Friday 12 December 2014

कल जिंदा रखेगी

तुम्हें
अपनी विरासत पर
परंपरा पर
देह पर
ऊंचाइयों और गहराइयों पर 
बहुत विश्वास रहा
मुझे
अपनी ही सोच
और अप्रायोजित जीवन पर।
कितना अच्छा होता
हम बकवास में न उलझते।
तुम अपना स्वेटर बुनो
छत पर रेशमी धूप छितरी
थोड़ी देर कहीं टहल आओ
हवा संगीत गाती है
पार्क की बेंच पर बैठ
जुल्फ छितरा आना
लोगों के सामने
एक मीठी अंगड़ाई ले आना
तुम स्वतंत्र हो प्रिये!
तुम्हें उचित लगे
तब मुझे भी साथ ले लेना।
इधर मैं तब तक
अपनी भाषा के तल्ख मिजाज को
कुछ पैना कर लूँ
अपनी कूँची से कुछ
संवेदनाओं के संवाहक
शब्द भर दूँ
तब मेरे लिए कविताएं होंगी
जो मुझे कल जिंदा रखेगी,
मेरी कविताएं-
तुम्हारे लिए भाषा या जबान
शायद यह तुम्हारे द्वारा
मर्दों के खिलाफ
लड़ी जाने वाली
लड़ाई में काम आएगी।
मैं तुम्हें उधार की जबान नहीं दे रहा
वह तो तुम्हारी ही सौगात
जो तुम्हें लौटानी है
कम से कम ........................
मैं यह काम कर ही सकता हूँ।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।

No comments:

Post a Comment

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...