कोई वीर ओज भर , सभा मध्य उठ कहे ,
नृप आप निश्चिंत हो , वारुणी को पीजिए .
अभी इसी काल जाऊं , दोनों भ्राता मार आऊं ,
सहज है मेरे लिए , कौशल को देखिए .
राम वाहिनी को अब , दण्डित ही मानिए .
लक्ष्मण सुग्रीव सह , राम का दमन करूँ ,
वाहिनी चर्वण करूँ , सुख कर सोइए .
इसी मध्य वीरमणि , विभीषण आ कर के ,
रावण-सम्मान किया ,उचित प्रणाम से .
ऊर्ध्व हस्त तान कर , नृप जयघोष कर ,
रावण-प्रसन्न किया , उचित सम्मान से .
नृप मन मोद भर , आसन संकेत किया ,
अनुज ने आसन को , लिया व्यवहार से .
रावण भी अनुज को , देख रहा एक दृष्टि ,
मिलन वो चाहे मानो , अनुज विचार से .
आसन को पा कर के , बैठ गए विभीषण ,
तन से अचल लगे , सचल अन्तर था .
रावण अनुज देखे , अनुज रावण देखे ,
रावण सभा के मध्य , मोन ही प्रमुख था .
देख कर विभीषण , रक्ष वर चुप हुए ,
जैसे छिपे तारागण , रवि का प्रहर था .
उचित समय जान , विभीषण बोल पड़े ,
वाणी तो सरल रही , संवाद प्रखर था .
No comments:
Post a Comment