Friday, 6 July 2012

चुपके से कोई....

चुपके से कोई ,
मुझ को जगा गया।
मेरी निंदिया ही ,
मुझ से चुरा गया।


घायल पंछी सा अब फिरता हूँ इधर-उधर ,
तब से ही खोज रहा हूँ उस को इधर-उधर .
मैं अपने में समझा बन कर के ही रहता हूँ ,
वो पगला कहते लोग मुझे बस इधर-उधर ।


चुपके से कोई ,
मुझ को हिला गया।.
मेरी निंदिया ही ,
मुझ से चुरा गया।


गीतों में गाता हूँ उस नटखट को यहाँ-वहाँ ,
छंदों में रचता हूँ उस अनुभव को यहाँ-वहाँ .
घायल की गति को घायल जाने यहाँ-वहाँ,
मैं जाग रहा हूँ पर दुनिया सोती यहाँ-वहाँ ।


चुपके  से कोई ,
मुझ को बींध गया।
मेरी निंदिया ही,
मुझ से चुरा गया।


कभी रज-कण में वो अनुभव होता जाता है ,
विस्मित कलियों में अनुभव होता जाता है .
अनुभव होता  शिशु की शुचि किलकारी में,
विदग्ध ममता में वो अनुभव होता जाता है।


चुपके  से कोई ,
मुझ को रुला गया।
मेरी निंदिया ही,
मुझ  से चुरा गया।

वह पवन चला कर ,नित आंसू पोंछा करता ,
वह रिमझिम बौछारों से भी बहलाया करता .
श्याह रात में आँख मिचौनी भी खेला करता ,
दूर देश से लगा पुकारें वह  उकसाया करता ।


चुपके  से  कोई ,
मुझ को मोह गया।
मेरी निंदिया ही , 
मुझ  से चुरा गया।

कई रूप में एक वही तो मेरा प्रियतम ही है,
हाँ-हाँ मेरा वह ही तो नटखट प्रियतम ही है .
चाहे जैसे वो खेले मैं तो एक खिलौना ही हूँ ,
अन्दर - बाहर एक वही मेरा प्रियतम ही है।


चुपके से  कोई ,
मुझ को बता गया।
मेरी निंदिया ही,
मुझ  से चुरा गया।

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