यादों का क्या
वे आती-जाती रहती
परतु जब भी,
वे अपने बाद मीठी कसक छोड़ जाती
तब, मन भारी हो जाता
मानो ह्रदय पर बंध गया हो
चक्की का पाट भारी,
आँखें नम हो जाती
मानों बरसात के आने से
जुक गयी हो शाख पुष्पों की,
इसी से लगता है
तुम ने निजता से अलग हो कर
बहुत कुछ स्वत्व से विसर्जित किया
शायद वही प्यार था
जो आज मुझे रुलाता है
तुम्हारे उस विसर्जन के लिएI
वे आती-जाती रहती
परतु जब भी,
वे अपने बाद मीठी कसक छोड़ जाती
तब, मन भारी हो जाता
मानो ह्रदय पर बंध गया हो
चक्की का पाट भारी,
आँखें नम हो जाती
मानों बरसात के आने से
जुक गयी हो शाख पुष्पों की,
इसी से लगता है
तुम ने निजता से अलग हो कर
बहुत कुछ स्वत्व से विसर्जित किया
शायद वही प्यार था
जो आज मुझे रुलाता है
तुम्हारे उस विसर्जन के लिएI
इस जीवन यात्रा में
तुम्हारा मिल जाना मेरे लिए
बहुत मायने रखता है
जैसे जलते दिवस में चलते हुए
कोलतार की चिपचिपी सड़क पर
यकायक सघन विटप का मिल जाना,,
जिसके तले
तन-मन की जलन भूल
तमाम हताशाओं को
पैरों तले कुचल
फिर-फिर जलते दिवस के वक्ष पर
विजय-केतन फहराने निकल पडा
जिसकी मुझे आज भी है आवश्यकता,
शायद मेरा प्यार यही है
जो आज भी तुम्हारे द्वारा
खाली की गयी जगह नहीं भर सकाI
तुम्हारा मिल जाना मेरे लिए
बहुत मायने रखता है
जैसे जलते दिवस में चलते हुए
कोलतार की चिपचिपी सड़क पर
यकायक सघन विटप का मिल जाना,,
जिसके तले
तन-मन की जलन भूल
तमाम हताशाओं को
पैरों तले कुचल
फिर-फिर जलते दिवस के वक्ष पर
विजय-केतन फहराने निकल पडा
जिसकी मुझे आज भी है आवश्यकता,
शायद मेरा प्यार यही है
जो आज भी तुम्हारे द्वारा
खाली की गयी जगह नहीं भर सकाI
-त्रिलोकी
मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)
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