चिड़िया तेरे विद्रोही स्वर हैं गीत सरीखे .
दायित्वों से सिंचित स्वर हैं गीत सरीखे .
घर ने तुझ को हांक दिया है ,
निर्दयता से .
निर्जन वन अस्तित्व बचाती ,
आतुरता से .
प्रतिक्रिया में स्वर सुनता हूँ गीत सरीखे .
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे .
घर-घर जा कर चीख रही है,
वातायन में.
अधिकारों को मांग रही है ,
निर्वासन में.
मुझ से सीधे संवाद बनाती गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे .
सब ही निर्वासन भोग रहे हैं,
अपने घर में
अपरिचित से सब भागे जाते,
अपने घर से.
निर्वासित स्वर रामायण के गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे .
जिस को लिए तू रोज गा रही,
वह अपनापन.
वह बे परवाह हुआ जाता है ,
वह पागलपन.
अंगारों से स्वर जागरण के गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे.
चुप मत होना कभी दीवानी,
जीत हमारी.
सच्चे अर्थों में हम ही जीते,
जीत हमारी.
जिजीविषा के स्वर बोले वे गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.
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