Wednesday, 18 April 2012

अंतर्मन में व्यथा बहुत है .



अंतर्मन में व्यथा बहुत है .
क्या बोलूँ मैं कथा बहुत है.


सोचा जिसको पढ़ा लिखा है,
अनपढ़ सा वो मुझे दिखा है .
अकड़ मार कर बना खजूरी ,
संस्कारों में  व्यर्थ दिखा है .
संकीर्ण विचारों की गठड़ी में,
अपना ही आलाप  बहुत है.


खुद ने सोचा, खुद ने समझा,
वही प्रमुख और वही पूर्ण है ,
हमने सोचा और समझा जो ,
हुआ गौण और वह अपूर्ण है.
समझ - सोच को लेकर के ,
मतिभ्रम उनमें भरा बहुत है.


अभी चले हैं चार कदम बस ,
मंजिल उनकी बहुत दूर है .
सोच रहें हैं बहुत चल दिए ,
वे लगे थकन से चूर-चूर हैं .
अहं बोलता हरदम उन  पर,
पर्दा उन पर स्याह बहुत है.


क्या रिश्ता है क्या बंधन है,
अपरिचित की वे शैली जीते.
पैसा ही बस परम लक्ष्य है,
सरल प्रेम से तन - मन  रीते.
वे पेड़ कभी भी नहीं सींचते,
पर रसाल की चाह बहुत है .


आदर्शों से अपरिचित हो कर,
हाय !कहाँ यह युग जाता है ?
कुंठा और हताशा ही जी कर,
हाय !कहाँ यह युग जाता है ?
विश्वासों की वे खान माँगते ,
शंकित मन की प्रथा बहुत है 

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