Sunday 2 April 2017

सत्ता की भूख नहीं लगती

शहर के तमाम रास्ते
बंद कर दिए हैं
घर पहुंचने के लिए
जहाँ गली के नुक्कड़ पर
कर रहे होंगे प्रतीक्षा 
धूल सने चिथडों में
लिपटे मेरे मित्र।
कौन अपना कौन पराया?
सब लगे हैं इसी जुगत में
साथ वाले को
कैसे चटाई जा सकती है धूल
कैसे चढ़ा जा सकता है
उसकी पीठ और कंधे पर
किसे पड़ी है कि
वह चिंता करे
मेरे या तेरे बारे में
सुबह के निकले
घर पहुंचेंगे भी या नहीं.....
बेचारे विवश हैं सत्ता के पीछे।
मेरे मित्रों को नुक्कड़ पर देख
कहीं चली जाएगी
मेरी थकान भूख-प्यास
छाँव की तरह
पीछा करने वाला डर
गीदड़ की तरह
भाग कर कहीं छिप जाएगा
मैं कम से कम अपने घर तक
जाने वाले रास्ते पर
तब तक सुरक्षित हूँ
जब तक चिथडों में
व्याकुल मित्रों को
सत्ता की भूख नहीं लगती।
.- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द।

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