कपि कह नत हुए , राम के श्री चरणों में,
राम अंतर हिलता ,थर-थर कर के .
कंज नेत्र आद्र हुए , कोर भरे अश्रु जल,
मानो ज्वार वारि खींचे , हर-हर कर के.
राघव नरसिंह ने , खींच लिया एक सर ,
मानो फणि निकला हो , सर-सर कर के .
सुघ्रीव को कहते हैं , चल पड़ो लंक ओर ,
कहते हैं मानो कोप , भर-भर कर के.
सुग्रीव प्रणाम कर , रामाज्ञा स्वीकार कर ,
जाम्बवंत को कहते, ध्वज फहराइये .
अंगद को कह कर , आदेश अंकन कर
यूथपति स्मर कर , दल बुलवाइये .
चर भेज - भेज कर , पथ सब हेर कर ,
अरि के प्रबंध सब , ठीक जान जाइये.
हनुमान अग्र कर , सैन्य संगठन कर ,
साधन को साध कर , कूच कर जाइये .
हर दिशा गूँज गयी , नगाड़ों की थाप पर ,
शाखामृग बढ़ गये , कपिराज दुर्ग को.
शाखा-शाखा चलते हैं , कूदते हैं धावते हैं ,
उठा लिया सर पर , हुंकारी से वन को .
भीम काय ऋक्ष वीर , गरज-गरज कर ,
गुहा से निकल कर , ठोकते हैं ताल को.
सीधे-सादे वनवासी , ढोल पीट-पीट कर ,
बढ़ गये लेने हेतु , रावण से स्वत्व को.
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