नगर के चहुँ ओर , हलचल अतिशय ,
सुभट के दल से है ,रक्ष - देश रक्षित .गज-अश्व उष्ट्र -खर, सुरथ की सवारी है,
दौड़ रहीं डोलियाँ हैं , दीन यहाँ शोषित .
अति लोल ललनाएं , रुचिर श्रृंगार किये,
मदन संचार करे , मार हुआ वन्दित.
नर सब भीम काय , भोग की ही लिप्सा में ,
मद्यपान में ही रत , धर्म हुआ उपेक्षित .
हनुमान रुककर , क्षण भर सोचते हैं,
यत्र-तत्र स्वर्ण-सज्जा,भोग की ही संस्कृति .
रक्ष-नर हिंसा रत, अहिंसा पानी भरती ,
दया- धर्म -प्रेम नहीं , विकृति ही विकृति.
रक्ष- देश ललनाएं , उन्मुक्त हो के रहती,
लाज- शर्म -त्याग नहीं, है मकारी प्रकृति.
आतंकित नर-वृन्द , भयभीत देव-वृन्द,
दशानन का देश है , दमन की आकृति.
लंक- देश में पतित , देख कर मूल्य को,
क्रुद्ध हुए कपि श्रेष्ठ , छूट गयी लघुता .
पूर्व रूप पाते ही , देख लिया प्रहरी ने,
अस्त्र-शस्त्र ले के दौड़े,उनकी ही प्रभुता.
कपि कहाँ चुप रहे ,छीन लिए अस्त्र-शस्त्र,
इक्षु दंड सम चीर , बताई दी गुरुता .
पार्श्व में प्रासाद देख ,पुनः लिया रूप लघु ,
वेग से प्रवेश कर ,काम ले ली दक्षता.
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