अपनों में तू रह रहा , नहीं हार वा जीत.
वहां जीत में हार है , और हार में जीत.
हार देख कर जन कहें , कमियाँ बारम्बार.
बीच निठल्ला बैठ के , अवगुण कहे हजार.
प्रेम समर के चालते , चितवन करे प्रहार .
मन के हाथों हार के , तय करती अभिसार.
आज जीत की चाह में , खूब किया श्रृंगार .
प्रिय को आता देख के , भूली चली जय-हार.
हार - जीत के कूल में , जीवन धार प्रवाह .
हार जीत को चाहती , जीत भरे उत्साह .
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