Wednesday, 15 May 2013

सजे-धजे हुए लोग


सजे-धजे हुए लोग ,
चीखते हैं ,
अन्दर ही अन्दर .
उनके मकान ,
बिना ही धुंआ किये ,
जलते हैं निःशब्द.

धवल पोशाक लिए  ,
दलदल में धंसे-धंसे,
लथपथ सने हुए ,
हंसते हुए लोग .
उन की हंसी के नीचे ,
कहीं दबी-दबी है रुलाई ,
और बहुत गहरे ,
उदासी ने उन्हें मथ डाला है ,
जैसे मथ डालता है
पागल गज ,
नम्र-कोमल पालकों को  .

कुछ भी संभव है ,
भगदड़ और भीड़ में,
किसी सुखद की ,
आशा करना व्यर्थ है .
सब कुछ शांत ,
परन्तु उस के तल में ,
छिपा हुआ है कोलाहल ,
जैसे समुद्र के ऊपर-ऊपर ,
पानी ठहरा-ठहरा हुआ ,
और ,
अन्दर ही अन्दर ,
दौड़ती है धाराएं ,
और फूट पड़ते हैं ,
भयंकर ज्वालामुखी ,
प्रगति के नाम भगदड़ ही ,
हिस्से में आई है .

प्रगति और विकास के ,
चक्के घूम-घूम ,
भर देते हैं कोष ,
लेकिन मन मधुकर की तरह,
अतृप्ति के कूप में ,
अन्दर ही अन्दर ,
धंसे चले जाता है ,
तब उस की तृप्ति के लिए ,
प्रयोजनरत आज का लोक ,
किसी गहरे दल में ,
फंसे चले जाता है ,
क्या यही प्रगति की नियति है ?
यदि हाँ...................................
तब , इस प्रगति के चक्के
जहां हैं वहीँ थम जाए .

त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

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