प्रभु ! सीता उद्धार को , धरा सह चाहती है,
सीता-राम की तरह , लोक भी संत्रस्त है.
स्वत्व जैसे राघव का , रुद्ध किया रावण ने ,
प्रभु वैसे धरा का भी , हर लिया स्वत्व है.
स्वेच्छाचार-कदाचार , प्रोत्साहित रावण से ,
देव - नर - नाग सब , रावण से त्रस्त हैं.
शोषण व अत्याचार , रक्ष-तंत्र मूल में है,
राघव ! विध्वंस तले , सर्व मूल्य ध्वस्त हैं.
कोई भूली - भूली हुई , कोई पगलाई है.
राजीव से दूर हुई ,रावण की वाटिका में ,
सीता सुध खोये बोले , मैं तो डूबी राम जी.
चिड़िया को चुग्गा देती ,पौधों को पानी देती ,
घूंघट को खींच कहे, खाना खाओ राम जी.
खुद की ही छाँव देख ,रोवे हँसे बतियावे,
कभी भाग - भाग कहे, घर चलो राम जी.
देव - नर -नाग से ही , कारागार पूर्ण भरे ,
निशाचरी तंत्र ने तो , सभ्यता जलाई है.
अस्त्रागार - शस्त्रागार , यत्र - तत्र मिलते हैं ,
धर्म वहाँ लुप्त प्रभु , हिंसा दिखलाई है.
वधशाला-मधुशाला , लंका की है साज सज्जा ,
तस्करी व उत्कोचन , कर्म ही प्रभावी है.
कारागार भोगती हैं , सीता सम कई नारी ,कोई भूली - भूली हुई , कोई पगलाई है.
राजीव से दूर हुई ,रावण की वाटिका में ,
सीता सुध खोये बोले , मैं तो डूबी राम जी.
चिड़िया को चुग्गा देती ,पौधों को पानी देती ,
भरमाई सीता कहे , यहाँ देखो राम जी.
भोजन की थाल देख , पानी का वो पात्र देख,घूंघट को खींच कहे, खाना खाओ राम जी.
खुद की ही छाँव देख ,रोवे हँसे बतियावे,
कभी भाग - भाग कहे, घर चलो राम जी.
No comments:
Post a Comment