Thursday, 30 August 2012

रोशनी की किरण,

    रोशनी की किरण,
       चरण तो धरे
          अंतर में .

    रोशनी की किरण,
       अँधेरे से भरे ,
         अंतर में,
उतर जाए - उतर जाए .
      और मैं भर लूं ,
रोशनी की नदी अंतर में .

    रोशनी की किरण,
       सपने जो हरे ,
          अंतर में ,
ठहर जाए-ठहर जाए ,
      और मैं देख लूं
बसे हुए किसी शहर से  .

   रोशनी की किरण
      पत्थर जो भरे
         अंतर में
बिखर जाए-बिखर जाए ,
       और मैं कह लूं
कोई गीत खरी नजर से .
     

Monday, 27 August 2012

परिवर्तन बस परिवर्तन.


हाथों हाथ हथेली मिलती
           वह चाहे
परिवर्तन बस परिवर्तन

इस घर से उस घर तक ,
उस घर से इस घर तक ,
   चिड़िया हाँ चिड़िया
     आये-जाये  कैसे ?
पंख फैलाने को डरती है  ,
         वह चाहे ,
परिवर्तन बस परिवर्तन.

इस गण से उस गण तक ,
उस गण से इस गण तक ,
     बिटिया हाँ बिटिया,
      संवाद बनाए कैसे?
सच कहने में ही डरती है,
            वह चाहे ,
परिवर्तन बस परिवर्तन .

इस मन से उस मन तक ,
उस मन से इस मन तक ,
        इच्छा हाँ इच्छा ,
         पूरी हो कैसे ?
शोषण की चक्की चलती है ,
            वह चाहे ,
परिवर्तन बस परिवर्तन .

इस क्षण से उस क्षण तक ,
उस क्षण से इस क्षण तक ,
        जनता हाँ जनता ,
         उभरे तो कैसे ?
  निजता में ही पिसती है ,
            वह चाहे ,
परिवर्तन बस परिवर्तन.

इस जन से उस जन तक ,
उस जन से इस जन तक ,
     कविता हाँ कविता
      सम्प्रेषण दे कैसे ?
अभिव्यक्ति में मरती है ,
           वह चाहे ,
परिवर्तन बस परिवर्तन .



Thursday, 23 August 2012

समायोजन


विपरीत परिस्थितियों में ,
बिठाना होता है समायोजन ,
जैसे नये-नये जूते में
बिठाना होता है अपना पैर .

नया जूता ,
हाँ बिलकुल नया
बहुत होता है कटखना ,
काटता है चिडचिडे ,
आदमी की तरह ,
लेकिन ,
क्या उसके काटने की पीड़ा
और
जलन भरे ,छालों से ,
भला कोई ,जूता पहनना ,
छोड़ देता है ?
नहीं ना ..................
तब पलायन का
कोई सवाल ही नहीं है,
और,
हमें अपने ही पैर से ,
कुछ सीख लेने में ,
भला कोई बुराई नहीं है .

जूता पैर को काटता है ,
लेकिन,
पैर लड़खड़ा कर भी ,
धीरे-धीरे जूते को ,
अन्दर ही अन्दर ,
करता चला जाता है ,
मुलायम और विस्तार ,
देने का काम .

मुलायम होने के बाद ,
वही कटखना जूता ,
कभी काटता नहीं ,
बल्कि लग जाता है ,
पैर की सुरक्षा में ,
और ,
जिन्दगी भर पैर की ,
करता है सुरक्षा ,
जैसे करता है ,
देखरेख कोई अपना .

बहुत सारी है चुनौतियां ,
जीवन के विकट रास्ते में ,
कुछ छोटी, कुछ बड़ी ,
कुछ बहुत ही भयावह ,
परन्तु ,
पैर के जूते की तरह ,
अहिस्ता-आहिस्ता ,
बनाया जा सकता है ,
उन्हें ,
आसान और पालतू .




Tuesday, 21 August 2012

World on canvas He has spread, Some flashy colors...


World on canvas
He has spread,
Some flashy colors,
Some iridescent colors.

Are dispersed into my side;
Some such livid;
In the long view,
Suffering is immense, and,
I think, ultimately,
That said, these ugly colors
Why would scatter?
Probably,
He also got
Something for fun.

Away - far diffuse,
Dirty brown, beige colors,
Laid down the middle
Some golden - silver splatter.
Livid be thicker every day,
And much dull and ugly,
There they go.
Golden - silver splatter,
Faster than that,
Thick, thick and flaky,
There they go,
As competition among them is embattled.

Uker have many pictures,
Mountains, plateaus, plains,
Forests, parks, rivers, streams,
Green valleys and,
Desert spread are
Some full - all are
Some quite naked,
How strange that
Rangoli is scattered.
Maybe
It also got him,
Something for fun.

While I'm on board;
The colors are
And, the colors are ugly,
much some less so,
I'll accept it gladly,
Why is that,
He has given the color,
Have a lot of love,
To accept them,
I do not have any compulsion.
Just want my hands;
Give some taller and stronger,
On the face of it,
Around you, so that spread,
Some golden and silver colors.

फलक


दुनिया के फलक पर ,
फैला दिए हैं उस ने ,
कुछ चित्ताकर्षक रंग ,
कुछ अनाकर्षक रंग .

मेरे पार्श्व में बिखरे हैं ,
कुछ ऐसे ऐसे भद्दे रंग ,
जिन्हें देखने भर में ही,
होता है अपार कष्ट ,और,
सोचता हूँ ,आखिर कर ,
उस ने ,इन भद्दे रंगों को
क्यों कर बिखेरा होगा  ?
शायद,
इसमें भी मिला होगा उसे
कुछ तो आनन्द का हेतु .

दूर-दूर तक छितराए ,
भद्दे भूरे , मटमैले रंगों के,
बीचों बीच डाल दिए हैं
कुछ सुनहरे-रजत के छींटे.
भद्दे  रंग रोज ही गाढे हो कर ,
और ज्यादह भद्दे और भद्दे ,
होते चले जाते हैं .
सुनहरे -रजत के छींटे ,
उस से भी तेज,
गाढ़े , मोटे और परतदार,
होते चले जाते हैं ,
जैसे उन में ठनी है प्रतिस्पर्धा.

कई चित्र उकेर दिए हैं ,
पर्वत , पठार , मैदान हैं ,
वन ,उपवन , नदी, नाले,
हरी भरी घाटियाँ और ,
फैले हुए मरुस्थल हैं ,
कुछ भरे-पूरे हैं ,
कुछ एकदम नग्न ,
कितनी विचित्र उस की
बिखरी हुई रंगोली है.
शायद
इसमें भी मिला होगा उसे ,
कुछ तो आनन्द का हेतु.

मैं फलक पर जहां हूँ ,
वहां रंग अच्छे भी हैं ,
और , रंग भद्दे भी हैं ,
कुछ कम तो कुछ ज्यादह ,
मैं इन्हें सहर्ष स्वीकारता हूँ ,
क्यों कि ,
उसने दिए हैं जो भी रंग ,
बहुत प्यार से दिए हैं ,
उन्हें स्वीकार करने में ,
मेरी कोई विवशता भी नहीं है .
बस चाहता हूँ , वह मेरे हाथों को ,
कुछ  लम्बे और मजबूत कर दे  ,
जिससे उस के फलक पर ,
अपने आसपास , फैला सकूं ,
कुछ सुनहरे और रजत रंग.


Monday, 20 August 2012

जिन्दगी तुम दूर्वा सी ,


जिन्दगी तुम दूर्वा सी ,
कभी पल जाती हो ,
कभी थम जाती हो .

सुख-दुःख तेरे ,
दो हैं किनारे ,
साथ चले ये सांझ -सवेरे.
जिंदगी तुम नदिया सी ,
कभी बह जाती हो,
कभी जम जाती हो .

कोलाहल है ,
चुप्पी भी है ,
देह की गंध सरीखे तेरे ,
जिन्दगी तुम बदली सी ,
कभी चढ़ जाती हो ,
कभी फिर जाती हो .

आना-जाना ,
लगा रहा है ,
जैसे पंछी के नित फेरे ,
जिन्दगी तुम सहेली सी ,
कभी तुम आती हो ,
कभी तुम जाती हो .

तुम को समझूं ,
इधर-उधर से ,
कई प्रश्न अनुत्तरित मेरे ,
जिन्दगी तुम पहेली सी ,
कभी दिख जाती हो,
कभी छिप जाती हो .

तुम अपनी भी ,
तुम  पराई भी  ,
जैसे आ कर अतिथि रहते,
जिन्दगी तुम दुहेली सी ,
कभी सुलझ जाती हो ,
कभी उलझ जाती हो .

सुख जो मेरे अपने हैं


सुख जो मेरे अपने हैं ,
पल जाने को व्याकुल हैं .

उड़-उड़ जाऊं ले कर पंख ,
ले कर तितली के सब रंग ,
तितली जाये बाग-बगीचे ,
मैं जाऊं हर घर की छत .
सब जो मेरे अपने हैं ,
रिश्ते उन से घनेरे हैं ,
मिल जाने को व्याकुल हैं .

बढ़-बढ़ जाऊं ले कर तृण ,
ले कर गोरैया की चाह ,
गौरैया बांधे अपना नीड़ ,
मैं जाऊं हर घर के द्वार .
सब के अपने सपने हैं ,
टूटी छत के डेरे हैं ,
घर पाने को व्याकुल हैं.

बह-बह जाऊं ले कर पानी ,
ले कर नदिया का विश्वास ,
नदिया जाये सागर  पास ,
मैं जाऊं हर घर के पास.
पीड़ा सने हुए टखने हैं ,
दुःख का दलदल घेरे हैं,
सब बहने को व्याकुल हैं .

रम-रम जाऊं ले कर खेल,
ले कर बच्चे ,ले कर मेंल,
नांव तिराऊँ रेल चलाऊँ ,
अन्दर-बाहर रच दूं खेल.
सतरंगी आँगन रचने हैं,
सब आँगन जो मेरे हैं ,
सुख पाने को व्याकुल हैं .

Friday, 17 August 2012

तुम कब सभ्य बनोगे


रुको-रुको तुम यह क्या करते ?

कभी नोच दिया ,कभी काट दिया ,
कभी तोड़ दिया , कभी फोड़ दिया .

तुम कब सभ्य बनोगे
या ,
ऐसे ही रहना
अच्छा लगता ,
जैसे बन्दर रहते .

रुको-रुको तुम यह क्या करते ?

कुछ फांक लिया , कुछ चाट लिया ,
कुछ छीन लिया , कुछ बाँट लिया .

तुम कब सभ्य बनोगे
या ,
ऐसे ही रहना
अच्छा लगता ,
जैसे चौपाये  रहते .

रुको-रुको तुम यह क्या करते ?

कहीं दांत भींचते , कहीं आग झोंकते ,
कहीं हाथ खींचते , कहीं हाथ  मारते ,

तुम कब सभ्य बनोगे
या ,
ऐसे ही रहना
अच्छा लगता ,
जैसे हिंस्र वनेचर  रहते .

रुको-रुको तुम यह क्या करते ?

अनुशासन जानें , रीति-नीति जानें  ,
कोलाहल   जानें  , प्रतिक्रिया जानें .

तुम कब बन्धु बनोगे ,
या ,
ऐसे ही रहना
अच्छा लगता ,
जैसे अजगर रहते .

रुको-रुको तुम यह क्या करते ?

Wednesday, 15 August 2012

चाँद तुझ को आज मौका , मिल रहा है सुनहरा ,

चाँद तू भी है अनोखा , दाग को  ढोता रहेगा .
उनकी बोली बोलता  ,सच में तू तोता रहेगा .

यार तेरे सामने ही , लोग मारे जा रहे नित.
चांदनी से दीदे लड़ाने ,नभ में तू खोता रहेगा

साड़ियाँ कई तार - तार , देखी है तूने बार-बार.
अभिव्यक्ति को गूंगी बना ,यूं ही तू ढोता रहेगा .

भूख-भय के दंड से , लिपटा हुआ ही था तिरंगा.
भाषणों में  फहरा दिया , हाथ ही तू धोता रहेगा

कुछ दीवाने हंस मरे , तेरे लिए भी मेरे लिए भी  .
फिर दीवाने आ रहे , चुप-चुप ही तू रोता रहेगा.

चाँद तुझ को आज मौका , मिल रहा है सुनहरा ,
ले मशालें चल पड़ो अब , होगा जो होता रहेगा.

Friday, 10 August 2012

जय श्री राधे - कृष्ण बोलो , मन से एक ही बार .

                                                    


                                                    मकर ग्रसित गजराज पुकारे ,पा गये तुरत उद्धार.

                                                    रंक  सुदामा  नृप  बन राजे ,श्री कृष्ण बहुत उदार   

                                                    जय श्री राधे - कृष्ण  बोलो , मन  से  एक ही बार .

                                                    त्रिभुवन स्वामी राधा - प्यारे , देगा खुशियाँ हजार .

   

Saturday, 4 August 2012

जगो कवि ! दिवस हो गया.


शिशु भोर की प्रथम किरण ,
दस्तक देती मेरे द्वारे ,
जैसे गोपालिन आकर के ,
गोरस लिए हुए पुकारे ,
जगो कवि ! दिवस हो गया.

शीतल वायु हुई प्रवाहित ,
मेरी चादर हिला गयी है ,
मानो कोई हॉकर आ कर ,
अखबार लिए दस्तक देता ,
जगो कवि ! दिवस हो गया.

प्राची में पेड़ों के पीछे ,
लिए अरुणिमा सूर्य निकलता ,
जैसे कोई चंचल बालक ,
रंगीन गुब्बारे लिए गा रहा  ,
जगो कवि ! दिवस हो गया.

घर पिछवाड़े कोयल जागी  ,
कु-हू कु-हू कर कूक लगाती ,
सोती भावज ज्यों करे शरारत  ,
गये स्वप्न आपाधापी आती ,
जगो कवि ! दिवस हो गया.


Wednesday, 1 August 2012

रंगीन चिट्ठी


आज सुबह से ,इंतज़ार है ,
मुझे डाकिये का ,
औए उस रंगीन चिट्ठी का,
जो साल में ,
एक बार ही आती है ,
और -
बिल्कुल अलग आती है ,
जैसे श्रावणी रिमझिम बरसात .

उस चिट्ठी में ,
होती है रिश्तों की गंध ,
रक्त का बंध ,
और -
बहिन का प्यार ,
जिसे वह सजाती है ,
रंगीन अक्षरों में ,
किनारों पर किये बेल-बूटों में ,
तथा,
कभी-कभी भावुक हो कर ,
छिटक देती है , रंगीन चिट्ठी पर ,
अपनी आँखों का निर्मल जल ,
हुई है अभी -अभी ,
जैसे श्रावणी रिमझिम बरसात .

मुझे इंतज़ार है ,
उस रंगीन इन्द्रधनुषी चिट्ठी का ,
जिसमें लिपटा हुआ आता है ,
हाथ का मढ़ा हुआ ,
रेशम का धागा ,
लगता है जैसे ,बड़े यत्न से,
दिल ही बट कर ,
भेज दिया मेरे लिए ,
और -
जब मेरी कलाई पर ,
लिपटता है वह रेशम का धागा ,
तब मुझे वह धागा ,
धड़कता सा महसूस होता है ,
तब मेरी आँखें उमड़ जाती हैं ,
उमड़ आई हो ,
जैसे श्रावणी रिमझिम बरसात .

जब भी आता है श्रावणी-पर्व ,
तब मैं चला जाता हूँ ,
नदी के खुले घाट पर ,
और -
पढ़ता हूँ गायत्री ,
परन्तु सच कहता हूँ बहिन ,
मेरा मन ,
उलझा रहता है ,
तेरी रंगीन चिट्ठी में ,
बोझिल कदमों  से,
भरे हुए मन के साथ ,
लौटता हूँ घर ,
तब छुटकी दौड़ कर ,
ला कर देती है तुम्हारी चिठ्ठी ,
तब-
मन में बज उठता है जल-तरंग ,
आखिर ,रक्षा-बंधन  जो है,
और ,
आँख चू पड़ती है ,
जैसे श्रावणी रिमझिम बरसात .


संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...