कल की चिंता में ,
घुल जाता है आज ,
जैसे घुल जाता है ,
पानी में नमक .
जहां तक ,
सवाल है चिंताओं का ,
उस के लिए निवेदन है ,
वे बहुत निर्लज्ज हैं ,
समय के साथ-साथ
बड़ी होती चली जाती हैं ,
जैसे अस्त होते दिन के साथ ,
फैलती चली जाती हैं परछाई.
निर्लज्ज चिंताएं ,
जब फैलती हैं ,
तब ना जाने कब ,
फैला देती है अपनी
विशाल श्यामल भुजाएं,
और
उन निर्मम भुजाओं में ,
सब सिमट कर
बन जाते हैं निराकार ,
जैसे लिखे हुए भोजपत्रों को ,
डुबो दिया हो किसी ने नील में .
दो दिन से राजधानी में ,
लगा है चिंतन-शिविर ,
यह चिंतन आखिर कर ,
चिंताओं का ही है भद्र-रूप,
जहां आज चिंता प्रकट की गई ,
कल के सुन्दर स्वरूप के लिए,
ये " आज " और " कल "
सूरज की ही तो है अभिव्यक्ति ,
जिस के लिए कल मुझे,
कलम पूछने वाली है-
कवि ! तूने क्या कर लिया ,
तटस्थ हो कर भीष्म की तरह .
कवि से इतनी अपेक्षा क्यों ?
वह भी तो
जीवन-चक्र का हिस्सा है ,
उसे भी "चिंता" सालती है ,
बिक गई है सारी की सारी,
पुश्तैनी जमीन ,
घर टूट कर बिखर गया है ,
बचपन के साक्षी ,
साफ-सुथरे गली-चौराहे ,
भर गए है,
उत्कोचों और तस्करों से,
हिंस्र भेड़ियों से
बलात्कारियों के इश्तहारों से ,
जहां पर भी " कवि " तो लगा है ,
अपनी कलम को
घिस कर तीखी करने में ,
याद रखें -
उस की "कलम" तो "कलम" है ,
वह नोक रखती है , वह तीखी है ,
परन्तु एक बात साफ है ,
वह नश्तर नहीं है ,
वह धारदार हो कर
काटती है तो सही , जोड़ भी जोडती है .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.
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