Wednesday, 30 May 2012

मरना भी तो सीख ज़रा.


सीढ़ी बनना कब छोड़ेगा , चढ़ना भी तो सीख ज़रा.
मुंह की पट्टी कब खोलेगा, कहना भी तो सीख ज़रा.

दे कर ठन्डे जल की फुहारें , तुझ को बहलाया जाता.
ज्वाला से क्या घबराना है , तपना भी तो सीख ज़रा .

तेरे कंधे पर चढ़ कर सब  , ऊँचे आसन बैठ गए वे .
काहे कहारी में लगता है  , कटना भी तो सीख ज़रा.

फिर यह लोहा तपने वाला , इस में इंधन जोंक ज़रा.
सर थामे क्यों बैठा रहता , धमना भी तो सीख ज़रा.

नई रोशनी की चाहत में , बन के पतंगा देख 'त्रिलोकी'.
गांधी जी का  देश है प्यारे , मरना भी तो सीख ज़रा.

Tuesday, 29 May 2012

हमें बांटने वालों को देख .


मरहम को क्या रोता  पगले, अपने गहरे घावों को देख .
मरहम तो मिल जायेगी ही , पहले नश्तर वालों को देख .

भूख लगी तो रिरियाता क्या , पगले काहे को दुहरा होता   .
हाथ  जोड़ने से क्या  मिलता , कोर छीनने वालों को देख.

नंगेपन में तेरा दोष नहीं है , क्यों सहम के गठरी बनता है.
अस्मत की क्या भीख मांगता  ,वस्त्र फाड़ने वालों को देख.

भाग रहा है तू कब से पागल , क्यों न शहादत सीख गया .
कब से ही छप्पर थाम रहा है , घर उजाड़ने वालों को देख .

आँख मूँदने से क्या होता , आँख खोल के देख "त्रिलोकी".
कुछ लोग प्यार से नहीं मानते , हमें बांटने वालों को देख .

डरता है तो तू प्यार न कर.


चलना है तो विचार न कर .
डरता है तो तू प्यार न कर.

वे पागल कहें  तो कहने दे.
समझे का तू करार न कर.

अब शोशे खूब उछालेंगे वे  .
रिश्तों में तू दरार न कर .

हैं अंधे-बहरों के सब टोले .
व्यर्थ यहाँ तू विलाप न कर .

सब है बेदम अरे "त्रिलोकी".
इन मुर्दों पे तू प्रहार न कर .

Friday, 25 May 2012

मैं मिट्टी का कण 



मैं मिट्टी का कण ,
हूँ तो हूँ ,
हूँ अपने में परिपूर्ण ,
यही मेरा विश्वास. 

निश्चित  है मेरा रंग -रूप ,
निश्चित  है आकृति -प्रकृति ,
निश्चित  है यति - गति ,
निश्चित  है रस - गंध .
नहीं तरल  हूँ , नहीं सरल  हूँ ,
फिर भी,
उज्ज्वल है इतिहास 
यही मेरा विश्वास. 

वीथी से पक्के पथ पर मैं,
निर्जन वन से बस्ती तक मैं ,
कच्चे-पक्के सब सदनों में ,
ऊपर- नीचे , सब कोनों में .
मटमेला मिट्टी का कण  हूँ,
फिर भी,
निश्चित  है विलास  ,
यही मेरा विश्वास. 

नहीं  पुष्प हूँ , नहीं  रत्न  हूँ ,
मुग्धा का हूँ नहीं स्वर्ण-हार .
नहीं नक्षत्र-रवि-मयंक हूँ ,
नील नभ का हूँ नहीं श्रृंगार ,
ये सब रज-कण की कृतियाँ,
फिर भी,
मिलता है उपहास ,
यही मेरा विश्वास.

ब्रह्म-रूप में श्रष्टा मैं हूँ ,
हरि-रूप में भर्ता मैं हूँ,
हर रूप में हर्ता  मैं हूँ , 
ऋत-सत्य-तप भी मैं हूँ .
मुझ में अक्षय ऊर्जा श्रोत ,
फिर  भी,
विमुख  रहा  उल्लास ,
यही मेरा विश्वास .

Tuesday, 15 May 2012

भोगवतीपुरी अद्य , रखती है  रण-चिह्न ,
               दशग्रीव-नाग  युद्ध , किसने भुलाया है.
कैलास-शिखर जहां, कुबेर का गढ़ वहां,
               युद्ध छेड़ रावण से , लंका को गंवाया है.
वर वीर रावण से ,मय तक काँप गया ,
                दे कर के आत्मजा को,जामाता बनाया है.
सहोदरा कुम्भीनसी , पति मधु दानव जो ,
                रावण  से  रण  चाह , मर्दन  कराया  है . 

खोया-खोया रावण को , देख निशाचर कहे ,
                दश दिशा जयघोष , आप के ही गूंजते.
वासुकी-तक्षक हारे , शंख-जटी नाग हारे ,
                रावण का नाम सुन , अचला को चूमते .
वरुण  के पुत्र  सारे  , रावण  की असि देख ,
                बावरे वो हो कर के , यत्र - तत्र  घूमते .
यमराज सैन्य - दल , युद्ध  में कुचल कर ,
                 काल आप रोक कर ,स्वच्छंद हो झूमते .

कई - कई ऋषि हुए , जपी - तपी सिद्ध हुए ,
                  रावण सा साधक तो , कृपा कर कह दें .
देवाधिदेव शिव के , वर से सायुज्य हो के ,
                  रावण सा सम कौन , कृपा कर कह दें .
अगणित वीर यहाँ , तिस पर इन्द्रजीत ,
                  इन्द्रजीत सम अन्य ,कृपा कर कह दें .
इन्द्र मुक्ति हेतु ब्रह्मा , आ कर के कहते हैं ,
                  रावण सा यश कहाँ , कृपा कर कह दें . 


Monday, 7 May 2012

विश्वरूप  माँ 





आशाओं पर पानी फिरता , मैं  उदास जब थम  जाता ।
अम्मा तेरे आँचल  में ही , स्वप्नों की  फसल  उगाता ।


बस्ती की संकरी गलियों में ,
गेंद-पतंगें-कुल्फी  दिखती ,
खिड़की  से तब  मेरी आँखें,
हम उम्र की भीड़ से लगती .


बाबा के  अनुशासन  चलते , मेरा स्वर घुट-घुट  जाता।
तब  तरकारी  के  पैसों  से , अम्मा  से  चवन्नी  पाता।
आशाओं पर .......................................................


भरी   दुपहरी तपी धूप में ,
भारी  बस्ता  पीठ  दुखाए  ,
विद्यालय  से मिली ताड़ना,
कान - हथेली को झुलसाए .


तिस  पर अंकित  रक्तिम लेखन  , खूब  रुलाई  दे  जाता।
अमराई   सा   तेरा   आँचल , मधुर   दिलासा  दे  जाता। 
आशाओं पर .......................................................


जब फेल-पास के पत्रक पर,
अल्प अंक का साया छाता,
अनजाना भय नाग बना तब ,
प्राण शलभ  को डस जाता .


बोझिल  कदमों  से  घर  पर  , स्याह  उदासी  भर जाता।
अम्मा तुझ से चुम्बन  पा कर , नव  उमंग से भर  जाता। 
आशाओं पर .......................................................


बाबा ने जब आँख मूँद ली,
घर का बोझ खूब  सभाला,
मोदी की तू दाल  बीन कर,
घर का छकडा खूब बढ़ाया.

तेरा  हाथ  बटाने  में  जब , लाचारी  से  भर  जाता। 
अम्मा  तेरा  देख  समर्पण ,नये  चरण में बढ़ जाता।

चाह सरीखा लो बन आया,
बड़ा आदमी  बंगला- बाड़ी,
बीबी - बच्चे  सीख  सरीखे,
तिस पर आई  मोटर गाडी.

टीस  मेरी  इतनी  सी  है माँ , काश तुझे  दिखला पाता। 
विश्वरूप  माँ  तुझ  को  पा कर , मैं  श्रद्धा  से  भर जाता। 





  
एक कपि हनुमान , लंका में निश्शंक हो के,
                  भ्रमण वो कर-कर , सब देख जाता है .
भ्रष्ट कर के व्यवस्था,उपवन में पहुँच  ,
                  रक्ष वीर मार-मार,सीता देख  जाता है .
राम सहिदानी दे के,सीता का सन्देश ले के,
                  प्राण प्यारी लंका को वो,दहे चला जाता है.
हो कर के स्वच्छंद वो,करता है विध्वंश वो .
                  स्वर्ण चैत्य प्रासाद को , ढूह कर जाता है .

कपि-ऋक्ष-वनवासी,ले कर के अब राम ,
                  जलधि के तट तक , सहज में आ गए .
बलशाली कपि वीर , भीमकाय ऋक्ष वीर,
                  श्रमशील वनवासी , घन सम आ गए.
लक्ष्मण है वह्नि सम, सुग्रीव है क्षपा सम,
                  अंगद भू-कंप सम , वर वीर आ गए .
जाम्बवंत-हनुमान , नल-नील-सुषेण जो,
                  राम ज्वालामुखी सह,विस्फोट से आ गए .

कई-कई युक्ति कर ,शीघ्र सेतु बाँध कर ,
                  वारिधि को पार कर,लंका चढ़ आयेंगे.
कपि मात्र एक आया ,छिन्न-भिन्न कर गया,
                  अब राम लोक सह , रोक नहीं पायेंगे.
समय है अभी शेष , मन्त्र चाहिए विशेष ,
                  एक मत होने पर , सही दिशा जायेंगे .
स्वर्ण लंका रावण के , शोणित से सिंची हुई ,
                  प्रश्न विकराल खडा , कैसे बचा पायेंगे?

तभी निशाचर वीर , एक साथ बोल पड़े ,
                  राज राजा दशग्रीव , रणधीर  आप हैं.
देव नर नाग कोई , अद्य हम सम नहीं ,
                  देवराज इन्द्र भी तो , मर्दित है आप से.
अतल व वितल में , निशाचर तंत्र रहा ,
                  निशाचर हैं अधीन , मात्र अद्य  आप के.
राम वाहिनी के सह , आये हैं वारिधि तक ,
                   देख लेंगे हम मिल , विषय न आप के.


Wednesday, 2 May 2012

वे बिसरा कर चल दिए,रोज रटूं मैं नाम


वे बिसरा कर चल दिए,रोज  रटूं मैं नाम .
तन्हाई  में  रह गए  , आज  अकेले  राम .

अपने में ही डोल रहा हूँ ,
गांठे सारी खोल  रहा हूँ .
कहाँ समर्पण  में अभाव था,
अपने से ही बोल  रहा हूँ .

सारी चर्या  रह गई  , यही बचा एक  काम .
वे बिसरा कर चल दिए , रोज  रटूं मैं नाम .

मुश्किल से दिन  काट  रहा हूँ ,
मानो गिनती की  रही  श्वांस 
नित  तन्हाई  मुई  मारती ,
ज्यों छाती चढ़ा पीवण  सांप.

रग - रग पीड़ा फैलती , मिला दर्द का गाँव .
वे बिसरा कर चल दिए , रोज  रटूं मैं नाम .

मिले तो कहना आपका ही ,
सदा बना  रहूँगा  मैं ख़ास ,
सुख ने तो छल खूब किया है ,
पर तेरे दुःख का है विश्वास  .

उनके सभी किये उचित ,उनको कई प्रणाम .
वे बिसरा कर चल दिए , रोज  रटूं मैं नाम .







मंदोदरी कह कर , रावण के वक्ष पर ,
                 भाल रख कर श्रम ,परिहार चाहती.
हस्त भाल  पर धर ,रावण विलग करे,
                 पर रानी लता सम,अवलम्ब चाहती .
रावण का वक्ष तब,धड़क-धड़क कर,
                 वह कुछ कह रहा,सुनना वो चाहती.
समझ न सकी जब,वक्ष की धड़क को ,
                 विलग वो हो कर के,नृप  को  निहारती. 

रावण विहंस कर,कुलीना को कह चला,
                 अरे प्रिये ! भय तव , नेह परिणाम जो.
कथन मधुर अति , शीतल व तरल है,
                 ललना स्वभाव वश,ललित-ललाम जो . 
भय आप त्याग कर,रक्ष इतिहास देखो,
                 देव नर नाग पर , जय  अभिराम जो.
काल सम खड्ग मम ,मृत्यु सम धार सह,
                 देखी कई वाहिनी को , देखे कई राम जो.

देवी ! हम चाहते हैं ,राम का निदान अद्य,
                 इस हेतु चिन्तना में,हम हैं लगे हुए.
आलोडन-विलोडन , हम नहीं मानते हैं ,
                 चित्त एक विषय पे , हम हैं धरे हुए .
सीता हर कर लाये , मान का विषय यह ,
                 कौन कह सकता है , हम हैं डरे हुए .
सभा का समय हुआ , अब हम चलते हैं ,
                 रण हेतु उत्साह से , हम हैं भरे हुए .

सभा मध्य वर वीर , पहुँच -पहुँच कर ,
                 रावण को झुक-झुक,सम्मान दर्शाता है .
स्वर्ण-मणि  से शोभित , आसन को पा कर के,
                 निशाचर  वर वीर , गर्व  भर  जाता  है .
देख लिया रावण ने , आ गये उचित वीर ,
                 हस्त ऊर्ध्व में उठा के, संवाद बनाता है .
विक ट समय  अब , लंका  पर छा गया है ,
                 समाधान  हेतु  वह , मंत्रणा  कराता है.

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...