Sunday, 19 February 2012

हनुमान विनत हो , कहते हैं सभा मध्य ,
                      लंका बनावट को मैं , देख कर आया हूँ .
पीन परकोट तत्र , द्वार चार-चार यत्र ,
                      जटिल है यंत्र-तंत्र , ज्ञात कर आया हूँ.   
वारि युक्त खाई जहाँ , भयंकर जलचर ,
                      पद-पद काल देख  , बच कर आया हूँ .
वर वीर युक्त दल , सुविस्तृत है वाहिनी 
                      रावण की क्षमता को , तोल कर आया हूँ.

सदन बने हुए हैं , पीन परकोट पर ,
                     परकोट पालक जो ,निशाचर रहते .
हर एक द्वार पर , काष्ठ सेतु बने हुए ,
                     वारि युक्त खाई पर , आच्छादित रहते.
कई-कई यंत्र वहाँ , स्वतः संचालित हैं ,
                     अरि और मित्र पर , तीक्ष्ण दृष्टि रखते.
यत्र-तत्र सैन्य-दल , रक्षण में लगे हुए ,
                     आगमन - निर्गमन ,  उचित परखते .

नद-नाल कई-कई , सघन है वन वहाँ ,
                      दुर्गम  भूधर  वहाँ , गमन  कठिन  जो .
गह्वर हैं खड्ड जहाँ , दुर्गम है घाट वहाँ , 
                      रवि-चन्द्र दिखे नहीं , अन्धकार राज जो.
है भूल भूलैया अति ,विभ्रम ही विभ्रम है ,
                      दिशा ज्ञान होता नहीं , निशाचरी तंत्र जो.
छिपे हुए निशाचर , छल करे घात करे ,
                      कोई नहीं बच पाए , रावण का राज जो.      

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