संसार तनावों से बना ,
या ,तनाव संसार से बने ,
कहना बहुत मुश्किल है ,
एक बात अनुभव होती है ,
हवा में गंध की तरह ,
संसार और तनाव ,
समानांतर पलते हैं,
ये घटने पर
समानांतर घटते हैं
और बढ़ने पर
समानांतर बढ़ते हैं .
जीवन में तनाव
उतने ही गैरजरूरी हैं,
जितना कि सूनापन ,
सूनापन !
अन्दर ही अन्दर
चुपचाप मारता है ,
हाँ, चुपचाप दबे पाँव,
मैंने देखा है तनाव का,
वह काल सा भयंकर रूप,
धनुष की प्रत्यंचा पर,
जो बाण के रूप में ,
बढ़ता है सर्राटे के साथ आगे,
बेधता है किसी विहग को,
और ,
एक चीख के साथ ही ,
संसार घट जाता है ,
नहीं चाहिए नहीं चाहिए
मुझे ऐसा विद्रूप तनाव,
जीवन के स्पंदन के विरुद्ध,
पलता है किसी काल-देह सा.
जीवन में तनाव ,
उतने ही जरूरी भी हैं ,
जितना की अपनापन ,
अपनापन !
अन्दर ही अन्दर
करता है सृजन ,
हाँ , चुपचाप दबे पाँव
यह भी देखा है तनाव का
नारायण सा वरद रूप ,
जो सितार के तारों पर ,
पतली-पतली अंगुलियाँ से ,
उभरते हुए देखा है ,
स्वर लहरी के रूप में ,
अनहद नाद की तरह ,
जिसे पा कर ,
बंद पडा जीवन का स्पंदन ,
फिर से स्पंदित हो जाता है,
और ,
एक गान के सह ,
संसार बढ़ जाता है ,
यही चाहिए यही चाहिए,
मुझे ऐसा सरस तनाव ,
जीवन के स्पंदन के पक्ष में ,
पलता है किसी प्राण-देह सा.
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.
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