Tuesday, 21 May 2013

हेसियत नहीं रखते .


एक दिन सभी का ,
ध्येय एक था ,
एक ही मार्ग था ,
और ,
प्राणों से प्यारा ,
देश एक था ,
तब हम ,
सवा लाख के थे ,
आज ,
बदल गया हमारा ध्येय ,
बदल गया मार्ग ,
और ,
देश बाँट लिया गया है ,
अब हम ,
कानी कोडी की भी ,
हेसियत नहीं रखते .

अविश्वास और प्रपंच ने ,
हमें बहुत दूर ,
खडा कर दिया है ,
अब हम इकाई के रूप में ,
गिने और तोड़े जा सकते हैं ,
जैसे गिनी जा सकती है ,
आसानी से
भेड़-बकरियां
और
तोड़े जा सकते हैं
बिखरे हुए तिनके ,
अनायास ही ,
आखिर कर हमने,
खो दी आत्म-संगठन की ,
अमोघ शक्ति .

सत्ता-शक्ति और स्वत्त्व ,
निजी इच्छाओं में ,
इस तरह से ,
रच-बस गए हैं कि ,
देश-संस्कृति-स्वाभिमान ,
हो गए हैं गौण  ,
ये सत्ता-शक्ति और स्वत्त्व ,
के तल में ,
ऐसे दब गए हैं,
जैसे भरभरा कर गिरे ,
बहुमंजिले भवन के ,
मलबे में ,
दब गया हो कोई ,
माँ-बाप और बच्चों सहित,
हंसता-खेलता परिवार.

तुम्हारी छीना-झपटी ,
और ,
एक दूसरे को ,
विवादों में उलझाने की ,
पैशाचिक वृत्ति ने ,
हमारी सारी ऊर्जा ,
सोख ली है ,
जैसे जेठ में तपता रेगिस्तान ,
सोख लेता है पानी ,
जो छिपा बैठा था ,
किसी प्यासे की ,
प्यास बुझाने को ,
धरती की कोख में ,
ऐसे माहोल में ,
सीमा पार से ,
चले आते हैं ,
आदमखोर भेडिये ,
क्योंकि उन्हें भी चाहिए,
नर्म-गर्म गोश्त ,
कुछ जुगाली के लिए.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राज .)

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