Monday, 27 February 2012

एक उच्च भू धर पे , रावण का दुर्ग बना ,
                     स्वर्ण दुर्ग से सज्जित , स्वर्ण नगरी वहाँ ,
स्वर्ण नगरी बसी है , भूधर के चहुँ ओर ,
                     सुन्दर  सदन  कई , नभ  छूते  हैं वहाँ ,
विस्तृत है राज पथ , विस्तृत है वीथियाँ ,
                     गज-अश्व की सवारी , रथ  फिरते वहाँ .
स्वेच्छाचारी रक्ष -वृन्द , मकारी में  रत रह ,
                      प्रकृति  विरुद्ध  कर , भोग  करते  वहाँ .


प्रभु ! स्वर्ण मणियों से , हर एक रचना है,
                      स्वर्ण-मणि मिल कर , आँखे चुंधियाती है.
पद -पद मधुशाला , अगणित वधशाला ,
                      स्वेच्छाचार देख कर , आँखें नम होती है .
रक्षण के हेतु वहाँ , ठोर -ठोर सैन्य दल ,
                      शस्त्रागार कई जान , श्वाँस रुक जाती है.
कारगार भरे हुए , देव नर नाग से ही ,
                      उनका शोषण देख  , करुणा ही आती है.


द्वार - द्वार पालक हैं , वर वीर मल्ल यत्र ,
                      हर एक द्वारपाल , सजग हो रहता.
दश दिशा शिविर में , सुदृढ़ है सैन्य-दल ,
                      कुशल है युद्ध हेतु , अभ्यासी हो रहता.
युद्ध हेतु दशग्रीव , उत्सुक  सदैव  रह ,
                      नव-नव व्यूह रच , कौशल को रचता .
जपी-तपी सिद्ध वह , रणधीर सुविज्ञ है ,
                      हर  एक  वर  वीर , रावण  पे  मरता .                    

No comments:

Post a Comment

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...