रंग पैदा करते हैं भ्रम
वे हमारे अनुमानों को
हमेशा ही कर देते हैं
खारिज
जब कि काली-काली रेखाएं
सत्य के बहुत आसपास खडा
कर देती
अनुमानों को देती है ठोस
आधार
जैसे गृहवधुओं की
आभाहीन देह और फटी हुई
बिवाइयाँ
बता देती है परिवार की दरकती
स्थितियाँI
रंगों के व्यापारी
जब भी डूबा देते हैं आकंठ
गाढे रंगों में
तब कौन सोच पाता
अपने चारों और कसे आवरण के
बारे में,
तब हर कोई तंद्रित सा हुआ
डोलता है सपनों के झूले
में,
फलस्वरूप फसल लहलहाती है झूठ
की
जिस पर लकदक बेलें छल और
मक्कारी की
बुनती है घना डरावना जंगल,
उस डरावने जंगल में रोज मारा
जाता आदमी
उसका ही तो करना होता है शिकारI
रेखाएं आन्दोलन करती है
रंगों के व्यापारी के
विरुद्ध,
जीत-हार के मध्य
काली-काली रेखाएं, सरल-विरल
रेखाएं
क्षीण-पृथुल रेखाएं,
आड़ी-तिरछी रेखाएं
चीखती-चिल्लाती हुई
सत्य उगलना चाहती
लेकिन रंगों के व्यापारी
कभी बाहर से अन्दर, कभी
अन्दर से बाहर
रंग पूरते जाते,
खडा हो जाता फिर से भ्रम
तिरोहित हो जाता कहीं
सत्य
शिकार हो जाता फिर आदमीI
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)
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