मेरी छोटी सी ,
सोन चिरैया ,
किस स्वर्ण पिंजर की .
स्वर्ण शलाकाओं से ,
लड़-भीड़ कर जख्मी होती हो ,
अपने अस्तित्व की लड़ाई में .
लो देखो-देखो ,
घायल तेरी चंचु ,
घायल तेरे कमनीय पक्ष ,
घायल तेरे नर्म-नर्म,
छोटे-छोटे पंजे ,
तन-मन सब घायल तेरा ,
अपने अस्तित्व की लड़ाई में .
मैं भी , तुम भी ,
भली प्रकार जानते हैं ,
स्वर्ण शलाकाएँ टूटे तो टूटे ,
पर ,
तेरी बड़ी सफलता है ,
स्वर्ण शलाकाएँ अब ,
तेरे चंचु और पंजो की मार से ,
कुछ विरल रेखाएं रखती हैं ,
ये तेरी प्रतिक्रिया का लेखा है ,
कल का सूरज दस्तक देता है ,
अब तेरे पिंजर के बाहर .
लगी रहो मेरी सोन चिरैया ,
अपने अस्तित्व की लड़ाई में .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.
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