Saturday, 29 October 2011

आग लगी जिसके घर में,बैठ वहाँ पर सुबक रहा.

आग लगी जिसके घर में,बैठ वहाँ पर सुबक रहा.
पास -पडौस इकट्ठा होकर , हाथ  करारे ताप रहा.

                  गुरु-चर्चा होगी ,लेखन होगा ,
                  रपट के सह विज्ञापन होगा ,
                  सब अपनी रोटी सेंक चलेंगे,
                  शेष पसारा - जलावन होगा.


जिसका सब कुछ चला गया,वह बैठा छाती पीट रहा.
हमदर्दी में जो हाथ बढ़ा था, वो ही उसको जला   रहा.

                   कुछ  नोचेंगे , कुछ  झपटेंगे ,
                   कुछ दाँत  गड़ायेंगे  गर्दन में, 
                   कुछ  झूमेंगे , कुछ  अकड़ेंगे ,
                   कुछ फूले न समायेंगे मर्दन में ,


जो लुटा गया है छला गया है, पदाघात से उछ्ल  रहा .
रक्षा हेतु  जो कदम बढ़ा था , वो ही उसको पीस  रहा.














































Wednesday, 26 October 2011

गीत रोशनी के गाता है , सिरफिरा यह मस्ताना दीप .

अन्धकार को दे चुनौती ,सजग खडा मस्ताना दीप.
गीत रोशनी के गाता है , सिरफिरा यह मस्ताना दीप .

            हाथ लगाना तुम मत इसको .
            नेह छलक कर ढुल जाएगा,
            नेह बिना जीवन मुश्किल है,
            जला दीप फिर गुल जाएगा ,

सारे पथ इससे ही निश्चित,अपने दम  मस्ताना दीप .
गीत रोशनी के गाता है ,सिरफिरा यह मस्ताना दीप .

           तूफानों में टीम-टीम करता ,
           रात बड़ी पर तनिक न डरता,
           पाठ  पढाता  है  यह  सबको ,
           निर्भय रहता कभी न मरता,

जीवन का दर्शन इसमें है, दर्शन दाता मस्ताना दीप .
गीत रोशनी के गाता है ,सिरफिरा यह मस्ताना दीप .

           काजल सी यह रात रात खड़ी है,
           अवरोधों से यह क्या खूब पटी है,
           निराकार  सी  सम्पूर्ण   दिशाएँ,
           तिस  पर  धरती कंटी - छंटी  है.

दूध धुला बस एक यही है, यह संघर्षी मस्ताना दीप .
गीत रोशनी के गाता है ,सिरफिरा यह मस्ताना दीप .

            मित्रों  आओ ! दीप  सजाओ,
            इस  दिवले   से दीप जलाओ ,
            जिस दिवले में  नेह  नहीं हो,
            किंचित  उसमें नेह मिलाओ ,

समरसता की बात है इसमें,यह संदर्शी मस्ताना दीप .
गीत रोशनी के गाता है , सिरफिरा यह मस्ताना दीप .

            धीरे-धीरे पथ पर बढ़  कर,
            सबको अपने साथ चलाये ,
            दीन -  हीन  चाहे  वेरी  हो ,
            सबको उजली राह बताये .

सन्देश है इसका सब अपने,सरल ह्रदय मस्ताना दीप .
गीत रोशनी के गाता है , सिरफिरा यह  मस्ताना दीप .

Tuesday, 25 October 2011

अरे ! रूपसी ,कहाँ चली.


अरे ! रूपसी ,कहाँ चली,
श्रम-परिहर  होने देती ,


झर-झर  कर पानी चला  ,
लगता जैसे झरना बहा  ,
रुनझुन करते वलय बजे  ,
मानो कोई गीत चला  ,
अरे प्रिये  !भोर से पहले ,
ना जाने कब  जाग गयी ?
मेरी आँख खुली तभी थी ,
स्नानाम्बु की धार बही.
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली, 
भोर-मुक्त   होने देती .


ओठों पर अर्चा गीत चढ़ा ,
देवालय हेतु थाल  सजा ,
मंथर-मंथर पाजेब बजी   ,
मानो कोई सितार बजी  ,
अरे प्रिये  ! इतना पहले,
देव-अर्चन में तन्मय हो, 
मेरी चेतना जगी तभी ,
मधुरा-मधुरा घंटी बजी ,
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली, 
अलस-मुक्त   होने देती .

तुलसी-पत्र रखे  हथेली ,
होठों को छू-छू  जाती ,
लिए तर्जनी पर चन्दन ,
भाल स्पर्श  करती जाती,
अरे प्रिये !घर की चिंता में ,
ना जाने कब से दौड़ रही ?
मेरी सुध लौटी तभी थी,
चरणामृत  की धार गिरी ,
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली, 
श्वप्न-मुक्त   होने देती .


सबका मंगल मांग रही,
रिद्धि -सिद्धि साध रही,
वैभव-वृद्धि ,श्री की सृष्टि ,
संतति-पुष्टि साध रही,
अरे प्रिये !उत्सव-प्रियता में ,
ना जाने कब  जाग गयी ?
मेरी संज्ञा स्वस्थ हुई थी,
जब सौंदर्य-लहरी  गूंजी ,
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली, 
पुण्य-धनि  होने देती .












Monday, 24 October 2011

प्रिय! बहुत बेशरम हो.


छोड़ कलाई, बाहर देखो,
अम्मा जाग गयी है.
प्रिय! बहुत बेशरम हो.

चुल्हा देखूं , चाय चढ़ा दूं ,
अम्मा से जय राधे कह  दूं,
उनके चरणों शीश नवा कर ,
घर-आँगन को ज़रा बुहारूं  ,
काम अभी तो बहुत पड़ा है,
जैसे छाती पर पहाड़ खडा है.
छोड़ कलाई, बाहर देखो,
अम्मा जाग गयी है.
प्रिय! बहुत बेशरम  हो.


दीपोत्सव की धन त्रयोदशी है.
लेने जाना है  बहिनों को भी ,
सबको कहना  परिवार सहित ,
देना निमंत्रण मित्रों को भी ,
याद करूँ कामों की सूची,
लगता है जैसे कथा चली ,
छोड़ कलाई, बाहर देखो,
दादी जाग गयी है.
प्रिय! बहुत  बेरहम   हो.

बाज़ार को जाना बहुत जरूरी ,
उपहार  को लाना बहुत जरूरी,
संध्या को आतिशबाजी होगी,
बच्चों को खुश करना बहुत जरूरी,
यह घर  मुझको ऐसे लगता ,
जैसे हम पंछी यह नीड़ हमारा ,
बस पीस रहे हैं घर  की चक्की ,
छोड़ कलाई, बाहर देखो,
बुआ जाग गयी है.
प्रिय! बहुत  बेसबर  हो.

संगी साथी से नहीं मिलें हैं  ,
बहुत शिकायत है पीहर की,
मिले  हुए एक अरसा बीता ,
नहीं खोज खबर है बाहर की ,
हम अपने में ही ऐसे खोयें हैं ,
जैसे नदिया में झरने खोये हैं,
छोड़ कलाई, बाहर देखो,
बिटिया जाग गयी है.
प्रिय! बहुत  बेखबर  हो.

Sunday, 23 October 2011

दीपोत्सव के इस महापर्व पर, सुनो प्रिये! मैं आभारी हूँ.

दीपोत्सव के इस महापर्व पर,
सुनो प्रिये! मैं आभारी हूँ.




दीपोत्सव के इस महापर्व पर,
सुनो प्रिये! मैं आभारी हूँ.


कोना-कोना  झाड़-पोंछ कर ,
तुम घर में  शुचिता ले आई ,
घर-आँगन यूं दमक रहे हैं,
जैसे दमके देह तुम्हारी ,
दीपोत्सव के इस महापर्व पर,
सुनो प्रिये! मैं आभारी हूँ.


दौड़-दौड़ कर तुमने मेरी ,
बिखरी टेबल खूब जमाई ,
इधर-उधर बिखरी रचना को,
बाँध पुलिंदा खूब संजोई ,
बदले में क्या दे सकता हूँ ?
सुनो प्रिये ! मैं लाचारी हूँ.

जीर्ण-शीर्ण कपड़ों की गठड़ी,
कृषक प्रिये को दे डाली ,
रद्दी कागज अखबारों की,
झट-पट कर डाली नीलामी,
अब यह घर है गंग-यमुन सा,
सुनो प्रिये! मैं व्यवहारी हूँ.

कोर किनारी मांडने रचकर ,
कदम-कदम पर दीप सजाये ,
जैसे नील वर्णी साड़ी पर,
पिरो दिये हों सलमा-सितारे ,
तेरी चित्रकारी के क्या कहने,
सुनो प्रिये! मैं आह्लादी हूँ.

आगत मित्रों को बड़े स्नेह से 
भांत-भांत के व्यंजन देती ,
अभ्यागत और मंगतों को भी ,
खाली झोली नहीं भेजती ,
तेरी ममता ही बोल रही है ,
सुनो प्रिये! मैं संचारी  हूँ .








Wednesday, 19 October 2011

महान लक्ष्य आनंद



सभी दुःख के कारणों में अपेक्षा ही मूल हैं. अपेक्षा के भ्रष्ट होते ही अहंकार का जन्म होता है. अहंकार बुद्धि को समाप्त कर अज्ञान को जन्म देता है. जिससे मस्तिष्क का नियंत्रण समाप्त हो जाता है. परिणामस्वरूप असम्यक व्यवहार होता है. असम्यक व्यवहार ही कष्टों का हेतु है.

सुख इन्द्रिय जनित है. इसके पीछे दुःख की सत्ता निरंतर है. जैसे दिन के पीछे-पीछे रात्रि की सत्ता स्वतः ही विद्यमान है. अतः सुख को 
साध्य ना बना कर आनन्द को साध्य बनाना जीवन का सही लक्ष्य है.

आनन्द का कोई द्वैत्व नहीं है यह अभयत्व स्वरूप है . यह निर्विकल्प है.

सत्य और आनन्द साधारण व्यक्ति के लिए एक जैसे हो सकते हैं परन्तु आत्मज्ञानी इनमें अंतर समझता है.आत्मज्ञानी यह अच्छी तरह से जानता है कि जिन कर्मों के पीछे मुझे जन्म मिला है उन कर्मों से छुटकार इतना आसान नहीं है. अतः वह कर्म तो अवश्य करता है परन्तु वे प्रायश्चित ही होतें हैं. अर्जित कर्म जितने घटते नहीं उससे ज्यादा वे बढ़ ही जातें हैं .इनको घटाने का एक ही विकल्प है -कर्म मात्र कर्म ना होकर अनुष्ठान हों . अनुष्ठान ही पूर्व कर्मों के प्रायश्चित मानें गयें हैं .

अर्जित कर्म बढ़ें नहीं .इस हेतु कदम-कदम संभल-संभल कर ही बढ़ाना होगा. आनन्द के मार्ग में सुख के अवसर कई-कई बार आयेंगे . जैसे ही उसके स्वाद के आस्वादन में लगे, आपके जीवन का उद्देश्य "आनन्द " आपके हाथ से गया . जीवन यात्रा बीच में ही छोड़ कर फिर से प्रारम्भ करनी होगी. यह प्रकृति का दंड है.

प्रकृति के दंड से बचने का एक मात्र उपाय अनुष्ठान का सम्पादन ही है . पुराणों में कर्मों को हीअनुष्ठान कहा गया है. (ये कहे गए कर्म सद्कर्म हैं ना कि असद्कर्म. )

अन्न को प्राण का कारण माना गया है. पुराणों में अन्न को "अन्न " तथा प्राण को "अन्नाद " कहा गया है . यह इसलिए कहा गया कि अन्न से प्राण की उत्पत्ति होती है और लय भी होता है. मजेदार बात है ना. आप ज़रा ध्यान से सोचेंगे तब यह बात विज्ञान सम्मत ही लगेगी . अन्न से जीवन पलता है. जन्म लेता है. विकास करता है, वंश को बढाता है और अंत में मिर्त्यु को प्राप्त हो कर मृदा में मिल जाता है. पुनः नव सृजन के रूप में अन्न के रूप में जन्म लेता है. अतः अन्न को ब्रह्म कहा गया है.

अन्न की उत्त्पत्ति के लिए जल की आवश्यकता है. जल के लिए पर्जन्य की आवश्यकता है . पर्जन्य के लिए यज्ञ की आवश्यकता है. यज्ञ ही अनुष्ठान है . अनुष्ठानों कीउत्पत्ति सद्कर्मों से होती है. हमारे द्वारा किये गये सद्कर्म प्रकृति के ऋतु चक्र को सुव्यवस्थित करते हैं . जिससे प्रकृति की अनुकम्पा बनी रहती है. प्रकृति की अनुकम्पा प्राप्ति हेतु किये गये अनुष्ठान प्रायश्चित हैं . ये किये गये प्रायश्चित ही हमारी जीवन यात्रा के सशक्त पुष्पक विमान हैं जो हमें हमारे जीवन के महत लक्ष्य तक पहुंचा देतें हैं . यह महान लक्ष्य आनंद ही है.

Sunday, 16 October 2011

भारत महान है

 भारत उतना ही महान है जितना कि ईसा से ५०००वर्ष पूर्व था . आज के जन मानस की जीवन शैली मैं जरूर अंतर आ गया है. पहले आध्यात्मिक  उपलब्धि प्राप्त करना मुख्य लक्ष्य हुआ करता था .भौतिक  उपलब्धि  गौण लक्ष्य  था तथा आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए साधन मात्र था. आध्यात्मिक उपलब्धि साध्य और भौतिक  उपलब्धि हेय एवं साधन मात्र था. आज यह जीवन परिदृश्य बदल सा गया है .भौतिक  उपलब्धि मुख्य लक्ष्य हो गया तथा आध्यात्मिक   उपलब्धि भौतिक  उपलब्धि के लिए साधन मात्र रह गया है . यह अत्यंत चिंतनीय विषय है. सच्चे भारतीय- संस्कृति -प्रेमी जन को इस हेतु स्व क्षमतानुसार  उचित प्रयास करना ही चाहिए.

भारत के जन-वृन्द का दिवस ही चरित्र की प्रतिष्ठा से प्रारम्भ होता है. जागरण के  समय ही परमपिता परमात्मा का स्मरण , माता-पिता को प्रणाम और नित्य कर्म  के पश्चात यौगिक  प्रक्रिया . यह एक अद्भुत दिनचर्या है. भारत में संध्या-वंदन का चलन रहा है.संध्या-वंदन के बाद ही अन्यान्य धार्मिक एवम सामाजिक अनुष्ठानों के सम्पादन कि स्वीकृति दी गयी है.संध्या-वंदन  में पढ़े जाने वाले समस्त वैदिक मन्त्रों में एक ही ब्रह्म की वन्दना है. सूर्य देव को  ब्रह्म स्वरूप मानते हुए मन ,वचन, कर्म से किये हुए समस्त पापाचरण से मुक्ति की प्रार्थना की जाती है. यह अपने आप में अद्भुत है. पाप से मुक्ति हेतु प्रायश्चित का यह दैनिक अनुष्ठान विश्व में और कहीं नहीं किया जाता. 

संध्या वंदन में सूर्य देव को जल से अर्घ्य  देने का विधान है. एक बार मेरे गुरु-श्रेष्ठ लक्ष्मी नारायण शास्त्री संध्या-वंदन कर रहे थे. मैंने बाल स्वभाव से पूछा- संध्या-वंदन में अर्घ्य  देते समय जलांजलि को ऊपर उठा कर क्यों  विसर्जन किया जाता है ? वे मुस्कराये और कहा-
"यह समस्त ब्रह्माण्ड पंच-तत्त्वों से विनिर्मित है. किसी भी एक तत्त्व की कोई उपादेयता नहीं ,प्रत्येक तत्त्व एक दूसरे से मिल कर सृष्टी की रचना में सहायक हुआ. जलांजलि में प्रथम जल को लेकर ऊपर उठाया ,यह जल को आकाश तत्त्व से मिलाया गया, जल के विसर्जन में जब जल ऊपर से छोड़ा जाता है तब यह वायु के मिलन का अवसर है. जल वायु से मिलता हुआ  पृथ्वी की ओर  बढ़ता है.वह अपनी ही गति से तेज  तत्त्व को प्राप्त कर लेता है .इस तरह  चार तत्त्व जल, वायु, तेज, और आकाश मिला दिये गए .अब ये  पृथ्वी से मिलते है. यह मिलन ही सृजन करता  है.  ब्रह्म   इसी तरह शिव रूप में  तत्त्वों का विखंडन एवम विष्णु रूप में  संयोजन करते हैं . हमें जीवन में सभी की उपादेयता संयोजन में ही देखनी चाहिए .सभी जड़ -चेतन पदार्थों में इन्हीं पंच तत्त्वों को देखना चाहिए और उनमें उस जीवन दाता ब्रह्म की अनुभूति करनी चाहिए . यही हमारी संस्कृति का मूल उत्स  है". दिवस की ऐसी निर्मल एवं कोमल आरम्भ की प्रक्रिया भारत के सिवाय कहीं देखने को नहीं मिलती है.

भारतीय संस्कृति "भय से मुक्ति " की एक सशक्त प्रक्रिया है. भय तब तक बना रहेगा जब तक द्वैत्व स्थापित है.
भय से मुक्ति के लिए ही भारतीय संस्कृति  अपने अंतर में प्रतिष्ठित पुरुष को बाह्य अशरीरी पुरुष के साथ एक रूप होने का सन्देश देती है. जो कुछ जगत में विद्यमान है और जैसा आप अनुभव कर रहें हैं बस वैसा  ही आपके अंतर में विद्यमान है. इस तरह द्वैत्व के स्थान पर अद्वैतव को स्थापित कर भय से मुक्ति का रास्ता दिखा दिया गया. यह ज्ञान से ही संभव है. ज्ञान सत्य और ब्रह्म नित्य है.

बिना ज्ञान के भय से मुक्ति नहीं .अज्ञान मोह का कारक  है. मोह पाप का तथा पाप भय का कारक है. अतः मुक्ति के लिए आत्मज्ञान जरूरी है .आत्म ज्ञान ही आनंद का  श्रोत्र एवम अभयत्व का  हेतु है. यह भारत की सांस्कृतिक पराकाष्ठा की  पहचान है. जिसे आज पश्चिम शारीरिक-भाषा के रूप में ले रहा  है.जिसे सीखने -सिखाने के लिए होड़ मची है.पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है. भारतीय इस में  पीछे नहीं है .वे अपने ही  उत्पाद को अन्य का मान खरीदने के लिए दीवाने दिखाई दे रहें हैं .

चीन , यूरोप ,अमेरिका जिस योग और अंतर-यात्रा की बात कर रहें हैं वह भारत की उन पर उधारी है. अंतर-यात्रा भारतीय साधना है. यहाँ अंतर की यात्रा चरित्र-शोधन एवम जबरदस्त चरित्र-प्रतिष्ठा की जीवन यात्रा  है. बिना चरित्र  के भला आत्मानंद स्वरूप ब्रह्म कहाँ मिलने वाला है ? श्रीमद भगवत गीता  में अर्जुन प्रभु श्री कृष्ण 
से पूछते है- प्रभु श्री! आपको कौन  सा व्यक्ति प्रिय है  ?  श्री कृष्ण कहतें हैं- अर्जुन ! जो व्यक्ति द्वेष से रहित रहते हुए सभी प्राणियों के साथ मित्रता और करुणा के साथ रहता हो ,अनासक्त एवम अहंकार रहित रहता हो, दुःख एवम सुख में सामान रहता हो ,जो स्वयं में सम्पूर्ण लोक को एवम सपूर्ण लोक में स्वयं को देखता हो ,जो हर्ष , क्रोध ,भय जैसे अनुदात भावों से मुक्त है वह ही मुझे प्रिय है. श्री कृष्ण ने उदात्त और उदार चरित्र को बता दिया .जिसका चरित्र उदात्त और उदार  है, वही आत्मज्ञान का अधिकारी  है,वही अन्तर यात्रा का अधिकारी हो कर विराट ब्रह्म   की सायुज्यता प्राप्त कर सकता है. मुझे दुःख है कि आज विश्व भारतीय चेतना को पकड़ रहा है और भारतीय अपने आत्म कल्याण को भूल कर साधन को ही साध्य मान  रहें हैं. 

जीवन का उद्देश्य आनंद है. क्योंकि ब्रह्म के सच्चिदानंद स्वरुप से सत-चित तत्त्वों से सृष्टि का रचन हुआ .सृष्टि में नहीं है, तो आनंद तत्त्व नहीं .इसीलिए यह सृष्टि निरानंद कही और मानी  गयी . जो नहीं है उसे तो प्राप्त करना है.आनंद नहीं है. उसे प्राप्त कर के ही जीवन सार्थक कर सकतें हैं .आनंद प्राप्त किया तो मान लो कि ब्रह्म मिल गया . उसे प्राप्त करने के ऋषियों ने छह मार्ग -अन्न ,प्राण ,चक्षु ,श्रोत ,मन और वाणी बताये. तपश्चर्या से इन मार्गों का निर्वाह करने का आदेश दिया . इसी से विज्ञान और आनंद प्रशस्त  होता है. और तभी विराट  ब्रह्म   में लय होता है. यह सब अभी बहुत आगे की बात है. पश्चिम  ने तो अभी सतही तोर पर इस विराट विषय का  स्पर्श मात्र  अनुकरण किया  है. अभी उसे बहुत  कुछ समझना शेष है.

सलिल जवाली की पुस्तक - "भारत एक परिचय " उन लोगों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त दस्तावेज है जो कि भारतीय  संस्कृति  को भूलने जा रहें हैं   या किसी भ्रम के शिकार हो कर पश्चिम  की अंधी दौड़ में भाग ले रहें हैं . पश्चिम चुपके-चुपके  ही सही भारत के पारलौकिक ज्ञान के प्रति विनत होता चला जा रहा है.
इसके लिए सलिल जवाली का प्रयास अभिवंदनीय है.










                   

                   

Saturday, 15 October 2011

मगर से वेर नहीं किया जाता है


पत्नी जी  ने प्यार से  पूछा,
आज दिन भर को ,
क्या करिएगा?
अचानक से दागे गए,
तोप के गोले से  सवाल ने ,
दिमाग के तंतु हिलाए, 
याद आया ,अरे रे !
आज करवा चोथ है .

तपाक से बोले-
ओ मेरी सरकार,
बधाई करें स्वीकार,
आज करवा चोथ है ,
दिन भर आपके साथ हैं,

दागा गया दूसरा सवाल -
आज नया क्या करिएगा ?
हमने तपाक से दिया जवाब -
शाम को लिखेंगे ,
एक पत्नी-व्रत पर कविता,
.
बाँक  नजर डाली हमपर,
और  कहा-
हाँ,कविता लिखो जरूर ,
परन्तु , नहीं होनी चाहिए,
किसी भी तरह  की बुराई.

हमने प्यार से कहा- 
नहीं रे,ऐसे थोड़ा होता है,
दरिया में रहना ,
और-
मगर से वेर करना ?

कहने को हम ने  कहा दिया......
............................................

अब वो हमें ताक रही थी ,
हम उन्हें  ताक रहे थे ,
उनका  प्याल छूट गया,
हमारा  पसीना छूट गया.

( सभी भाई-भावज  को करवा चोथ की बधाई)
===============================

Friday, 14 October 2011

ये हजार बच्चे आपके

कुछ  दिनों से फोन बार-बार आ रहे थे . एक सज्जन रोज कहतें हैं - हमें आपसे मिलना है, हम स्कूल मैं कुछ करना चाहतें हैं. आज उन्हें समय दिया.समय पर वो आगये. एकदम भद्र पुरुष . परिचय हुआ. साथ-साथ चाय पी गयी .

बात का दौर शुरू हुआ . वो कुछ इस तरह था-

हाँ साहब अब बताइये ,मैं आपके लिए क्या सेवा कर सकता हूँ ?

आगंतुक महानुभाव ने एक बार गहरी सांस ली. धीरे से बोले- मैं सीधे-सीधे काम की बात पर ही आ जाता हूँ. हाँ जी, बात यह है कि इस विद्यालय की स्थापना में मेरे पिता का योगदान रहा है.मैंने भी यहीं से पढ़ाई आप जैसे गुरुजन से की है.

मैंने साश्चर्य कहा- वाह क्या बात है?
उन्होंने कहा- हाँ, पिता को जन्म के सो साल पूरे होने जा रहें हैं .
मैंने ख़ुशी प्रकट करते हुए कहा - वाह-वाह ! क्या खूब कही. बधाई हो सर.
वो बोले -धन्यवाद. तो साहब हम उनकी याद में यहाँ कुछ बनवाना चाहते हैं.
में बहुत प्रसन्न था -बहुत अच्छा सर .

उन्होंने मेरे चेहरे पर आँखे गड़ाते हुए कहा- आप के स्कूल की क्या आवश्यकता है ?
मैंने सबसे पहले उन्हें पांच कक्षा-कक्षों की एक पूरी श्रृंखला बता दी . उन्होंने नाप जोख निकाला. अनुभव बोलने लगा.उन्होंने कहा -साहब यह मामला तो सत्रह लाख का है ?
मैंने कहा- हाँ सर.
वो मेरी तरफ मुखातिब होकर बोले - आप मुझे सर-सर नहीं बोलें .

में गंभीर होते हुए बोला - तो में आपको क्या बोलूँ ? अच्छा में आपको भाई साहब बोलूँ ?

वे खुश हो गए और बोले- हाँ ,यह बिलकुल ठीक है. हाँ तो में कहा रहा था कि यह सत्रह लाख का खर्चा है. मेरा बजट दस-ग्यारह लाख का है.उन्होंने अपनी और से इशारा करते हुए कहा- वहाँ , उस जगह हम एक होल बनवा देते हैं.

मैंने कहा-आइये भाई साहब , में एक और योजना आपको दिखाता हूँ. मैंने उन्हें तीन कक्षा-कक्षों की श्रृंखला बताई .सारी योजना देख कर खुश हुए .
उन्होंने उसे बनवा देने की शपथ ले ली .

जाने लगे. में विदा करने के लिए बढ़ा .मुझे रोकते हुए कहा- नहीं-नहीं .आप अब नहीं आयें.मैंने वैसे ही बहुत कष्ट दिया है.
मैंने कहा- नहीं भाई साहब , मुझे आने दीजिये, यह मेरा अधिकार है.
उन्होंने कहा- नहीं बस यहाँ तक काफी है.

मैंने दृढ़ता से कहा - भाई साहब हम दोनों को बच्चे देख रहें हैं . मैंने आपको ससम्मान विदा नहीं किया तो मेरे बच्चे क्या सीखेंगे ?

वो बोले- वाह क्या बात है. आपने मुझे निरुतर कर दिया. चलिये.हम साथ हो लिए.में बहुत उल्लसित और खुश था . दरवाजे के बाहर गाड़ी खड़ी थी. यकायक रुके और बोले - भगवान् की दया से मेरे पास सब कुछ है परन्तु..............

वो रुक गए. उनका कंठ रुंध गया.मेरे हाथ को अपने हाथ में लेते हुए कहा- गत वर्ष मेरा लड़का चला गया. बहुत कुछ है पर कोई खाने वाला नहीं.

इस बार मेरा कलेजा थम सा गया . मैंने उनकी आँखों में तैरते हुए उस पिता के दर्द को देखा. मेरी ख़ुशी कहीं खो गयी.
मैंने उन्हें धैर्य बंधाते हुए कहा- भाई साब ये हजार बच्चे आपके मानों , में भी तो.......

उन्होंने मेरे कन्धों को दबाते हुए कहा- वाह, सब कुछ मिल गया.अब वो बहुत उल्लसित और खुश थे और में बिलकुल उदास.

Tuesday, 11 October 2011

मेरे पहले-पहले प्यार,

मेरे  पहले-पहले प्यार,
तुम सात समुन्दर पार,
कैसे हो ................


तुम शरद पूनो का ,
चाँद बन कर ,
ताकने जो चले  आये  ,
इतना पूछने का हक़ ,
मेरा भी बनता है,

आज भी तुम 
चाँद के रूप में आ  हँस रहे .
आज तुमको पकड़ने की कोशिश 
कतई नहीं करूंगा ,
नहीं तो तुम भाग जाओगे 
हिरन की तरह  कुलांचे मारते .

रात भर बस तुम्हें
ताकता ही रहूँगा ,
फिर तुम लौट कर ,
साल भर बाद आओगे.
और-
मेरी सिसकियों के संगीत में 
दिशाएँ भीग जायेंगी .


मेरे  पहले-पहले प्यार,
तुम  आजाओ इस  पार,
क्या तुम आओगे  ................


ओ ! शरद पूनो के चाँद  ,
जब से तुम छोड़ कर गए  ,
सब कुछ बदला-बदला सा है ,
बस मैं वो ही हूँ  ,

तेरे जाने पर,
गहन उदासी है
दरवाजे  पर दस्तक
कोई देता ही नहीं,
अपरिचय का बहता रेला ,
अब संवेदना ही नहीं 
कतई नहीं करूंगा कोई बहस  ,
नहीं तो तुम मुरझा   जाओगे 
पञ्च-पत्ती  के पुष्प की  तरह  .

रात भर बस वर्तमान को 
सींचता  ही रहूँगा ,
फिर तुम लौट कर ,
साल भर बाद आओगे.
और-
मेरी  दौड़ - धूप में 
पगतलियाँ  धरा नाप जायेंगी .

Sunday, 9 October 2011

पिल पड़ेंगे गुंडे सारे ,गुरु नंगे होते देखिये.

सरपंच का  ज़रा गुंडई  राज तो देखिये.
पीट दिये गये गुरू जी, खबर तो देखिये.

साधना के केंद्र सारे,अखाड़े बनते देखिये.
भाइयों को राजनीति के दंड पेलते देखिये .

आदमी बनने थे बच्चे, मुर्गा बनते देखिये.
लूट-डकैती-ह्त्या वाले ,धोंस जमाते देखिये .

यार तू क्यों रो रहा , अपनी रोजी  देखिये .
जगत गुरु के देश में .हजार कसाब देखिये.

जनाब चुप रहे तो यार ,आगे दृश्य  देखिये.
पिल पड़ेंगे गुंडे सारे ,गुरु नंगे होते देखिये.







Saturday, 8 October 2011

तभी तो संवर पाएगी बेटियों सी बच्चियाँ,

शान्ति की देवियाँ ,
तुम्हें मिला है -
शान्ति का नोबेल पुरस्कार,
परन्तु देवियों !
अभी जरुरत है ,
देश और दुनिया को 
तुम जैसी कई-कई देवियाँ.

दुनियाँ के किसी भी कोनें में,
मार दिये जाते हैं गर्भस्थ शिशु ,
मात्र इसलिए कि गर्भस्थ शिशु ,
बच्चा नहीं,वह  है बच्ची,
अभी तो चलना ही  चलना है 
और-
अपनी आँख साधनी है ,
तभी तो बच पाएगी गर्भस्थ बच्चियाँ,
चाहिए शान्ति की   कई-कई देवियाँ.

गर्भस्थ बच्ची का हो गया जन्म ,
क्या यह तय है कि वह बची रहेगी ?
सच तो यह है कि-
वह कभी भी  हो जायेगी शिकार ,
अपने ही किसी के हाथों .

भूख से मार देगी उसे अपनी अम्मा,
उसकी नाक में ठूंस देंगी राख दाई माँ,
पानी में डूबा देगा उसे उसका अब्बा,
या, और कोई इसी तरह ,.................
घात लगाये बैठें हैं  बहेलिये ,
हो जाएगी  किसी के हाथों शिकार,

अभी तो काली स्याह रात बाकी  है,
और-
अपनी मुट्ठियाँ कसनी बाकी हैं ,
तभी तो बच पाएगी सद्यः प्रसूता बच्चियाँ,
चाहिए शान्ति की कई-कई देवियाँ .

आँगन में नाचती है बच्चियाँ,
गली में खेलती है बच्चियाँ,
स्कूल आती-जाती है बच्चियाँ,
भेड़ियों के निशाने पर है बच्चियाँ,
उठाली जायेगी ,नोच दी जायेगी ,
या-
किसी चकले पर बेच दी जायेगी,
अनंत यंत्रणाओं के समंदर में ,
डूबोदी जायेंगी फूल सी बच्चियाँ,
अभी तो छद्म युद्ध   बाकी  है,
और- 
तलवारें भांजना बाकी है,
तभी तो बच पाएगी फूल सी बच्चियाँ,
चाहिए शान्ति की कई-कई देवियाँ .

शान्ति की देवियाँ !
पहचानों अपने अधिकार,

तथाकथित आचरण के ठेकेदार,
परदे  में धकेलते हैं  बच्चियों को ,
सरे राह खदेड़तें हैं बच्चियों को ,
विश्रामालयों में पीटते हैं बच्चियों को ,
या-
उपभोग की वस्तु मानते है बच्चियों को,
जला डालते  हैं नराधम बच्चियों को ,
अभी तो अस्तित्व की लड़ाई   बाकी  है,
और-
नराधमों की चीर-फाड़ बाकी है,
तभी तो संवर  पाएगी बेटियों  सी बच्चियाँ,
चाहिए शान्ति की कई-कई देवियाँ .














Friday, 7 October 2011

आदरांजलि-श्रद्धांजलि - स्टीव जॉब्स

स्टीव जॉब्स मैं कैसे दूं 
आपको श्रद्धांजलि 
मेरे पास नहीं हैं 
उचित शब्द-अभिव्यक्ति .

आपने खाएं हैं 
बहुत सारे थपेड़े, 
शायद आपका जन्म,
हुआ था तूफान की ,
आलोड़ित तरंगों पर ,

माँ की पवित्र कोख में ही,
लिख दिया था ईश्वर ने ,
आपके भाग्य में भटकन,
परन्तु -
बदल दिया भटकन को ,
स्वयं ने अपने लिए-
वरदान,
शायद आप माँ की कोख में ,
आते ही हो गए थे सकारात्मक ,
सच में यार!
तभी तो हो पाए -
अद्भुत इंसान .

सीखने के लिए चाहिए,
कुंठा रहित जीवन ,
अंतस की प्रेरणा ,
और -
अबोध शिशु सा खालीपन ,
आपने जिया है सम्पूर्ण जीवन ,
अपने बचपन के साथ,
बचपन कभी याद नहीं रखता,
अपना मूल उत्स ,
हमेशा रखता है,
अपने आपको खाली ,
तभी तो -
कहीं भी खा लेना , 
कहीं भी सो लेना,
बड़ी सहजता से कर लेता है ,
तभी तो वह बढ़ता चला जाता है,
पहाडी झरने की तरह .

स्टीव जॉब्स आपकी ,
सकारात्मक सोच ने ,
बढ़ा दिया है आपका कद ,
जीवन भर ढ़ोया है ,
पवित्र बचपन ,
इसीलिये हो गए हो मेरे लिए ,
मेरे प्यारे बाबा गांधी जैसे.
पहले पत्र में थी कुछ कड़वाहट,
वैसी ही कुछ कड़वाहट है इसमें भी  ,
परन्तु ,
यहाँ है मेरी आपके प्रति -
आदरांजलि-श्रद्धांजलि है .
मेरे  पत्र का इंतज़ार करो.







स्टीव जॉब्स सुनो

स्टीव जॉब्स सुनो  -
तुम उतने ही भाग्यशाली हो 
जितना कि शकुन्तला-पुत्र
परन्तु कई मायनों में
आप ज्यादा भाग्यशाली हैं.

आप का जन्म
कोलंबिया में हुआ
सच पूछो तो 
यह बहुत अच्छा  ही हुआ,

यदि आप भारत में 
अविवाहित माँ से 
जाये होते
तब-
सच मानों या तो आप 
किसी कूड़े के ढेर पर 
फ़ेंक दिये जाते ,
किसी कचरे की तरह 
या-
जिन्दगी भर सहन करते
दुनिया भर की जलालत,
और दुत्कारे  जाते ,
जैसे दुत्कारा जाता है
गली का श्वान.

और-
तुम्हारी माँ
चौराहे पर लाकर
मारी-घसीटी जाती,
कुलटा कह-कह  कर
प्रताड़ित की  जाती,
उसके नाम के चल पड़ते
कई किस्से .
और जोड़े जाते उसके साथ
और कई तथाकथित नाम.
तुम्हारी जिन्दगी यों ही बीत जाती
धरी कि धरी रह जाती
तुम्हारी प्रतिभा
और-
कहीं, कभी का ठंडा पड़ जाता ,
काम करने का जज्बा ,

स्टीव जॉब्स सुनो
तुम जहां भी हो
पर अच्छे  हो
ईश्वर आपकी आत्मा को
शान्ति प्रदान करे .
मैं कोलंबिया को
सलाम करता हूँ
तुम्हारी कहानी से
यही लगता है
वहाँ बच्चों को  नहीं फैंका जाता
कूड़े के ढेर पर
और नहीं सताई जाती
अनब्याही माँ,
सचमुच तुम भाग्यशाली हो .

मैं तुम्हारी माँ को
बार-बार करूंगा प्रणाम
उसके साहस को
जिसने तुम्हे नहीं फैंका
कूड़े के ढेर पर
या-
चुपचाप नहीं किया दफन .
उसके साहसे से ही तो मिला
दुनियाँ को तुम्हारे माध्यम से
बहुत कुछ .
सचमुच तुम भाग्यशाली हो,
तुमने पायी  थी साहसी माँ.

स्टीव जॉब्स सुनो
तुम्हारे प्रति मेरा गहरा  है आदर
मैं अभी तुमसे
और बात करना चाहूँगा,
मेरे ख़त का करना इंतज़ार.







संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...