स्वप्न बुनता एक क्षण में ,
वह टूटता भी एक क्षण में ,
भोगता हूँ हर एक क्षण में .
सोचता हूँ उस पार जाऊं ,
पार जा के चुप बैठ जाऊं ,
सब घटित को भूल जाऊं
खीच चादर सो ही जाऊं ,
सब घटित को भूल जाऊं
खीच चादर सो ही जाऊं ,
पैर फिर-फिर खींच लेता,
बोध दहता एक क्षण में .
क्या कहूं ....................
हताशा को छोड़ कर मैं ,
अभावों को पाट कर मैं ,
थके साथी खींच कर मैं ,
चला प्राण सींच कर मैं .
फिर देखता हूँ वे वहीँ हैं ,
सिहर जाता एक क्षण में .
क्या कहूं ....................
घाव सब के रिस रहे हैं ,
चील - कौवे घिर रहे है,
सियारों की मौज चलती ,
श्वान खुल के फिर रहे हैं .
प्रतिरोध के अंकुवे नहीं हैं,
सर पीट लेता एक क्षण में.
क्या कहूं ....................
राम आये इन के लिए ही ,
कृष्ण आये इन के लिए ही ,
बुद्ध आकर चल भी दिए है,
बुद्ध आकर चल भी दिए है,
गाँधी मरे हैं इन के लिए ही ,
दीपक सिराते देख सब को ,
व्यग्र होता उस एक क्षण में
क्या कहूं ....................
मैं कलम को घिस रहा हूँ ,
तीक्ष्ण इसको कर रहा हूँ,
लहू की स्याही बना कर ,
अग्नि-गान को रच रहा हूँ .
चाहता परिवर्तन यहाँ पर ,
एक युग या एक क्षण में .
क्या कहूं .....................
मैं कलम को घिस रहा हूँ ,
तीक्ष्ण इसको कर रहा हूँ,
लहू की स्याही बना कर ,
अग्नि-गान को रच रहा हूँ .
चाहता परिवर्तन यहाँ पर ,
एक युग या एक क्षण में .
क्या कहूं .....................
कविता वह सुरंग है जिसमें से गुज़र कर मनुष्य एक विश्व को छोड़ कर दूसरे विश्व में प्रवेश करता है।
ReplyDelete& अती उत्तम सर जी प्रणाम राधे राधे
राधे राधे , धन्यवाद।
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