मेरे पास है गुलाब ,
जिस में है,
तुम सी ही नजाकत ,
तुम सा ही रंग ,
और ,
तुम सा ही पवित्र रूप ,
गुलाब धीमे-धीमे ,
धड़कता है ,
इस के स्पंदन में ,
तुम सी ही गति ,
और ,
तुम सा ही है लय ,
होता है अनुभव .
कभी- कभी ,
इस समानता से ,
संशय हो जाता है ,
गुलाब से तुम हो ,
या,
तुम सा है गुलाब .
गुलाब लिए हुए है ,
अन्दर एक विस्तार ,
और,
वही गुलाब लिए हुए है ,
बाहर भी एक विस्तार ,
और मैं ?
अन्दर और बाहर ,
दौड़ता रहता हूँ ,
विचलित होकर ,
उस गुलाब को ,
अपने में समेटने के लिए ,
किसी अबोध की तरह ,
जो लेना चाहता है ,
गुडिया के नर्म-नर्म ,
सूर्ख रसीले लाल-पीले बाल.
मैं चाहताहूं अबोध रहना ,
क्योंकि -
समझदारी में बहुत खतरे हैं ,
और जहां तक ,
सवाल है गुलाब का ,
वह तो हमेशा ही ,
अबोध का ही है विषय .
समझदारी में ,
यह कोई विषय ही नहीं है ,
और ,
बना भी दिया जाये विषय ,
तो समझदारी में ,
यह फालतू का है विषय .
गुलाब और अबोधता ,
का है अपना एक रिश्ता ,
और इन दोनों के मध्य ,
कहीं झूलती है जिंदगी ,
इसीलिए तो मुझे ,
ये दोनों ही है बेहद पसंद.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.
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