Monday, 15 September 2014

शायद - हाँ, शायद- नहीं

वे खुश हैं
उनका मन का हो गया
तुम खुश हो
तुम्हारे मन का हो गया
इसी के चलते 
उलझ कर रह गए
कुछ जिंदगी के वे जरूरी क्षण
जैसे उलझ जाती है
पवन और पानी के वर्तुल बहाव में
क्षीण नौका,
जिस पर सवार है
दुःख का बोझा ढोए वे मछेरे
जो निकले हैं मछलियों की तलाश में।
समुद्र के किनारे कहने को हैं मछेरों के घर
वे घर झोंपड़ियों की शक्ल में
जहाँ नित टपकता है
समुद्री हवा के साथ लवण लिए पानी,
जहां औरते करती प्रतीक्षा
मछलियों के साथ समुद्र के यात्रियों की
जिनको पाने की ख़ुशी में
वे औरतें अपनी टेढ़ी-मेढ़ी पीत पड़ी
दन्तावलियों को दिखाएंगी
क्योंकि छातियों को खींचते बच्चे
अब दिवस भर मछलियों के साथ उलझेंगे
वे मछेरों के साथ
चुल्हे में धूम्र भरेंगी
धूम्र से फूटी अश्रुधार में निहारेगी समुद्र के यात्रियों को,
शायद आज की रात चटाई के बिस्तर
और बाहुओं के उपाधान पर बीते
परन्तु, पवन और पानी का वर्तुल लहर ऐसा होने देगा
शायद - हाँ, शायद- नहीं, शायद- कभी-कभी, शायद- कभी नहीं।
पानी जैसा दिखाई देता
वह वैसा ही होगा कहना मुश्किल
पवन जैसा अनुभव होता
वह वैसा ही रहेगा कहना बहुत मुश्किल,
पवन और पानी के उलझे समीकरण से
जीवन के समीकरण को भी समझा जा सकता
शायद - हाँ, शायद- नहीं, शायद- कभी-कभी, शायद- कभी नहीं,
जीवन में मिलते हैं
भिन्न-भिन्न भूमिका में "वे" और "तुम"
साथ में "मैं" तो बस लाचार
देखता है समस्त घटनाक्रम
कभी उत्सुकता से,
जैसे मछेरे समुद्र से लौट आएंगे,
कभी भय से,
जैसे मछेरे इस बार लौट कर आएंगे नहीं
यह आसन्न भय जीवन से कभी तो विदा होता होगा -
शायद - हाँ, शायद- नहीं, शायद- कभी-कभी, शायद- कभी नहीं ।
किसी से क्या उम्मीद करें
जो बाहर से जैसा
वह अंदर से नहीं वैसा,
मैं थका नहीं हूँ,
और नहीं हूँ हताश
बस एक मिथक के गलत होने से
बहुत दुखी हूँ
जो कहता है-
जैसा वह बाहर दीखता
वैसा ही वह सब के अंदर रहता,
दोस्त सुनो-
समुद्र में उलझे मछेरों की औरतें बहुत परेशान नहीं होती होगी-
शायद - हाँ, शायद- नहीं, शायद- कभी-कभी, शायद- कभी नहीं ।
त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमंद।

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