अरे ! रूपसी ,कहाँ चली,
श्रम-परिहर होने देती ,
श्रम-परिहर होने देती ,
झर-झर कर पानी चला ,
रुनझुन करते वलय बजे ,
मानो कोई गीत चला ,
अरे प्रिये !भोर से पहले ,
ना जाने कब जाग गयी ?
मेरी आँख खुली तभी थी ,
स्नानाम्बु की धार बही.
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली,
भोर-मुक्त होने देती .
ओठों पर अर्चा गीत चढ़ा ,
देवालय हेतु थाल सजा ,
मंथर-मंथर पाजेब बजी ,
मानो कोई सितार बजी ,
अरे प्रिये ! इतना पहले,
देव-अर्चन में तन्मय हो,
मेरी चेतना जगी तभी ,
मेरी चेतना जगी तभी ,
मधुरा-मधुरा घंटी बजी ,
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली, अलस-मुक्त होने देती .
तुलसी-पत्र रखे हथेली ,
होठों को छू-छू जाती ,
लिए तर्जनी पर चन्दन ,
भाल स्पर्श करती जाती,
अरे प्रिये !घर की चिंता में ,
अरे प्रिये !घर की चिंता में ,
ना जाने कब से दौड़ रही ?
मेरी सुध लौटी तभी थी,
चरणामृत की धार गिरी ,
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली,
श्वप्न-मुक्त होने देती .
रिद्धि -सिद्धि साध रही,
वैभव-वृद्धि ,श्री की सृष्टि ,
संतति-पुष्टि साध रही,
अरे प्रिये !उत्सव-प्रियता में ,
ना जाने कब जाग गयी ?
मेरी संज्ञा स्वस्थ हुई थी,
जब सौंदर्य-लहरी गूंजी ,
अरे ! रूपसी ,कहाँ चली,
पुण्य-धनि होने देती .
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