छोटा और बड़ा ,
सरल और विरल,
सब टूटते हैं
हर तरफ " टूटन " ,
आज की सभ्यता की ,
मानो अनिवार्य शर्त है,
जिस के अभाव में ,
" आज से संदर्भित " ,
होने पर लगते हैं,
कई-कई प्रश्न.
चारो तरफ धरती पर,
कई सारी हैं दरारें,
जिन्हें देखने पर ,
आज के समय का ,
होता है बोध,
कई-कई बार,
यह भी होता है भ्रम,
हम अभी चटक जायेंगे,
भरभरा कर बिखर जायेंगे,
और " टूटन " -
जोर का अट्टहास लगा कर,
अभी उड़ाएगी हमारी खिल्ली .
" आज का और नया "
होने के लिए ,
क्या टूटना जरूरी है ?
क्योंकि " उन्हें "
कुलीन बनने की,
प्रक्रिया में,
बस टूटते हुए देखा,
और टूटने में,
" वे " किरच-किरच हो कर,
ऐसे बिखरते चले जाते,
जैसे कोई दीवार पर ,
बहुत ऊंचे टंगा शीशा ,
जो टूट कर बिखर गया,
जो अब टूटने के बाद ,
किसी काम का नहीं .
टूटना भी कभी-कभी ,
होता है सार्थक ,
जैसे कि टूटता है पानी ,
पानी ?
हाँ , पानी भी टूटता है,
पर पानी का टूटना ,
शीशे की तरह टूटना नहीं,
(शीशा टूट कर पैरों में गड़ता है,
अपाहिज करता है )
पानी टूटता है जीवन के लिए,
और टूट कर भी ,
बार-बार जुड़ जाता है ,
क्योंकि वह कभी भी ,
किरच-किरच हो कर बंटता नहीं,
जब भी मिलता है अवसर ,
बन जाता है नदी ,
दौड़ पड़ता है सागर की तरफ ,
फिर एक बार टूटने के लिए ,
फिर एक बार जुड़ने के लिए .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.
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