Friday, 26 December 2014

ईद-दिवाली धरती है


अम्बर नील दुशाला जैसा, सदा एक सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
जब से आँख खुली थी मेरी
मैंने धरती देखी थी,
सुख देखा था दुःख देखा था
माँ सी धरती देखी थीI
जब भी रोया धरती ने ही
मेरे आंसू पोंछे थे,
पैरों में आँगन नर्म बना
झट से पंखे डोले थेII
अम्बर भी सब देख रहा पर, पथराया सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
पत्थर-कंकड़ सब धरती पर
मिट्टी की सौगात यहाँ,
काली घड़ियाँ घूम रही पर
जीवन की सौगात यहाँI
भीषण ज्वाला प्यास जगाती
झरनों की सौगात यहाँI
कंटक जाल बिछे यहाँ पर
फूलों की सौगात यहाँII
अम्बर भाव शून्य सा रह के, मायावी सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
अम्बर दिन में एक सरीखा
स्याही सा फैला रहता,
श्यामल संध्या के गिरते ही,
चूनर ओढ़े ही रहताI
अम्बर कब अपने वैभव के,
मद से बाहर आ निकला,
भूख-प्यास में देख धरा को,
हाथ बटाने कब निकलाII
अम्बर मद को पूरे जाता, मधुशाला सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
हाथ उठा अम्बर से माँगा
वह भरता है कब झोली,
कभी न उसने घर भेजी थी
खुशियों की प्यारी डोलीI
आकर्षण पैदा करके नभ
अपने पास बुलाता है,
इधर-उधर भटका-भटका कर
धरती पर धकियाता हैII
अम्बर यह तो सूम सरीखा, सामंतों सा रहता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
धरती पर मैं पैर टिकाए
अम्बर को आंक चलूँ,
धरती की धानी चूनर पर
नभ के तारे टांक चलूँI
हरे-हरे घावों की मरहम
धरती से ही मिलती है,
फिर क्यों अम्बर को ताकूँ
ईद-दिवाली धरती हैII
अम्बर सा अम्बर रच कर के,सच देखा जा सकता हैI
यह है सपनों का सौदागर, सरे राह छल जाता हैII
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज

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