चिड़िया ने चंचू खोली
इसमें भी कुछ को
चिड़िया से शिकायत है-
वह चहकती क्यों ?
वह मचलती क्यों?
वह उड़ने को आतुर क्यों?
इसमें भी कुछ को
चिड़िया से शिकायत है-
वह चहकती क्यों ?
वह मचलती क्यों?
वह उड़ने को आतुर क्यों?
चिड़िया ने कितनी बार कहा-
मुझे मत सताओ
पर उसकी सुनी ही नहीं गयी।
बदले में चिड़िया घायल हुई
वे खिलखिलाए,
चिड़िया रोई वे प्रसन्न हुए
चिड़िया डरी रही वे भेड़िये बनते गए,
वह समय ही विपरीत था
चिड़िया के लिए,
तब चिड़िया ने बंधनों को
काटने का साहस जो नहीं किया।
मुझे मत सताओ
पर उसकी सुनी ही नहीं गयी।
बदले में चिड़िया घायल हुई
वे खिलखिलाए,
चिड़िया रोई वे प्रसन्न हुए
चिड़िया डरी रही वे भेड़िये बनते गए,
वह समय ही विपरीत था
चिड़िया के लिए,
तब चिड़िया ने बंधनों को
काटने का साहस जो नहीं किया।
साहस बटोर कर
अब चिड़िया ने काटे,
तथाकथित मर्याद के बंधन,
जो कसे हुए थे-
उसके पंखों पर,
नन्हें पंजों पर,
सुकोमल चंचु पर।
चिड़िया ने ध्वस्त कर दी
अपने चारों और कसी दीवारें,
चिड़िया घायल पंखों के साथ
है नापने को आतुर,
श्याम नभ का विस्तार।
चिड़िया तलाश रही ,
अपने उत्पीड़न के विरुद्ध
अपनी जिजीविषा के अधिकार,
और खुली सांस की संभावनाएं,
इसमें है बुरा भी क्या ?
अब चिड़िया ने काटे,
तथाकथित मर्याद के बंधन,
जो कसे हुए थे-
उसके पंखों पर,
नन्हें पंजों पर,
सुकोमल चंचु पर।
चिड़िया ने ध्वस्त कर दी
अपने चारों और कसी दीवारें,
चिड़िया घायल पंखों के साथ
है नापने को आतुर,
श्याम नभ का विस्तार।
चिड़िया तलाश रही ,
अपने उत्पीड़न के विरुद्ध
अपनी जिजीविषा के अधिकार,
और खुली सांस की संभावनाएं,
इसमें है बुरा भी क्या ?
चिड़िया कहती है-
अरे! स्वर के सिपाही
मैं दिखाती हूँ,
मेरा घायल अन्तर्मन
लहूलुहान हुआ मेरा क्षीण तन,
नोची हुई मेरी भावनाएँ,
बस मुझ में भर उत्साह और जोश,
मैं लघु और क्षीणकाय सही
पर रोक दूँगी वह पीड़ा का दौर
जो चला था मेरी विवशता के साथ,
अब वह पूर्ण समझो संत्रासों की यात्रा।
अरे! स्वर के सिपाही
मैं दिखाती हूँ,
मेरा घायल अन्तर्मन
लहूलुहान हुआ मेरा क्षीण तन,
नोची हुई मेरी भावनाएँ,
बस मुझ में भर उत्साह और जोश,
मैं लघु और क्षीणकाय सही
पर रोक दूँगी वह पीड़ा का दौर
जो चला था मेरी विवशता के साथ,
अब वह पूर्ण समझो संत्रासों की यात्रा।
मैं बढ़ती हूँ उस नव पथ पर
जहां से आलोक
चला आता है मेरी ओर।
जिन्होंने मेरे पंखों पर चलाई है कर्तनी,
और मेरे तन-मन पर चलाई हैं दुधारी छुर्रियाँ
जरा उनसे हिसाब तो मांग लूँ ।
अब मैं लड़ती हूँ जीवन मूल्यों के लिए
घायल और लहूलुहान तन के साथ,
मुझे नहीं मालूम,
मेरी स्वत्व की लड़ाई में
मेरा कितने सिपाही साथ देंगे,
परंतु,
अदम्य हौसला और साहस
अब मेरे दाएं-बाए हैं,
इस लड़ाई में सहभागी हो कर।
जहां से आलोक
चला आता है मेरी ओर।
जिन्होंने मेरे पंखों पर चलाई है कर्तनी,
और मेरे तन-मन पर चलाई हैं दुधारी छुर्रियाँ
जरा उनसे हिसाब तो मांग लूँ ।
अब मैं लड़ती हूँ जीवन मूल्यों के लिए
घायल और लहूलुहान तन के साथ,
मुझे नहीं मालूम,
मेरी स्वत्व की लड़ाई में
मेरा कितने सिपाही साथ देंगे,
परंतु,
अदम्य हौसला और साहस
अब मेरे दाएं-बाए हैं,
इस लड़ाई में सहभागी हो कर।
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमंद।
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