भाग्य के भरोसे कभी , कर्मशील नहीं रहे ,
पतवार लिए हाथ , लड़ लेते धार से .
धूम्र देख होते खड़े , ज्वाल की तरफ बढे ,
चिंता नहीं कौन साथ , खेल जाते आग से.
भाग्य के भरोसे बैठ , गाते गीत भाग्य के हैं ,
काल के बंधन बंध , मारे जाते काल से .
कर्मवीर जगत में , नभ के सितारे से हैं ,
धरा उन की रही है , वे हुए प्रताप से.
जो निठल्ले ही रहे हैं , खाते रहे सोते रहे ,
दिवस को व्यर्थ किया , व्यर्थ के प्रलाप से .
वे निठल्ले चीखते हैं , दस दोष देखते हैं ,
देश को वे हीन कहे , व्यर्थ के विलाप में .
कर्मवीर सदा चले , नहीं देखे धूप-छाँव ,
सृजन को देखते हैं , देश के विकास में .
देश पे विपत देख , कर्मवीर वरवीर ,
असि धार दौड़ पड़े , सिंह से प्रताप से.
दौड़-दौड़ अरि कहें , आ गये प्रताप यहाँ ,
मार रहे काट रहे , हम को बचाइए .
झुण्ड-रूप दे कर के , भेज दिए राणा ओर ,
जोड़ हाथ कहे झुण्ड , हमें न कटाइए .
रुदन में अरि कहे , हाय अल्ला कहाँ फंसे ,
मेवाड़ के चंगुल से , हम को निकालिए .
कहाँ छिप गये यहाँ , अकबर मानसिंह ,
रूद्र सा प्रताप दिखे , कोई तो बचाइए .
मेवाड़ की ललनाएं , सजन से कह रही ,
देशहित भीड़ जाओ , अकबरी दल से .
हल्दी सम हल्दी घाटी , रक्त में नहाई हुई ,
लाल-पीली हो रही है , अकबरी दल से .
प्रिय घर लौटें तभी , अरि की विदाई हो ,
लड़-लड़ मर जाना , अकबरी दल से .
प्रताप मेवाड़ सा है , मेवाड़ प्रताप सा है ,
दो-दो हाथ कर आओ , अकबरी दल से .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.
पतवार लिए हाथ , लड़ लेते धार से .
धूम्र देख होते खड़े , ज्वाल की तरफ बढे ,
चिंता नहीं कौन साथ , खेल जाते आग से.
भाग्य के भरोसे बैठ , गाते गीत भाग्य के हैं ,
काल के बंधन बंध , मारे जाते काल से .
कर्मवीर जगत में , नभ के सितारे से हैं ,
धरा उन की रही है , वे हुए प्रताप से.
जो निठल्ले ही रहे हैं , खाते रहे सोते रहे ,
दिवस को व्यर्थ किया , व्यर्थ के प्रलाप से .
वे निठल्ले चीखते हैं , दस दोष देखते हैं ,
देश को वे हीन कहे , व्यर्थ के विलाप में .
कर्मवीर सदा चले , नहीं देखे धूप-छाँव ,
सृजन को देखते हैं , देश के विकास में .
देश पे विपत देख , कर्मवीर वरवीर ,
असि धार दौड़ पड़े , सिंह से प्रताप से.
दौड़-दौड़ अरि कहें , आ गये प्रताप यहाँ ,
मार रहे काट रहे , हम को बचाइए .
झुण्ड-रूप दे कर के , भेज दिए राणा ओर ,
जोड़ हाथ कहे झुण्ड , हमें न कटाइए .
रुदन में अरि कहे , हाय अल्ला कहाँ फंसे ,
मेवाड़ के चंगुल से , हम को निकालिए .
कहाँ छिप गये यहाँ , अकबर मानसिंह ,
रूद्र सा प्रताप दिखे , कोई तो बचाइए .
मेवाड़ की ललनाएं , सजन से कह रही ,
देशहित भीड़ जाओ , अकबरी दल से .
हल्दी सम हल्दी घाटी , रक्त में नहाई हुई ,
लाल-पीली हो रही है , अकबरी दल से .
प्रिय घर लौटें तभी , अरि की विदाई हो ,
लड़-लड़ मर जाना , अकबरी दल से .
प्रताप मेवाड़ सा है , मेवाड़ प्रताप सा है ,
दो-दो हाथ कर आओ , अकबरी दल से .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.