख लें.
कपि वीर नील सह , मार्ग का सृजन करें ,
मार्ग में आगत सेतु , ठोक के परख लें.
158
ऋषभ दाहिनें रहें , वाम गंधमादन हों,
वाहिनी रक्षित रह , मध्य बढ़ी जाएगी .
वीर द्वय सजग हो , पार्श्व द्वय संभालेंगे ,
अरि घात लिए होगा , बची चली जाएगी .
मध्य भाग वाहिनी में , मया सह लक्ष्मण से ,
हनुमान - अंगद से , प्रेरणा दी जाएगी .
वाहिनी के पश्च भाग , जाम्बवंत सुषेण हो ,
वेगदर्शी वानर हो , दृढ़ होती जाएगी .
159
वनवासी बन्धु सब , मया सह मध्य चल,
प्रयाण गीत गान से , वाहिनी को गति दें.
पञ्च तत्त्व देख कर , प्रकृति समझ कर ,
ताप-घात जान कर , वाहिनी को यति दें.
फल-फूल-मूल के , अन्न और औषध के ,
भण्डार - प्रबंध कर , वाहिनी को पुष्टि दें.
यत्र-तत्र फैल कर , घायल सम्हाल कर ,
निदान - उपचार से , वाहिनी को वृद्धि दे.
160
सुग्रीव सन्मुख हो के , कहते हैं सीतापति ,
रुज-ग्रस्त वृद्ध वीर , यहीं रुक जायेंगे .
पथ्य-लाभ लेते हुए , जनपद-बाल देखें ,
देश हित भाव भर , यहीं सेवा पायेंगे .
वानर प्रमादी बहु , चंचल है चित्त वाही ,
प्रमाद को हम कभी , सह नहीं पायेंगे.
मिलेंगे नगर-ग्राम , वन-उपवन-ताल ,
बिना भ्रष्ट किये सब , आगे बढ़ पायेंगे.
161
राम शंख फूंकते हैं , नगाड़ों की गूँज उठी ,
वाहिनी के बढ़ते ही,दिक्पाल कांपते हैं.
तासे और ढोल बजे , तुरही ने तान मारी ,
रज - कण घन बन , नभ भर जाते हैं .
चंग और झांझ बजे , बिगुल भी बज पड़ी ,
सीना ताने वीर देख , नग डोल जाते हैं.
उदधि उबल जाए , धक - धक धरा कांपे ,
राम जय घोषकर , वीर बढ़ जाते हैं.
162
वीर-यूथ बढ़ कर , गाते हैं प्रयाण गीत ,
लोक-नद बढ़ता है , अब इसे राह दो .
शोषण -विरुद्ध सब, जाति वर्ण भूत एक,
हर - हर कर बढे , अब इसे राह दो .
लोक-शक्ति भवानी है , देववृत्ति मांगती है .
असुर सुधर जाओ , अब इसे राह दो.
तृण सब मिलकर , रज्जू बन गज बांधे,
संगठन में शक्ति है, अब इसे राह दो.
163
शोषण व अत्याचार , खूब लोक में हुए हैं,
अब नहीं होने देंगे , मुक्ति अधिकार है.
भौतिकता की चाह में , निर्मम हो मूल्य चांपे,
हमें मूल्य चाहिए ही , मुक्ति अधिकार है.
अर्थवृत्ति प्रिय जिन्हें , अतीव षड्यंत्र रचे ,
उनके षड्यंत्रों से ही , मुक्ति अधिकार है.
लोक आज पीड़ित है , अर्थ जन मूल्य रुद्ध ,
रावण की काराओं से , मुक्ति अधिकार है.
164
सीता सह लोक-मुक्ति , राम करने आये हैं ,
चलो साथी हम सब , रणोत्सव मनाते हैं.
नित्य मृत्यु भय ग्रस्त , राम से अभय मिला .
रण भेरी बज चली , रणोत्सव मनाते हैं.
धूलि से खिले हैं हम , धूलि ही बनेंगे हम ,
सनातन सत्य लिए, रणोत्सव मनाते हैं.
परिवर्तन हेतु ही , राम शंख नाद करे ,
क्रान्ति का आह्वान हुआ , रणोत्सव मनाते हैं.
165
प्रयाण गीत गान से , वर वीर वाहिनी के ,
क्षिप्रता से बढ़े जैसे , दावानल बढ़ते .
कपि-वृन्द उत्साह से, कूर्दन-धावन करे ,
विटप उखड़ते हैं , भूधर भी धंसते .
बढ़ते विराट ऋक्ष , वक्ष पीट-पीट कर ,
पुष्ट गात्र घर्षण से , शैल भी लुढ़कते .
भोले-भाले वनवासी , राम सह मोद भरे,
राम-लक्ष्मण-सुग्रीव ,उत्साह से भरते.
166
आगे बढ़ एक वीर , देखता है राह शुद्ध ,
तब वह शेष वृन्द , बुलाता-बढाता है .
वृन्द एक पहुँच के, अन्य को बुलाता है,
अग्र गामी होने हेतु ,देखता-दिखाता है.
वनवासी वृंद दोड़, श्लथ वीर संभालते,
परिचर्या - उपचार , करता-कराता है .
राम जय घोष लगा , वाहिनी सतत चले ,
वर वीर ओज भर , जुड़ता-जुड़ाता है.
167
निर्बल समझ कर , जब धूलि रोंदी जाती ,
चरण से चाँपी धूलि , मौलि चढ़ जाती है .
सुरभि सरल जान , पुच्छ जब ऐठीं जाती,
सुरभि सरल तब , श्रृंग लिए आती है.
लोक को सहज जान,जब गति रोकी जाती ,
बन के प्रलय रूप , ध्वंस कर जाती है .
सीता हर रावण ने , काल को ही न्योत दिया ,
काल रूप वाहिनी जो,लंका चली जाती है.
168
राह में सघन वन , कई - कई वृक्ष मिले ,
दिवस में तम का भी,कई बार राज है.
आम्र व अशोक वृक्ष , पीपल व पाकड़ हैं,
बरगद बबूल नीम , फलित अथाह है.
तीव्र नद धार मिले,विस्तृत तडाग मिले,
झरनों की झरन में , अवरुद्ध राह है.
ऊभ -चूभ मार्ग हो या, सरल हो मार्ग चाहे,
बढे-चले जाते सब , राजा राम साथ है.
169
वारिधि के तट पर , पहुंची शीघ्र वाहिनी ,
मानो चाहता है नद , उदधि मिलन को.
वर वीर फैल गए , यत्र तत्र तट पर ,
मानो चाहते मराल , मुक्ता के चयन को .
श्रम परिहार हेतु , स्नान करते हैं वीर ,
मानो चाहते हैं देव , सागर मंथन को .
चंचल वारिधि देख , राम अति गंभीर हैं ,
मानो चाहते हैं अद्य , सागर लंघन को .
170
राज हंस देख कर , राम अनुज से कहे ,
युगल को साथ देख , सीता याद आती है .
अग्र गामी हंस होता , अनुगामी हंसिनी है ,
हंसिनी को देख-देख , सीता याद आती है .
वारिधि तरंगों में है , डोलता युगल यह ,
राम का भी त्रास यही,सीता याद आती है.
इस कूल हम बैठे , उस कूल वियोगिनी,
उदधि चुनौती देख ,सीता याद आती है .
171
प्रिय से मिलन हेतु , जैसे -जैसे राह कटे ,
सदाशा में वृद्धि होती , प्रकृति प्रभाव है .
पर मेरे सह कैसे , प्रकृति विरुद्ध होती ,
मुझे मिले हताशा क्या,नेह परिणाम है.
सीता अति संकट में , यह जान मन मेरा ,
झूले सा यह झूलता , चंचल स्वभाव है.
मन को भी साधता हूँ , वारिधि को बांधता हूँ ,
हाय ! सखा दहता हूँ , प्रतिशोध भाव है.
172
चाहता हूँ सखा मेरे , सीता ले-ले शक्ति रूप
महिषासुर सम ही , रावण को मार दे .
चाहता हूँ भाई मेरे , सीता ले प्रचंड रूप ,
चंड - मुंड सम ही वो , रावण को काट दे .
चाहता हूँ वीर मेरे , सीता मम शिखी ले के ,
शुम्भ सम रावण के , वक्ष को ही पाट दे .
चाहता हूँ लाल मेरे , सीता सिंह वाहिनी हो ,
निशुम्भ सा निशाचरी, तंत्र को उखाड़ दे .
173
राम का वदन तप , रवि सम रक्त हुआ ,
मानो क्रोध अनल में,स्वर्ण थाल तपता.
राम ओज रूप देख , हर्षित अनुज हुए ,
मानो रवि चढ़ा देख , पंकज विकसता .
संध्या-वंदन समीप जान , कूल ओर बढे राम ,
मानो गज सर देख , निर्भय हो धंसता.
प्राण साध अर्घ्य दिये , जल में तरंग उठी,
मानो मन्त्र सुनकर , वारिधि दहलता.
174
राम का वाहिनी सह , आगमन सुनकर ,
विचलित दशग्रीव , चिन्तना में डूबता.
सदन में यत्र -तत्र , भ्रमण वो करता है,
कभी जड़ हो कर के,शून्य में ही तकता,
विकृत आनन कर , नेत्र निमीलन कर ,
स्वगत भाषण कर , उच्छवास तजता.
भ्रमर में मानो कोई , जहाज उलझ कर ,
वर्तुल भ्रमण कर , दायें - बाएं झूलता.
175
झूलते जहाज पर , आरोहित जन-वृन्द ,
विचलित होते जैसे , रावण को मानिए.
यत्र-तत्र धावते हैं , त्राहि-त्राहि करते हैं ,
प्राण भय ढोते जैसे , लंकेश को मानिए .
किये अघ याद करे , मुक्ति मन्त्र जाप करे ,
काल ग्रास होते जैसे,रामारि को मानिए .
तृण सम जन को भी , सहायक मान कर ,
लगाते पुकार जैसे , यज्ञारि को मानिए .
176
राज-राजा दशग्रीव , चिन्तना में धंस चले ,
मानो मृग शावक को , पंक खींच लेता है .
चिन्तना से शून्य कार्य , जड़ करता है अद्य ,
सिंह देख शशक ज्यों , ठगा रह जाता है .
करणीय कार्य अब , दृढ नहीं होते देख ,
असहाय हो कर के , राज्यादेश देता है.
पा कर के राज्यादेश , भागे चले सभासद ,
मानो रज्जु बंधे पशु , स्वामी खींच लेता है.
177
मंदोदरी विहार से , लौट रही सदन में ,
खोया-खोया डूबा हुआ , देखती है नृप को .
चिंता-मग्न हो कर के , रावण गवाक्ष-पार्श्व ,
अंतर टटोलता या , देखता नगर को .
भर आये कंज नेत्र , उमड़ा ह्रदय घन ,
भृत्य निर्गमन किये , रानी सजी पार्श्व को.
कोमल संस्पर्श किया , वाणी-अभिषेक किया ,
वैद्य देना चाहता ज्यों , पथ्य रुज ग्रस्त को.
178
प्रिय ! हम जानते हैं , सोच रहे वाहिनी को,
सीता हेतु राम आये , सीता सौंप दीजिए.
सीता शोध करने को , कपि सत्य सह आया,
तब सत्य चांप दिया , दंश आज देखिए .
राम लोक-वाहिनी ले, आगये हैं कूल पर ,
सत्य तिस पर साथ , अजेय ही मानिए .
देख रहे प्रिय आप , देश भय-ग्रस्त हुआ ,
भय हितकारी नहीं , कारा मात्र मानिए .
179
प्रिय आप अंतर की , हित वाणी सुनिए ,
अंतर ने कह दिया , सीता मुक्त कीजिए .
अंतर में उठ कर , सबल हो झंझावात,
मानस को मथ दिया , सीता मुक्त कीजिए .
विचलित अंतर में , संदेह उपज कर ,
विश्वास को क्षीण किया , सीता मुक्त कीजिए .
प्रासाद के बाहर भी , प्रिय ! देश आप सम ,
विचलित कर दिया , सीता मुक्त कीजिए .
180
जिस देश का है नृप , विचलित-विलोड़ित ,
उस देश की प्रजा को , शांति कहाँ मिलती.
देख लिया ध्वंस काल , जिस देश की प्रजा ने ,
उस देश की प्रजा को , कृति कहाँ मिलती .
देख लिया प्रतिकार , जिस देश की प्रजा ने ,
उस देश की प्रजा को , प्रीति कहाँ मिलती .
देख लिया प्राण भय ,जिस देश की प्रजा ने ,
उस देश की प्रजा को , सृष्टि कहाँ मिलती.
181
जिस देश पर नहीं , दृष्टि का वरद हस्त ,
उस देश का स्वरूप , निश्चित ही खोना है.
जिस देश पर नहीं , रीती का वरद हस्त ,
उस देश का अभय , निश्चित ही बोना है.
जिस देश पर नहीं , नीति का वरद हस्त ,
उस देश का गठन , छिन्न-भिन्न होना है.
जिस देश पर नहीं , शांति का वरद हस्त ,
वह देश खंड - खंड , निश्चित ही होना है .
182
ऐसे देश का निवासी , खोया-खोया रहता है ,
प्रच्छन्न वह्नि चूड़ में , दहता ही रहता .
प्राण भय से ग्रसित , शंकित सदा ही रह ,
सुधा सम संबंधों में , गरल ही भरता .
मन भ्रमर सा भ्रमे , मति साथ छोड़ती है ,
रुग्ण वृक्ष सम फल , भार मान तजता.
हितकारी बाते वहाँ , अहित सी लगती ,
प्राण प्यारे जन में भी,अरि रूप लगता.
183
प्रिय ! एक बात अब , कहूँ उसे मान जाओ ,
सीता सती स्वरूपा है , अबला न मानिए .
हर लाये आप उसे , बिना ही विचार के ,
परदारा व्याली सम , काल रूप जानिए .
सीता मात्र राघव की , राघव को सौंप कर ,
सादर- विनय सह , क्षमा मांग जाइए .
दमन-दलन त्याग , मकार व राग त्याग ,
संत भाव ला कर के , लोक राज लाइए .
184
मंदोदरी कह कर , रावण के वक्ष पर ,
भाल रख कर श्रम ,परिहार चाहती.
हस्त भाल पर धर ,रावण विलग करे,
पर रानी लता सम,अवलम्ब चाहती .
रावण का वक्ष तब,धड़क-धड़क कर,
वह कुछ कह रहा,सुनना वो चाहती.
समझ न सकी जब,वक्ष की धड़क को ,
विलग वो हो कर के,नृप को निहारती.
185
रावण विहंस कर,कुलीना को कह चला,
अरे प्रिये ! भय तव , नेह परिणाम जो.
कथन मधुर अति , शीतल व तरल है,
ललना स्वभाव वश,ललित-ललाम जो .
भय आप त्याग कर,रक्ष इतिहास देखो,
देव नर नाग पर , जय अभिराम जो.
काल सम खड्ग मम ,मृत्यु सम धार सह,
देखी कई वाहिनी को , देखे कई राम जो.
186
देवी ! हम चाहते हैं ,राम का निदान अद्य,
इस हेतु चिन्तना में,हम हैं लगे हुए.
आलोडन-विलोडन , हम नहीं मानते हैं ,
चित्त एक विषय पे , हम हैं धरे हुए .
सीता हर कर लाये , मान का विषय यह ,
कौन कह सकता है , हम हैं डरे हुए .
सभा का समय हुआ , अब हम चलते हैं ,
रण हेतु उत्साह से , हम हैं भरे हुए .
187
सभा मध्य वर वीर , पहुँच -पहुँच कर ,
रावण को झुक-झुक,सम्मान दर्शाता है .
स्वर्ण-मणि से शोभित , आसन को पा कर के,
निशाचर वर वीर , गर्व भर जाता है .
देख लिया रावण ने , आ गये उचित वीर ,
हस्त ऊर्ध्व में उठा के, संवाद बनाता है .
विक ट समय अब , लंका पर छा गया है ,
समाधान हेतु वह , मंत्रणा कराता है.
188
एक कपि हनुमान , लंका में निश्शंक हो के,
भ्रमण वो कर-कर , सब देख जाता है .
भ्रष्ट कर के व्यवस्था,उपवन में पहुँच ,
रक्ष वीर मार-मार,सीता देख जाता है .
राम सहिदानी दे के,सीता का सन्देश ले के,
प्राण प्यारी लंका को वो,दहे चला जाता है.
हो कर के स्वच्छंद वो,करता है विध्वंश वो .
स्वर्ण चैत्य प्रासाद को , ढूह कर जाता है .
189
कपि-ऋक्ष-वनवासी,ले कर के अब राम ,
जलधि के तट तक , सहज में आ गए .
बलशाली कपि वीर , भीमकाय ऋक्ष वीर,
श्रमशील वनवासी , घन सम आ गए.
लक्ष्मण है वह्नि सम, सुग्रीव है क्षपा सम,
अंगद भू-कंप सम , वर वीर आ गए .
जाम्बवंत-हनुमान , नल-नील-सुषेण जो,
राम ज्वालामुखी सह,विस्फोट से आ गए.
190
कई-कई युक्ति कर ,शीघ्र सेतु बाँध कर ,
वारिधि को पार कर,लंका चढ़ आयेंगे.
कपि मात्र एक आया ,छिन्न-भिन्न कर गया,
अब राम लोक सह , रोक नहीं पायेंगे.
समय है अभी शेष , मन्त्र चाहिए विशेष ,
एक मत होने पर , सही दिशा जायेंगे .
स्वर्ण लंका रावण के , शोणित से सिंची हुई ,
प्रश्न विकराल खडा , कैसे बचा पायेंगे?
191
तभी निशाचर वीर , एक साथ बोल पड़े ,
राज राजा दशग्रीव , रणधीर आप हैं.
देव नर नाग कोई , अद्य हम सम नहीं ,
देवराज इन्द्र भी तो , मर्दित है आप से.
अतल व वितल में , निशाचर तंत्र रहा ,
निशाचर हैं अधीन , मात्र अद्य आप के.
राम वाहिनी के सह , आये हैं वारिधि तक ,
देख लेंगे हम मिल , विषय न आप के.
192
भोगवतीपुरी अद्य , रखती है रण-चिह्न ,
दशग्रीव-नाग युद्ध , किसने भुलाया है.
कैलास-शिखर जहां, कुबेर का गढ़ वहां,
युद्ध छेड़ रावण से , लंका को गंवाया है.
वर वीर रावण से ,मय तक काँप गया ,
दे कर के आत्मजा को,जामाता बनाया है.
सहोदरा कुम्भीनसी , पति मधु दानव जो ,
रावण से रण चाह , मर्दन कराया है .
193
खोया-खोया रावण को , देख निशाचर कहे ,
दश दिशा जयघोष , आप के ही गूंजते.
वासुकी-तक्षक हारे , शंख-जटी नाग हारे ,
रावण का नाम सुन , अचला को चूमते .
वरुण के पुत्र सारे , रावण की असि देख ,
बावरे वो हो कर के , यत्र - तत्र घूमते .
यमराज सैन्य - दल , युद्ध में कुचल कर ,
काल आप रोक कर ,स्वच्छंद हो झूमते .
194
कई - कई ऋषि हुए , जपी - तपी सिद्ध हुए ,
रावण सा साधक तो , कृपा कर कह दें .
देवाधिदेव शिव के , वर से सायुज्य हो के ,
रावण सा सम कौन , कृपा कर कह दें .
अगणित वीर यहाँ , तिस पर इन्द्रजीत ,
इन्द्रजीत सम अन्य ,कृपा कर कह दें .
इन्द्र मुक्ति हेतु ब्रह्मा , आ कर के कहते हैं ,
रावण सा यश कहाँ , कृपा कर कह दें .
195
कोई वीर ओज भर , सभा मध्य उठ कहे ,
नृप आप निश्चिंत हो , वारुणी को पीजिए .
अभी इसी काल जाऊं , दोनों भ्राता मार आऊं ,
सहज है मेरे लिए , कौशल को देखिए .
अन्य वीर क्रोध भर , तीक्ष्ण शस्त्र धर कहे,
राम वाहिनी को अब , दण्डित ही मानिए .
लक्ष्मण सुग्रीव सह , राम का दमन करूँ ,
वाहिनी चर्वण करूँ , सुख कर सोइए .
196
इसी मध्य वीरमणि , विभीषण आ कर के ,
रावण-सम्मान किया ,उचित प्रणाम से .
ऊर्ध्व हस्त तान कर , नृप जयघोष कर ,
रावण-प्रसन्न किया , उचित सम्मान से .
नृप मन मोद भर , आसन संकेत किया ,
अनुज ने आसन को , लिया व्यवहार से .
रावण भी अनुज को , देख रहा एक दृष्टि ,
मिलन वो चाहे मानो , अनुज विचार से .
197
आसन को पा कर के , बैठ गए विभीषण ,
तन से अचल लगे , सचल अन्तर था .
रावण अनुज देखे , अनुज रावण देखे ,
रावण सभा के मध्य , मोन ही प्रमुख था .
देख कर विभीषण , रक्ष वर चुप हुए ,
जैसे छिपे तारागण , रवि का प्रहर था .
उचित समय जान , विभीषण बोल पड़े ,
वाणी तो सरल रही , संवाद प्रखर था .
198
वाहिनी का आगमन , चिंता का विषय है ,
वाहिनी जो चढ़ आई ,कारण को खोजिए .
सीता का हरण किया , रामदूत रिक्त गया ,
रामाज्ञा अवहेलना , कारण को मानिए .
कार्य के निरोध हेतु , कारण निरोध करें ,
सीता सौंप क्षमा मांगे , भय मुक्त होइए .
युद्ध कोई हल नहीं , विवाद उचित नहीं ,
राघव अतुल्य वीर , कौतुक न जानिए .
199
भीषण प्रहस्त रक्ष ,सरोष वो बोल पड़ा,
हम सब यहाँ बैठे , संशय क्यों पालते ?
नर नाग किन्नर हो , छलि-बलि देव चाहे,
दधि सम मथ दिए , ये भी मथ डालते .
अगणित वीर यहाँ , इन्द्रजीत वीर यहाँ ,
रावण सा नृप यहाँ , राम को न जानते .
विभीषण आप जैसा , भयभीत नहीं कोई ,
रावण अनुज हो के , भय - भ्रम पालते .
200
अनुचित कथन से , विभीषण चीख पड़े ,
गंभीर गुहा से जैसे , केसरी गरजता .
तुम जैसे ही प्रहस्त , पार्षद भरे हुए हैं ,
आत्ममुग्ध रहे सदा , नृप भी बहलता .
विनय स्वभाव मेरा , पानी की तरह मानो ,
पानी सदा उग्र होता , लेकर तरलता .
राम सम तुम नहीं , तुम सम राम नहीं ,
राम-धनु प्रत्यंचा से , त्रैलोक्य दहलता .
201
आत्ममुग्धता से रक्ष , स्वेच्छाचारी हो गए हैं ,
मर्यादित कर्म नहीं , तार-तार सत्य है .
मार दिया सृजन को , पाल लिया विध्वंस को ,
हरण-दलन मुख्य , तार-तार मूल्य है,
मन के ही क्रीत रहे , भोग में ही लीन रहे ,
संविधान सोया रहा , तार-तार तन्त्र है .
स्वार्थ यहां मुख्य बना, परमार्थ गौण बना ,
दिशाहीन मंत्रणा है , तार-तार मन्त्र है.
202
विभीषण के सम्मुख , इन्द्रजीत कह पड़ा ,
कहने से पूर्व तात , विचार तो कीजिए .
आप रक्ष वंश के ही , रक्ष वंश आप का ही ,
रक्ष वृत्ति के विरुद्ध , भाषण न कीजिए .
नृप श्रेष्ठ रावण के , अनुज ही बने रहें ,
उन की कृपा से आप , सुख से विचरिए.
आप सम भीरु कोई , नहीं रक्ष बाल तक .
भय अति सालता तो , बाल-संग रहिए .
203
इन्द्रजीत कथन से , निशाचर हर्ष भरे ,
नृप मन मोद भरे , कहता "उचित" है .
रावण सम्मुख हो के , कहता है वह वीर ,
राम युद्ध चाहते हैं , युद्ध ही उचित है .
निशाचर अतुलित , बल और वीरता में,
अन्य का विरुद गाये , रोकना उचित है .
मम शर अनुगूंज , आज तक गूंजती है ,
देवराज युद्ध - कथा , कहना उचित है .
204
देवराज इन्द्र को भी , युद्ध में पकड़ लाये ,
स्वर्गपति धरा पर , बंदी वो हमारे थे .
भयंकर युद्ध हुआ , देव पलायन हुआ ,
पूर्ण स्वर्ग रिक्त हुआ , घोष ही हमारे थे .
गजराज एरावत , श्वेत दन्त खो कर के ,
धरा पर लाया गया , कौशल हमारे थे .
अमरों की नहीं चली , कब नर की चलेगी ,
तात तुम देख आओ , शौर्य जो हमारे थे .
205
इन्द्रजीत कथन से , विभीषण रुष्ट हुए ,
तर्जनी वे तान कहे , अभी आप बाल हैं .
तात सम पद मम , भूल गए कौन हूँ मैं ,
बल के प्रभाव में ही , मद - भरे भाव हैं .
भूल गये सदाचार , ओढ़ लिए कदाचार ,
आचरण विहीन हैं , तुच्छ व्यवहार हैं .
साधारण नर नहीं , राम और लक्ष्मण हैं ,
सुग्रीव के सह मानो , दहते वे ज्वाल हैं .
206
कहने को इन्द्रजीत , रावण तनय तुम ,
रावण तनय कहाँ , अरि सम लगते .
रक्ष-वृन्द के कथन , नृप के विनाश हेतु ,
पुष्ट किये जा रहे हो , बोध हीन लगते .
नृप भ्रष्ट करने में , सहायक लगे हुए ,
बलहीन नृप चाहे , अंध सम लगते .
नृप को उचित राह , नहीं दिखलाते सब ,
अंधकूप में धकेले , तुम सह लगते .
207
सुनो अब इन्द्रजीत , तुम सब रक्ष वीर ,
भूपति में भ्रम भर , अहित ही करते .
निजता के हेतु सब , स्वेच्छाचार करते हो ,
रक्ष और रक्ष-नृप , व्यसन ही करते .
राम सदा सत्य सह , विराट व्यक्तित्त्व वह ,
राजन को अग्र कर , निजता ही करते .
अतल-वितल तक , राम-शर गूंजते हैं ,
संधान तुम्हारी ओर , राघव ही करते.
208
तेज-बल-शील लिए , राम का विराट रूप ,
अरि जन के समक्ष , पूर्ण काल रूप है .
लेकर विकट धनु , करते संधान जब ,
छोड़े गए तेज बाण , पूर्ण नाग रूप हैं .
यमदंड के समान , चलते तो रुके नहीं ,
श्वांसों के शशक हेतु , दृढ पाश रूप है .
तात दशानन अब , अहंकार छोड़ कर ,
सती सीता सोंप दें , भगवान-रूप हैं .
209
जानकी प्रसन्न होगी , राघव प्रसन्न होंगे ,
सीता-राम युगल से , क्षमा मांग लीजिए .
हो कर विनम्र आप , राम के समक्ष आप ,
उचित उपहार दे , वय मांग लीजिए .
स्वर्ण मणि रजत से , वस्त्र और भूषण से ,
राघव को मान दे के , कृपा मांग लीजिए .
उमापति देख रहे , राम की लीलाएं सब ,
राम करुणावतार , दया मांग लीजिए .
210
रावण उखड कर , कह पड़ा सभा मध्य .
अधम निशाचर हो , कटु वाणी रोक लें .
वर्ण के विरुद्ध हो के , करते प्रलाप अद्य ,
शठ निशाचर हए , अरि भाव रोक लें .
नृप का विरोध किया , शासन विरोध किया ,
दंड अनुमान कर , राज - द्रोह रोक लें .
व्यवस्था विरोध करो , गति अवरुद्ध करो ,
विभीषण सह्य नहीं , काल - दंड रोक लें .
211
सुन्दर व्यवस्था रहे , दृढ प्रबंधन रहे ,
पर स्वजन ही सदा ,गुह्य छिद्र देखते .
नवीन विकास हेतु , क्षिप्रगति चाही गयी ,
पर स्वजन ही सदा , राह-शैल बनते .
प्रगति में बाधक जो , मूल से हटाने होते ,
पर स्वजन ही सदा , आलोचक रहते .
सत्ता और शासन का , अधिकार गुरु देते ,
पर स्वजन ही सदा , घातक से रहते .
212
रावण को भ्रष्ट मान , कह चले विभीषण ,
निशाचर-नृप आप , सरल स्वभाव नहीं .
कह-कह थक गया , नीति की धवल बातें,
लगता है नीति कभी,आप को स्वीकार नहीं .
निशाचर हित हेतु , आप के कल्याण हेतु,
धर्म-युक्त बातें कही , आप में सुधार नहीं .
लंका सदा फले-फूले , यही भाव भरे कहा,
राज-द्रोह कह दिया ,उचित व्यवहार नहीं .
213
तात सम अग्रज हो , तनय सा अनुज हूँ ,
क्षमा करें अब तात , श्रद्धाभाव जानिए .
सत्ता और शासन का, मोह नहीं पाला कभी,
लंकापति बने रहें , सिंहासन रखिए .
मधुर कथन सब , कर रहे लोग अत्र ,
मित्र व अमित्र कौन , आप पहचानिए.
यत्र सीता-राम प्रति , होता द्रोह मुखरित,
राम भक्त रुके कैसे , सुखकर रहिए .
214
सिंह-गर्जना के सह , विभीषण तत क्षण,
रावण को नम कर , नभ चढ़े जाते हैं .
सर्व जन मंगल के , सुन्दर सुपात्र बने,
क्षण एक ठहर के , कहे चले जाते हैं.
अग्र विभीषण चले , पश्च अनुचर बढे,
मानो यज्ञ-धूम घन , उड़े चले जाते हैं.
जल भरे नेत्र लिये , अंतर में राम-नाम,
राम से मिलन हेतु ,उस पार जाते हैं.
215
सागर के कूल पर , सुग्रीव विचरते हैं ,
देख कर विभीषण , संशय हो जाता है.
कर-कर इंगित वो , कहते हैं देखो भट ,
यह कोई निशाचर , भेद लेने आया है .
आरोहित नभ में है , साधन सम्पन्न यह ,
सहचर लिए हुए , छल रूप पाया है .
नाग सम अस्त्र लिए, क्षपा सम शस्त्र लिए ,
नग सम देह लिए , अरि सम आया है.
216
सुग्रीव के कहते ही , विभीषण बोल पड़े ,
हे सुमंत ! सुग्रीव मैं , रावण अनुज हूँ.
हीनबुद्धि अहंकारी , सीता का हरणकर्ता ,
अघचारी रावण से , सदैव पीड़ित हूँ.
शतवार कह दिया , सीता सौंपने के लिए ,
रामारि वो सुने नहीं , रावण से त्रस्त हूँ .
धन धरा सुत हीन , विभीषण राज्य हीन ,
राघव की शरण में , आया हुआ जन हूँ.
217
राम से विमुख नहीं ,अरि मुझे मानो नहीं ,
राम से जा कर कहें , सत्य हेतु आया हूँ.
रावण की वाटिका में , सीता का घुटन देखा ,
सीता के घुटन से मैं , त्रास लिये आया हूँ .
रावण ने राज-द्रोही , मुझ को सभा में कह ,
संदेह के बंध बांधे , शरण में आया हूँ.
दशानन पविकर्ण , सुने नहीं सत्य कभी ,
सत्य सुन अरि हुआ , प्राण लिये आया हूँ .
218
सुग्रीव के सहचर , वानर उद्दीप्त हो के ,
किलक लगाते कहे ,अभी खींच देते हैं.
कपिराज कथन तो ,आप ने उचित किया,
निशाचर छलिया है ,अभी चीर देते हैं .
धूर्त यह निशाचर , मूल रूप लिए हुए ,
अन्य कोई रूप धरे , अभी धर देते हैं .
प्रभु राम से ये मिल ,पहुंचाए क्षति कोई ,
पूर्व उस के ही इसे , अभी चांप देते हैं .
219
देखा सुग्रीव ने तब , वानर हैं उग्र सब,
शांत कर कहते हैं , सब ध्यान दीजिए.
राम की शरण हेतु , आगत है निशाचर ,
आगमन के कारण ,खोज लेने दीजिए.
विष के शमन हेतु ,विष ही जरूरी होता,
ग्रहण से पूर्व उसे , शोध लेने दीजिए .
राघव से मिल कर , करे हम मंत्रणा को,
तब तक इन पर , दृष्टि रख लीजिए.
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