एक उच्च भू धर पे , रावण का दुर्ग बना ,
स्वर्ण दुर्ग से सज्जित , स्वर्ण नगरी वहाँ ,
स्वर्ण नगरी बसी है , भूधर के चहुँ ओर ,
सुन्दर सदन कई , नभ छूते हैं वहाँ ,
विस्तृत है राज पथ , विस्तृत है वीथियाँ ,
गज-अश्व की सवारी , रथ फिरते वहाँ .
स्वेच्छाचारी रक्ष -वृन्द , मकारी में रत रह ,
प्रकृति विरुद्ध कर , भोग करते वहाँ .
प्रभु ! स्वर्ण मणियों से , हर एक रचना है,
स्वर्ण-मणि मिल कर , आँखे चुंधियाती है.
पद -पद मधुशाला , अगणित वधशाला ,
स्वेच्छाचार देख कर , आँखें नम होती है .
रक्षण के हेतु वहाँ , ठोर -ठोर सैन्य दल ,
शस्त्रागार कई जान , श्वाँस रुक जाती है.
कारगार भरे हुए , देव नर नाग से ही ,
उनका शोषण देख , करुणा ही आती है.
द्वार - द्वार पालक हैं , वर वीर मल्ल यत्र ,
हर एक द्वारपाल , सजग हो रहता.
दश दिशा शिविर में , सुदृढ़ है सैन्य-दल ,
कुशल है युद्ध हेतु , अभ्यासी हो रहता.
युद्ध हेतु दशग्रीव , उत्सुक सदैव रह ,
नव-नव व्यूह रच , कौशल को रचता .
जपी-तपी सिद्ध वह , रणधीर सुविज्ञ है ,
हर एक वर वीर , रावण पे मरता .
स्वर्ण दुर्ग से सज्जित , स्वर्ण नगरी वहाँ ,
स्वर्ण नगरी बसी है , भूधर के चहुँ ओर ,
सुन्दर सदन कई , नभ छूते हैं वहाँ ,
विस्तृत है राज पथ , विस्तृत है वीथियाँ ,
गज-अश्व की सवारी , रथ फिरते वहाँ .
स्वेच्छाचारी रक्ष -वृन्द , मकारी में रत रह ,
प्रकृति विरुद्ध कर , भोग करते वहाँ .
प्रभु ! स्वर्ण मणियों से , हर एक रचना है,
स्वर्ण-मणि मिल कर , आँखे चुंधियाती है.
पद -पद मधुशाला , अगणित वधशाला ,
स्वेच्छाचार देख कर , आँखें नम होती है .
रक्षण के हेतु वहाँ , ठोर -ठोर सैन्य दल ,
शस्त्रागार कई जान , श्वाँस रुक जाती है.
कारगार भरे हुए , देव नर नाग से ही ,
उनका शोषण देख , करुणा ही आती है.
द्वार - द्वार पालक हैं , वर वीर मल्ल यत्र ,
हर एक द्वारपाल , सजग हो रहता.
दश दिशा शिविर में , सुदृढ़ है सैन्य-दल ,
कुशल है युद्ध हेतु , अभ्यासी हो रहता.
युद्ध हेतु दशग्रीव , उत्सुक सदैव रह ,
नव-नव व्यूह रच , कौशल को रचता .
जपी-तपी सिद्ध वह , रणधीर सुविज्ञ है ,
हर एक वर वीर , रावण पे मरता .