जाते हुए मुड़ के देखे भी नहीं वे , ऐसा होगा सोचा भी नहीं .
गीला कर देंगे मौसम को भी वे , ऐसा होगा सोचा भी नहों .
गीतों-गजलों में उन को मढ़ दूं , जैसे है वो कंचन का पानी .
पहले ही फिसल गये हाथों से वे ,ऐसा होगा सोचा भी नहीं .
कल तक तो चर्चा थी मेरे हैं वे , ऐसा सब लोग कहा करते .
आज हुए हैं हवा के झोंके से वे , ऐसा होगा सोचा भी नहीं .
कल तक सांसों के सरगम थे , देख कर जी लिया करते थे .
सधे हुए तारों को तोड़ चले हैं वे ,ऐसा होगा सोचा भी नहीं .
परछाई बन-बन कर के वे , कभी प्यार की बौछारें करते थे .
मेरा ही जनाजा उठाने आते हैं वे , ऐसा होगा सोचा भी नहीं.
कृपया,रचना पढ़ कर अपने विचारों से अवश्य अवगत कराने की कृपा करें. कृपया आप अपनी टिप्पणियों से यहाँ लाभान्वित करें.सादर धन्यवाद.
ReplyDelete