Friday, 13 April 2012

श्री राम  का समुद्र तट पर सीता का स्मरण कर दुखी होना 
और  रावण के प्रति प्रतिशोध प्रकट करना- 




प्रिय से मिलन हेतु , जैसे -जैसे राह कटे ,
                  सदाशा में वृद्धि होती , प्रकृति प्रभाव है .
पर मेरे सह कैसे , प्रकृति विरुद्ध होती , 
                  मुझे मिले हताशा क्या,नेह परिणाम है.
सीता अति संकट में , यह जान मन मेरा ,
                  झूले सा यह झूलता , चंचल  स्वभाव है.
मन को भी साधता हूँ , वारिधि को बांधता हूँ ,
                  हाय ! सखा दहता हूँ , प्रतिशोध भाव है.


चाहता हूँ सखा मेरे , सीता ले-ले शक्ति रूप 
                  महिषासुर सम ही , रावण को मार  दे .
चाहता हूँ भाई मेरे , सीता ले प्रचंड रूप ,
                  चंड - मुंड सम ही वो , रावण को काट दे .
चाहता हूँ वीर  मेरे , सीता मम शिखी ले के ,
                  शुम्भ सम रावण के , वक्ष को ही पाट दे . 
चाहता हूँ लाल  मेरे , सीता सिंह वाहिनी हो ,
                  निशुम्भ सा निशाचरी, तंत्र को उखाड़ दे .


राम का वदन तप , रवि सम रक्त हुआ ,
                  मानो क्रोध अनल में,स्वर्ण थाल तपता.
राम ओज रूप देख , हर्षित अनुज हुए ,
                  मानो रवि चढ़ा देख , पंकज विकसता .
संध्या-वंदन समीप जान , कूल ओर बढे राम ,
                  मानो गज  सर देख , निर्भय हो धंसता.
प्राण साध अर्घ्य दिये , जल में तरंग उठी,
                  मानो मन्त्र सुनकर , वारिधि दहलता.
                   

No comments:

Post a Comment

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...