Tuesday, 25 October 2011

अरे ! रूपसी ,कहाँ चली.


अरे ! रूपसी ,कहाँ चली,
श्रम-परिहर  होने देती ,


झर-झर  कर पानी चला  ,
लगता जैसे झरना बहा  ,
रुनझुन करते वलय बजे  ,
मानो कोई गीत चला  ,
अरे प्रिये  !भोर से पहले ,
ना जाने कब  जाग गयी ?
मेरी आँख खुली तभी थी ,
स्नानाम्बु की धार बही.
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली, 
भोर-मुक्त   होने देती .


ओठों पर अर्चा गीत चढ़ा ,
देवालय हेतु थाल  सजा ,
मंथर-मंथर पाजेब बजी   ,
मानो कोई सितार बजी  ,
अरे प्रिये  ! इतना पहले,
देव-अर्चन में तन्मय हो, 
मेरी चेतना जगी तभी ,
मधुरा-मधुरा घंटी बजी ,
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली, 
अलस-मुक्त   होने देती .

तुलसी-पत्र रखे  हथेली ,
होठों को छू-छू  जाती ,
लिए तर्जनी पर चन्दन ,
भाल स्पर्श  करती जाती,
अरे प्रिये !घर की चिंता में ,
ना जाने कब से दौड़ रही ?
मेरी सुध लौटी तभी थी,
चरणामृत  की धार गिरी ,
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली, 
श्वप्न-मुक्त   होने देती .


सबका मंगल मांग रही,
रिद्धि -सिद्धि साध रही,
वैभव-वृद्धि ,श्री की सृष्टि ,
संतति-पुष्टि साध रही,
अरे प्रिये !उत्सव-प्रियता में ,
ना जाने कब  जाग गयी ?
मेरी संज्ञा स्वस्थ हुई थी,
जब सौंदर्य-लहरी  गूंजी ,
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली, 
पुण्य-धनि  होने देती .












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