Monday, 28 November 2011

प्राची अनुराग लिए , स्वर्ण किरणें फेंकती,
                      भाग  फटे जाग  हुई , विभीषण  जागते .
राम-राम हरे राम , हरे-हरे राम-राम,
                       कोमल सुकंठ लिए , नाम श्री अलापते.
द्विज रूप धार कर, नम्र हुए हनुमान , 
                       चकित हैं विभीषण, विस्मित विराजते .
आप कौन द्विज श्रेष्ठ , हर हैं या हरि मेरे ,
                       राम  हैं या  रमापति ? पूछ  के दुलारते.


नम्र होके बोले कपि , क्षमा करें संत श्रेष्ठ ,
                        द्विज  नहीं  वानर हूँ, यहाँ  मैं प्रवासी हूँ .
हर नहीं हरी नहीं , नहीं राम रमापति ,
                         राम - दूत हनुमान , भारत  निवासी हूँ .
सरल पुनीत आप , राक्षसों के मध्य कैसे ?
                         यही सब जानने को,अतीव जिज्ञासी हूँ. 
मेरे स्वामी राम जी हैं, सीता उनकी प्रेयसी ,
                         सीता शोध के लिए ही,पूर्ण मैं प्रयासी हूँ.


नम्र होके विभीषण , बोले हनुमान से ,
                          आप  मेरे अतिथी हैं , श्रम  परिहारिए .
नित्य कर्म निवृत्ति ले, संध्या-वंदन कर लूं ,
                          राम -नाम ले ही लूं,अल्पाहार कीजिए.
आप जिस कार्य हेतु , यहाँ तक आये हैं ,
                           संकल्पबद्ध  उसमें , सहयोगी जानिए.
धीर-बुद्धि विभीषण , यह कह बढ़ गये,
                            डूब गये चिन्तना में,ऊभ-चूभ मानिए.                  

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