Sunday 5 February 2012

प्रभु ! सीता उद्धार को , धरा सह चाहती है,
                   सीता-राम की तरह , लोक भी संत्रस्त है. 
स्वत्व जैसे राघव का , रुद्ध किया रावण ने ,
                   प्रभु वैसे धरा का भी , हर लिया स्वत्व है.
स्वेच्छाचार-कदाचार , प्रोत्साहित रावण से ,
                   देव - नर - नाग  सब , रावण  से  त्रस्त हैं.
शोषण व अत्याचार , रक्ष-तंत्र मूल में है,
                   राघव ! विध्वंस तले , सर्व मूल्य ध्वस्त हैं.


देव - नर -नाग से ही , कारागार पूर्ण भरे ,
                   निशाचरी तंत्र ने तो , सभ्यता जलाई है.
अस्त्रागार - शस्त्रागार , यत्र - तत्र मिलते हैं ,
                   धर्म  वहाँ  लुप्त  प्रभु , हिंसा  दिखलाई है.
वधशाला-मधुशाला , लंका की है साज सज्जा ,
                    तस्करी व उत्कोचन , कर्म ही प्रभावी है.
कारागार भोगती हैं , सीता सम कई नारी  ,
                   कोई  भूली - भूली  हुई , कोई  पगलाई है.


राजीव से दूर हुई ,रावण की वाटिका में ,
               सीता सुध खोये बोले , मैं तो डूबी राम जी.
चिड़िया को चुग्गा देती ,पौधों को पानी देती ,
               भरमाई  सीता  कहे , यहाँ  देखो  राम जी.
भोजन की थाल देख , पानी का वो पात्र देख,
               घूंघट को खींच कहे, खाना खाओ राम जी.
खुद की ही छाँव देख ,रोवे हँसे बतियावे, 
                कभी भाग - भाग कहे, घर चलो राम जी.

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