कितनी घटनाएं
आस-पास रही
मानों अन्धे वन में
भारी भरकम बर्फबारी ले
उलझ गए थे I
आस-पास रही
मानों अन्धे वन में
भारी भरकम बर्फबारी ले
उलझ गए थे I
यह उचित हुआ तब
शब्दों की अरणी से
बर्फ सरीखे जमे समय को
कुछ गरम किया था
कुछ तरल किया था
वरना यह समय
कहाँ और किसकी सुनने वाला,
इसने तो लेली ही थी
अग्नि परीक्षा
मानो हिमयुग को भोग रहे I
शब्दों की अरणी से
बर्फ सरीखे जमे समय को
कुछ गरम किया था
कुछ तरल किया था
वरना यह समय
कहाँ और किसकी सुनने वाला,
इसने तो लेली ही थी
अग्नि परीक्षा
मानो हिमयुग को भोग रहे I
समय सिकाई पा कर के
जब भी होता
बहुत करारा,
भूखी दाढ़ें
तब समय कुतरती
रस लेती हैं,
मानो कई ओसरों का
भूखा जीवन,
सूखी रोटी कुतर-कुतर कर
रस लेता जाता,
यह जय है उस जीवन की
जो भूखा था
जो नंगा था,
इस जय में
वह भूखा-नंगा जीवन
धरती पर
अंटी में खोंसे स्वत्व
समय को रख सिरहाने जागे रहता I
जब भी होता
बहुत करारा,
भूखी दाढ़ें
तब समय कुतरती
रस लेती हैं,
मानो कई ओसरों का
भूखा जीवन,
सूखी रोटी कुतर-कुतर कर
रस लेता जाता,
यह जय है उस जीवन की
जो भूखा था
जो नंगा था,
इस जय में
वह भूखा-नंगा जीवन
धरती पर
अंटी में खोंसे स्वत्व
समय को रख सिरहाने जागे रहता I
शब्दों की अरणी से
जो आग जला सकता
उस जमे समय में,
साहस से
वही पूछता
उसके हिस्से का धान कहाँ
कहाँ गई उसकी रोटी,
दृढ हो कर
वही पूछता
उसके हिस्से का कपास कहाँ
कहाँ गया उसका वस्त्र,
कस-कस मुट्ठियाँ
वही पूछता
उसके हिस्से की धरा कहाँ
कहाँ गया उसका छप्पर I
जो आग जला सकता
उस जमे समय में,
साहस से
वही पूछता
उसके हिस्से का धान कहाँ
कहाँ गई उसकी रोटी,
दृढ हो कर
वही पूछता
उसके हिस्से का कपास कहाँ
कहाँ गया उसका वस्त्र,
कस-कस मुट्ठियाँ
वही पूछता
उसके हिस्से की धरा कहाँ
कहाँ गया उसका छप्पर I
स्वागत-स्वागत
तुम जैसे भी हो-
जमे समय हो
या,
तरल समय हो
बस खबर रहे
शब्दों की अरणी
आग लगाती,
बस इतना सा कहना है-
जिसका जितना जिसमें हिस्सा
उसे बाँट दो,
अब भी कोई खाँस रहा..................
वरना फिर मत कहना
कविता आग उगलती.
तुम जैसे भी हो-
जमे समय हो
या,
तरल समय हो
बस खबर रहे
शब्दों की अरणी
आग लगाती,
बस इतना सा कहना है-
जिसका जितना जिसमें हिस्सा
उसे बाँट दो,
अब भी कोई खाँस रहा..................
वरना फिर मत कहना
कविता आग उगलती.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)
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