Wednesday, 23 November 2011

मार कर के फर्राटा , वीर गया उस पार .

मार कर के  फर्राटा ,  वीर गया  उस पार ,
                   भूधर  की  तलहटी , बाज सम उतरा .
तोड़  कर के सन्नाटा , कपि चढ़ा भूधर पे,
                   उच्च एक श्रृंग पर , वह्नी  सम  दहका.
मार कर के घर्राटा , दृष्टि डाली चहुँ ओर,
                   हरी-भरी प्रकृति मे ,मणि सम चमका.
दूर से आया चर्राटा , जहाँ स्वर्ण नगरी थी,
                   तमतमा  कर बढ़ा , रवि  सम  दमका . 


स्वर्ण मढ़ी लंका खड़ी ,पग-पग रत्न जड़े ,
                   आभ पड़े नगरी पे, चक्षु चुंधियाती है .
बहु पीन परकोट , खूब फैले राज पथ ,
                   फणी सम वीथियों  में, बुद्धि चकराती है  .
यत्र-तत्र ताल कूप , तडाग बाग़ नालियाँ ,
                    झरनों की झरन में , वृष्टि  मंडराती  है.
ठौर-ठौर मधुशाला , ठौर-ठौर वधशाला ,
                    देख भ्रष्ट मर्यादा को,आत्मा तलफाती है.


लेकर के सूक्ष्म रूप , नर-नारी बीच पैठ ,
                  गतिविधि  देख कपि , सुचर  से  बढ़ते.
द्वार-द्वार पहुँच के, पोल-पोल पैठ  कर ,
                   कक्ष-कक्ष छान कर, शोधक से लगते.
फिर नयी ठोर दिखे, फिर नयी आस बंधे ,
                     तत क्षण दौड़ जाते, धावक से लगते.
 मिले नहीं महतारी, आँखे भर-भर आती ,
                    वक्ष बैठ-बैठ जाता , बालक से लगते .



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