चिंतामग्न राम देख , सुग्रीव यों कहते हैं,
प्रभु ! सीता-उद्धार में , देर नहीं कीजिए .
आप के आदेश में ही , सब वीर बंधे हुए ,
हनुमान-अंगद को , मर्यादा में मानिए .
ऋषभ-सुषेण हो या , चाहे गंधमादन हो ,
जाम्बवंत-नील में से , कोई आप चुनिए .
रावण विध्वंश हेतु , सीता के उद्धार हेतु ,
पर्याप्त है एक वीर , आदेश तो कीजिए .
राम कहे सुग्रीव से , मित्र वर क्या कहूं ?
मैं भी शीघ्र चाहता हूँ , जानकी उद्धार को .
मूल्य सब तिरोहित , हो गये व्यवहार से ,
बन के कपोत चले , गगन विहार को .
जानता हूँ राघव से , लोक को अपेक्षा बहु ,
इस हेतु चाहता हूँ , रावण संहार को .
मध्य में है प्रसरित , पारावार भयंकर ,
घेर लेती हताशाएं , करता विचार को .
करबद्ध सुग्रीव हो , कहते हैं राघव से ,
शोक ग्रस्त मन सदा , बुद्धि कुंद करता .
शोक और विषाद तो , प्रकल्प में बाधक हैं ,
अरि भाव युगल तो , कर्म भ्रष्ट करता .
हताशा है व्याली सम , बारम्बार दंश मारे ,
गज सम आत्मबल , पल-पल मरता.
आशा व उल्लास लिये , प्रभु ! आगे बढ़ें आप ,
पाता है विजय वही , उत्साह से बढ़ता.
प्रभु ! सीता-उद्धार में , देर नहीं कीजिए .
आप के आदेश में ही , सब वीर बंधे हुए ,
हनुमान-अंगद को , मर्यादा में मानिए .
ऋषभ-सुषेण हो या , चाहे गंधमादन हो ,
जाम्बवंत-नील में से , कोई आप चुनिए .
रावण विध्वंश हेतु , सीता के उद्धार हेतु ,
पर्याप्त है एक वीर , आदेश तो कीजिए .
राम कहे सुग्रीव से , मित्र वर क्या कहूं ?
मैं भी शीघ्र चाहता हूँ , जानकी उद्धार को .
मूल्य सब तिरोहित , हो गये व्यवहार से ,
बन के कपोत चले , गगन विहार को .
जानता हूँ राघव से , लोक को अपेक्षा बहु ,
इस हेतु चाहता हूँ , रावण संहार को .
मध्य में है प्रसरित , पारावार भयंकर ,
घेर लेती हताशाएं , करता विचार को .
करबद्ध सुग्रीव हो , कहते हैं राघव से ,
शोक ग्रस्त मन सदा , बुद्धि कुंद करता .
शोक और विषाद तो , प्रकल्प में बाधक हैं ,
अरि भाव युगल तो , कर्म भ्रष्ट करता .
हताशा है व्याली सम , बारम्बार दंश मारे ,
गज सम आत्मबल , पल-पल मरता.
आशा व उल्लास लिये , प्रभु ! आगे बढ़ें आप ,
पाता है विजय वही , उत्साह से बढ़ता.
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