Tuesday, 3 April 2012

तू-तू  मैं - मैं कर रहे , लिए अहं का जोर .
अहं तुरत ही सोंपता, कागा जी का शोर .


बीच  नगर  में  बेठ के, चला प्रेम का दोर.
लुटे पिटे घर को चले,नहीं रुदन अरु शोर.


कर-कर आलिंगन कहे,लाल  चलो घर ओर .
चम - चम  करती बीजली,करे भयंकर शोर .


शोर नहीं हलचल नहीं , बन बेठे भरतार .
मैंने  नौका सोंप दी , मान लियो करतार .


उपवन गयी जु राधिका,लाल दियो झकझोर .
इत - उत देखत ही रही , केवल नन्द किशोर .


वो पिक को यूं डांटती,मत कर अब शठ  शोर .
मन पर मेरा बस नहीं ,नहीं घर पर चितचोर .


जन-धन-बाहु-बुद्धि बली , करते छल-अभिमान .
वे जन पग - पग लाजते , खोते नित  सम्मान .


जे नर ना ही जानते , चलन - कलन की बात .
वे तत्त्व पर लिखन  चले , कहूं मूरख की जात.


अज्ञानी  ज्योतिष  बने ,काठ - चर्म  के  ढोल .
बाहर  से  फूले  -  फले , अन्दर  पोलं  - पोल .


लग्न - चन्द्र होरा - दशा , गोचर का ना ज्ञान .
कह  नहीं  पाते  फलित , वे  पत्रा  के भगवान .

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