Saturday 27 April 2013

दिल एक बिरवा है


( मित्रों ! नमस्ते . यात्रा से पूर्व आप सभी के सम्मान में सादर प्रेषित . आशीर्वाद प्रदान करें . यह रचना आदरणीय डॉ गुरूजी बिंदुजी महाराज के साथ सम्मान्य जी .पी. पारिक साहब . प्रहलाद जी पारिक साहब , असीम जी , केदार नाथ जी , डॉ अन्नपूर्णा जी , अभिषेक जी , राजेश खंडेलवाल जी ,राजेश पुरोहित जी और दिव्या जी सहित सभी मित्रों को समर्पित  )



दिल को ,
बहुत समझाया
परन्तु ,
दिल है कि,
मानता नहीं ,
इसे अभी भी ,
प्यार की जरूरत है,
मानो दिल एक बिरवा है ,
और ,
प्यार है शीतल- मधुर पानी.

कितनी बार ,
दिल को ,
वैराग्य का लबादा पहनाया ,
कंठी-माला और सुमरनी में ,
आपान्मस्तक डुबोया ,
परन्तु ,
यह दिल ,
फिर-फिर लौट आता ,
तेरी उन मधुर स्मृतियों पर ,
तब बैचेन हुआ ,
तुझे ढूँढता हूँ यायावरी के साथ ,
और,
तू है कि ,
किसी अगोचर की तरह,
मेरी पहुँच से ,
दूर....दूर..... और ...दूर .

तेरी कलाओं का ,
और ,
तेरी क्षमताओं का ,
मैं कायल हूँ ,
मैं जितना दूर भागता हूँ ,
तू साये की तरह,
मेरे पीछे लगा रहता है ,
पास आता हूँ ,
हाथ नहीं लगता,
अब तुम्ही बताओ इसे क्या कहूं ?
तुम शिल्प में कला ,
भाषा में अभिव्यक्ति ,
सृजन में रस हो कर के ,
मेरे सामने ,
नव-नव रूप धरे ,
चले आते हो,
तब ,
चुप हुआ मेरा दिल ,
चीख उठता है आर्त स्वर में ,
शायद यही है इस की नियति .

प्यार के विविध रूप ,
हो सकते होंगे ,
मैं नहीं जानता ,
पर एक बात तय है,
उस का मूल उत्स एक ही है,
उस के बिना ,
कुछ भी संभव नहीं ,
हाँ .............सच ही है ,
उस के बिना ,
नहीं हो सकता सृजन ,
नहीं हो सकता पालन ,
नहीं हो सकता ध्वंस ............
मेरे प्यारे दिल ,
आज से तू मुक्त है ,
हाँ , मेरे बंधनों से मुक्त ,
जहां शिवत्व तुझे आमंत्रित करे,
चला भी जा ..........चला भी जा ,
किसी यायावर की तरह ,
( मुझे भी लगता है )
इसी में हमारा श्रेय निहित .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .

Monday 22 April 2013

विवश हो कर , रह गया है - शीर्ष अपना .


विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .
घने कुहासे में ,फँस गया है
शीर्ष अपना .

नित्य रजनी की विदाई ,
हम कर रहे हैं .
नित्य दिन की वंदना भी ,
हम कर रहे हैं .
एक से ही दिवस आते ,
एक सी ही रातें बीत जाती .
परिवर्तनों के नाम पर ,सो रहा है
शीर्ष अपना .
विवश हो कर , रह गया है ,
शीर्ष अपना .

दिवस लाचारी में ढला जो ,
बस चीखता है .
रात में भय सना साया ही,
बस दीखता है .
विवश सी यह जिंदगी ,
भय से भरी ही बीत जाती .
संस्कृति के नाम पर ,खो रहा है ,
शीर्ष अपना .
विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .

दुराचरण ही रिस रहा है ,
धमनियों से .
बस कालिख ही पुत रही है ,
चिमनियों से .
त्रासदी के सिल पर पड़ी ही ,
साँसे दम तोड़ जाती .
आचरण के नाम पर , सिर धुन रहा है ,
शीर्ष अपना.
विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .


शुभ कृति ही मांगती है ,
बस सुकोमल जिंदगी .
फिर से कुछ ऐसा नया हो ,
खिले अंकुरित जिंदगी .
आशाओं को लिए धारा ,
दर्द पीछे छोड़ जाती .
सुकृति के नाम पर , अंक लिखता है ,
शीर्ष अपना .
विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .

जब भी जागें होता सवेरा ,
जाग भी जाएँ सभी .
घायल चरण ही पंथ देते ,
पंथ गढ़ जाएँ सभी .
किसी गुडिया सी जिंदगी ,
करुण स्वर से पुकार जाती .
नवीनता के नाम पर , पुकारता है ,
शीर्ष अपना .
विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .


- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द

किसी घायल कुरंग सा

अभावों से , रुदन ही नहीं ,
गीत भी ,निकल आते ,
वे गीत ,बहुत करुण हो कर ,
ह्रदय को बींध जाते ,
मानों कुरंग का ,
वेणुवादन के बहाने ,
संधान होता है .

श्याम वर्णी नव यौवना ,
बैठी हुई है फुटपाथ पर ऊंची जगह ,
जिस के अंक में ,
भार सा सद्यः प्रसूत शिशु ,
ओढ़े हुए है ,
भरी दुपहरी की धूप पीली,
उस के पार्श्व में सहम कर बैठा ताकता है ,
संभावित भविष्य सा ,
पञ्चवर्षी एक बालक ,
नंगी सड़क पर उस यौवना के लटकते
पैरों के पास सिमटती ,
किशोरी आत्मजा सिकुड़ी हुई ,
मां के हाथ फंसा ,इकतारे को ताकती है ,
और ,
गाती हुई मां के स्वरों में टेर देती है ,
यह देख कर -
कुछ हाथ जेबों में सरक कर ,
द्वद्व में उलझे हुए हैं ,
उन्हें भी तो मुक्त करना है .

कुछ देर में ही ,
चलते पथिक ठिठक कर ,
उनके आस-पास खड़े हो जाते हैं ,
भीड़ की भद्दी शक्ल में ,
कुछ लोग सिक्के उछालते हैं ,
कुछ वाह-वाह कर खड़े रहते,
कुछ मां और किशोरी को तोलते हैं,
सौन्दर्य के निकष पर ,
कुछ बौद्धिक पूछते हैं ,
करुण गीतों के उन गायकों को ,
कौन उन का है घराना ,
कौन उन का है गुरु ,
कौन सी है पद्धति ,
पर अभावों में प्रस्फुटित स्वर ,
यह कहे कैसे -
अभाव उनका है घराना ,
अभाव उनका है गुरु ,
अभाव उनकी है पद्धति ,
वे जानते है ,सभ्यों के इस लोक में ,
यह कहना बहुत बुरा है .
इसीलिए कह देते हैं -
जनाब आप की मुहब्बत ,
और ,
ईश्वर की कृपा का ही ,
यह सुफल है .

करुण गीतों को लिए ,
लोग गुनगुनाते चले जाते ,
या बहस करते हैं,
( इन्हें भी अवसर मिला होता ,
ये सितारे जमीं पर नहीं होते )
कुछ तात्कालिक योजना में उलझ जाते ,
कुछ शास्त्र और दर्शन के आधार पर ,
फुटपाथ की गायकी को तय करते ,
कुछ कोसते हैं उन को निठल्ले कह ,
कुछ कहते हैं ,
अरे! इस गायकी की आड़ में बहुत कुछ है ,
पर सभी इस बात से संतुष्ट हैं ,
गला और स्वर बहुत मधुर है ,
और बोल उन के ,
ह्रदय को बेधते हैं ,
मैं हूँ ...............
किसी घायल कुरंग सा ,
रुक सोचता हूँ फुटपाथ पर भी ,
अभावों से निपजती ,
कलाएं कितनी विवश है ,
ना जाने कौन से लोक से ,
इन के तारणहार आयेंगे.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Wednesday 10 April 2013

विद्रोही स्वर हैं गीत सरीखे



चिड़िया तेरे विद्रोही स्वर हैं गीत सरीखे .
दायित्वों से सिंचित स्वर हैं गीत सरीखे .

घर ने तुझ को हांक दिया है ,
निर्दयता से .
निर्जन वन अस्तित्व बचाती ,
आतुरता से .

प्रतिक्रिया में स्वर सुनता हूँ गीत सरीखे .
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे .

घर-घर जा कर चीख रही है,
वातायन में.
अधिकारों को मांग रही है ,
निर्वासन में.

मुझ से सीधे संवाद बनाती गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे .

सब ही निर्वासन भोग रहे हैं,
अपने घर में
अपरिचित से सब भागे जाते,
अपने घर से.

निर्वासित स्वर रामायण के गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे .

जिस को लिए तू रोज गा रही,
वह अपनापन.
वह बे परवाह हुआ जाता है ,
वह पागलपन.

अंगारों से स्वर जागरण के गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे.

चुप मत होना कभी दीवानी,
जीत हमारी.
सच्चे अर्थों में हम ही जीते,
जीत हमारी.

जिजीविषा के स्वर बोले वे गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Tuesday 9 April 2013

अस्तित्व की लड़ाई में


मेरी छोटी सी ,
सोन चिरैया ,
किस स्वर्ण पिंजर की .
स्वर्ण शलाकाओं से ,
लड़-भीड़ कर जख्मी होती हो ,
अपने अस्तित्व की लड़ाई में .

लो देखो-देखो ,
घायल तेरी चंचु ,
घायल तेरे कमनीय पक्ष ,
घायल तेरे नर्म-नर्म,
छोटे-छोटे पंजे ,
तन-मन सब घायल तेरा ,
अपने अस्तित्व की लड़ाई में .

मैं भी , तुम भी ,
भली प्रकार जानते हैं ,
स्वर्ण शलाकाएँ टूटे तो टूटे ,
पर ,
तेरी बड़ी सफलता है ,
स्वर्ण शलाकाएँ अब ,
तेरे चंचु और पंजो की मार से ,
कुछ विरल रेखाएं रखती हैं ,
ये तेरी प्रतिक्रिया का लेखा है ,
कल का सूरज दस्तक देता है ,
अब तेरे पिंजर के बाहर .
लगी रहो मेरी सोन चिरैया ,
अपने अस्तित्व की लड़ाई में .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Tuesday 2 April 2013

आदमी छोटा है


इच्छाएं बड़ी-बड़ी आदमी छोटा है ,      
कैसे कहूं वह बड़ा आदमी छोटा है .      

वेदना को छांटने में व्रत है कर रहा ,
संकल्प हैं बड़े-बड़े आदमी छोटा है .

फंसता है आदमी धारा के प्रवाह में ,
मतवाली धारा में आदमी  छोटा है .

ख़ुशी और गम साथ-साथ पाले हुए ,
अभिनय हैं बड़े-बड़े आदमी छोटा है .

नज्मों औ गीतों में आदमी गाता है ,
संत्रास है सुरसा से आदमी छोटा है .

दीवारें बनती नहीं सुलग जाता घर ,
द्वंद्व मिलते बड़े-बड़े आदमी छोटा है .

पंजों के बल खडा आदमी थकता है ,
शेष कद हैं बड़े-बड़े आदमी छोटा है .

सर चढ़ी गठरी है अवसाद लिए हुए ,
गठरी हुई बड़ी-बड़ी आदमी छोटा है .

रोता क्यूं बावला बगुलों के बीच में ,
खुदा खुद गवाह है आदमी छोटा है .

काँप रहा संतुलन बैठा हुआ आदमी ,
भय-भूख भारी हुई आदमी छोटा है .

खींच के गुलेल को वह दिशा साध ले ,
जो दिशा खाली हुई आदमी छोटा है .

तुच्छ कहे साधन भी मौके पे भारी है,
छोड़ दिया मौका तो आदमी छोटा है .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

कल सवेरा जान कर मैं जी गया



एक प्याला पी गया जो पी गया
बस तेरा मैं नाम ले के जी गया

हर बार मुश्किलें तो आती रही
मुश्किलों को नाम तेरे जी गया

जख्म साकी दे गया तो दे गया
और पीड़ा नाम उस के जी गया

द्वार जो भी खुला वो रोता मिला .
दूसरों  को चुप  कराते जी गया .

पुष्टजन में कायदे मरियल मिले .
कायदों से रिक्त जग में जी गया .

कतरन लिये पेहरन बुनता रहा .
कतरनों को ओढ़ कर मैं जी गया .

होगी कोई वह इंद्रधनुषी जिंदगी .
जैसे-तैसे ये जिंदगी तो जी गया .

उस को दुआ दूं कि अब दूं बद्दुआ .
देख लो बदहाली में भी जी गया .

मुश्किलें अब उन की  ही बढ़ रही .
मैं तो वो नेमत समझ के जी गया .

उन को  जरूरी  हो  गया जानना .
उन से लगी आग कैसे जी गया ?

कर्म सारे करने थे वह  कर गये .
कल सवेरा जान कर मैं जी गया .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...