Sunday, 2 April 2017

जहाँ पर कटेगा आदमी

हो रहे हैं आयोजन 
जिसमें जुटाए जा रहे हैं लोग 
जहाँ लोग सुनना चाहते हैं 
कुछ राहत भरी घोषणाएँ 
जिससे मिले एक क्षण 
मुस्कराने के लिए 
परंतु उछाली जाती है स्याही 
जैसे मंचित नाटक की 
कथावस्तु में 
प्रसंग बदलने के संकेत में 
कर दी गई हो आकाशवाणी।
आयोजन में बदल जाते हैं दृश्य 
मंच पर मच जाती है भगदड़ 
सुरक्षा में लगे लोग 
तुरंत तोलते हैं भुजाओं का बल, 
गर्दने दबोचने में 
असंतुष्ट जन को घिसटने में
दिखाते हैं कौशल ,
इधर असंतुष्ट जन हर हाल में 
प्रकट करते हैं असंतोष 
उधर मुख्य वक्ता चीखता है -
मेरी आवाज दबाई जा नहीं सकती।
जमा हुए लोग 
नहीं समझ पाते हैं 
आखिर माजरा है क्या? 
वे व्याकुल हैं बहुत कुछ जानने को
परिस्थितियाँ बदल गई कुछ यों 
मानो छा गया कोहरा 
धवल दिवस के वक्ष पर
जिससे दृष्टि हो गई विकल 
वर्तमान के दृश्य देखने को।
स्याही के उछलने पर 
वह सब हो गया है गौण 
जो आयोजन में आगमन का 
मुख्य रहा था प्रयोजन 
अब स्याही ही हो गई है मुख्य 
जिसके आधार पर होगी बहस 
खड़े होंगे नये मुद्दे 
बनेगी नई रणनीतियां 
रचे जाएँगे समर 
योद्धा बनेंगे स्याह चेहरे 
जहाँ पर कटेगा आदमी।

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द।

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