Wednesday, 31 October 2012

हाइकू - इश्क के नाम


( १ )
इश्क के नाम
जिंदगी एक मिली  ,
दे कर देख .
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( २ )
कहा-लिखा तो
होता इश्क व्यर्थ है ,
जी कर देख.
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( ३ )
इश्क के लिए ,
वह रोज मरता ,
पूजा में देख.
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( ४ )
इश्क का मोल ,
सिक्कों से नहीं लगा ,
पीर में देख .
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( ५ )
बादशाहत ,
नित सिर धुनती ,
इश्क में देख.
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Sunday, 28 October 2012

हाइकू -



( १ )
चराग जले ,
ना नेह था न बाती,
तुम जो मिले.

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( २ )
हम थे मिट्टी ,
तुमने छू जो दिया
अब कंचन .
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( ३ )
दो टूक हुए ,
मारा नहीं खंजर ,
रूठ वो गए .
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( ४ )
एक लिफाफा ,
भारी है दौलत पे ,
वो उन का है .
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( ५ )
प्यार किया था ,
सर नहीं  दे सका,
व्यर्थ ही जिया.
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Saturday, 27 October 2012



(१)
गूंगी सितार ,
अब गाने है लगी ,
जो तूने छुआ.

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(२)
भाप सा उड़ा ,
चट "मैं" का घमंड,
सूरज आया.

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(३)
रोटी का स्वाद ,
भरा पेट क्या जाने ,
भूख बताये.

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(४)
लूट कर लाया ,
पराया मालमत्ता ,
नींद दे आया .

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( ५ )
पंचम स्वर ,
जो सावन में अंधी
कोयल गाये .

Thursday, 25 October 2012

कल तेरा मैं लिख रहा बिगड़ा न कर .


ज़रा  ज़रा सी बात पर बिगड़ा न कर.
आईने में  शक्ल देखी  बिगड़ा न कर .

हर बात पर कटखना  बन काटता है .
एक चिकोटी  काटी है बिगड़ा न कर.

नित कुचल  कर  हंसता है तू रोज ही
क्षुद्र तिनका आँख में हूँ बिगड़ा न कर.

लहू  की  सौगंध खा कर ताव खाता .
लहू से लहू मिल चला बिगड़ा न कर.

मेरा  कांधा बहुत तुझ को रास आया .
आखिरी  कांधा दे रहा बिगड़ा न कर .

रोज मुझ पर अपनी दाढ़ें गाड़ता था .
दांत  मैनें  भी दिखाए बिगड़ा न कर .

सब का खा कर भी डकार लेता नहीं.
तोंद की ही थाह ली है बिगड़ा न कर.

एक समय था कि परों को बीनता था 
अब परिंदों के परों पर बिगड़ा न कर .

जिस घृणा  से  जिंदगी तू ने बिताई .
पूरा ज़माना हँस पडा बिगड़ा न कर .

इक कटोरा ले के आया मेरे लिए तू .
मैं  कटोरा  फेंकता हूँ बिगड़ा न कर .

हर  बार  मेरी  किस्मतें लिखता रहा .
कल तेरा मैं लिख रहा बिगड़ा न कर .




दिल से रिश्ता जोड़ा है जुदा न मान.


बहते आंसुओं को तू पानी न मान.
देखो आया सामने सपना न मान .

झील को तू ने छुआ तो लहरें उठीं .
दिल भी वैसे कांपता सोया न मान .

आज कल चर्चा हमीं पर होती है .
यह तो होता ही रहा हर्जा न मान.

तू एक कंकर फेंक कर के देख ले.
चीख-चिंगारी होगी चुप्पी न मान .

उड़ती पतंग अपने हाथों कट चले.
बेरुखि सब मानते हैं होना न मान.

सूखे पत्तों की खडखडाहट सब तरफ  .
हवा चली तो जायेंगे ये गम न मान .

क्या काजी का आना जरूरी होता है  .
दिल से रिश्ता जोड़ा है जुदा न मान.

Thursday, 18 October 2012

तेरा नकाब .


कितना बेमानी है ,
यह पूछना कि,
कैसे हो ?
जब कि हाथ में ,
पकड़ा हुआ चाकू ,
अभी भी पूरी तरह से
रक्त से है लाल सुर्ख .

लाने को तो लाये थे ,
ठंडा पानी ,
परन्तु ,
मेरे होठों को ,
तर करने के बजाय ,
मेरे ही चारों ओर,
बिखेर दिया ,
और ,
भीड़ में कहते हो ,
तुम्हारे लिए ,
क्या नहीं कर सकता?

सच में ,
तुम रुग्ण हो,
शवों पर करना
चाहते हो शासन ,
इसीलिए ,
सहन नहीं कर पाते,
जीवित की प्रतिक्रिया ,
और ,
हो जाते हो,
हिंसक ,
आदमखोर की तरह.

मैं घायल हूँ ,
और ,
मेरे घाव हैं ,
मेरी पहचान ,
मेरे ताजा घावों को ,
तुम कुरेद कर ,
और हरे करते हो,
मैं दर्द से ,
बिलबिलाता तो हूँ ,
पर ,
नित्य ही मेरा कारवाँ ,
बढ़ता चला जा रहा है ,
एक अच्छी खबर सुन ,
तेरा नकाब ,
अब बहुत ढीला हो रहा है .

Monday, 15 October 2012

अब मैं पवित्र हूँ .


तुम ने कितनी बार ,
अपनी दृष्टि से ,
मुझे छू लिया ,
और ,
हर बार किया है ,
मैंने शुचि अभिषेक ,
अब मैं पवित्र हूँ ,
किसी तीर्थ की तरह.

तुम्हारे कहे गये शब्द ,
मेरे कानों में ,
सीटियों की तरह गूंजते हैं ,
और ,
किसी अनुगूंज की तरह ,
दिशा-दिशा से टकराकर ,
लौट-लौट आते हैं ,
तब ,
मैं व्याकुल हो कर ,
तुम्हें तलाशता हूँ ,
खिलौने की चाहत में व्याकुल
किसी अबोध बच्चे की तरह .

कितनी बार तुम्हारी गंध
मेरे चारों ओर ,
लिपट जाती है ,
ओर ,
तुम्हारे भाव-तारल्य से ,
मैं भीग जाता हूँ ,
आपन्मस्तक ,
भोर में गिरती ओस बूंदों से ,
भीगे हुए मंदिर-कलश की तरह .

मैंने बहुत तोड़े हैं,
पत्थर ,
जमीन को किया है ,
समतल ,
वीथियों की जगह बनाये ,
राजपथ ,
चिनायें हैं शानदार ,
प्रासाद ,
लगाये हैं फलदार विटप ,
सजाये हैं हरित दुर्वा के ,
उद्यान,
ताकि तुम्हें ,
अपने पास रोक सकूं ,
परन्तु ,
साध दी गयी है मुझ पर गुलेल ,
और ,
बन गया हूँ किसी शिकार की तरह.

कितनी बार पकड़ी है ,
मैंने रोशनी की डोर ,
जिस के सहारे ,
तुम तक पहुँच सकूं ,
क्योंकि ,
मैंने जाना है ,
तुम रोशनी का हो श्रोत ,
भर लेना चाहता हूँ ,
तुमको अन्दर-बाहर ,
इसीलिए ,
खींचा चला आ रहा हूँ ,
कामना लिए किसी पतंगे की तरह.

एक तुम और एक मैं.


सागर के किनारे ,
अकेले टहलता हूँ ,
जब से अकेला हूँ ,
यह एकाकीपन आया
या ,
मैंने ओढ़ लिया ?
यह प्रश्न नहीं है ,
प्रश्न तो यह है -
तुम्हारे जाने के बाद ,
आखिर कर मेरी ,
श्वांस चलती कैसे है ?

समंदर की लहरें,
आती हैं
और लौट जाती हैं ,
जैसे तुम आ कर ,
लौट गयी थी.
हर बार लहर
आ कर गुदगुदाती है ,
और लौट कर ,
उदास कर जाती है ,
तुम इस के मायने ,
समझ सकती हो .

समंदर से लहरें ,
उठ-उठ कर आती हैं ,
और ,
आते-जाते ,
मिलते-मिलाते ,
विलीन हो जाती हैं,
या,
नये रंग -रूप में ,
फिर-फिर उठ आती हैं,
मेरी उम्मीदों को हमेशा,
ज़िंदा रखने के लिए .

सब लोग कहते हैं -
समुद्र एक है
और
लहरें अनेक हैं ,
मेरा इस में ,
कोई विरोध नहीं है ,
यह उनका दर्शन है ,
मेरा मानना है ,
समुद्र एक है .
और ,
लहरें दो ही हैं ,
एक तुम और एक मैं.

हमारी एक ही मंजिल .


हमारे मध्य नहीं है ,
कोई भी घोषित या
अघोषित प्रतिस्पर्धा.
फिर ,
हम एक दूसरे के प्रति ,
कैसे हो सकते हैं हिंसक .

साथ चलने की ,
उत्कट इच्छा में ,
कभी टकरा जाते हैं ,
हमारे कंधे और हाथ ,
देख लेते हैं आपस में ,
कनखियों से ,
जैसे देखते हैं ,
साथ-साथ चलते,
मुसाफिर ,
इसे भला,
कैसे मान लें द्वंद्व .

मैं रोज जीना ,
चढ़ता-उतरता हूँ ,
हर आहट पर
तुम्हारे पदचाप ,
सायास सुनने का
प्रयास करता हूँ ,
तुम्हें सामने
देखने की इच्छा में ,
नहीं देख कर ,
सूखी रंगोली सा ,
फैल जाता हूँ ,
तब ,
कैसे मान लूं .
नहीं है
हमारे मध्य सम्बन्ध.

हम बढ़ रहे हैं ,
एक ही दिशा में ,
और रखते हैं ,
एक दूसरे की ,
खोज-खबर ,
फैल जाती है ,
हमारे अंतर की,
आत्मीयता की गंध ,
जैसे फैल जाती है ,
मां की सेकी हुई ,
रोटियों की गंध ,
अब ,
इन हालात में ,
कैसे कहूं नहीं है ,
हमारी एक ही मंजिल .

Thursday, 11 October 2012

नव आशा से , भरता हूँ.


जितना तुम को,
याद किया है ,
उतना ही तो,
कटता हूँ .

तुम को भूलूँ ,
कैसे भूलूँ ,
इस कोशिश में ,
बंटता हूँ .

तुम में मुझ में ,
क्या अंतर है ?
लिए आईना
पढ़ता हूँ .

भरे सरोवर
में कमलों के ,
नखरों से अब ,
डरता हूँ.

तुम आओगे ,
या जाओगे ,
इन प्रश्नों से ,
लड़ता हूँ .

हंसों को घर ,
आते देखा ,
नव आशा से ,
भरता हूँ.

Saturday, 6 October 2012

घर कैसे बनते सीखता जा.


चल रे बाबा , रेत पे चल ,
घर बिखरे हैं , रेत पे चल .
रेत पे अपने ,पैर तू धर ,
पैर पे अपने , रेत को धर .
धीरे-धीरे रेत को थपता जा ,
घर कैसे बनते सीखता जा.

चल रे बाबा , खेत पे चल ,
घर खाली हैं , खेत पे चल .
मिट्टी से अपने हाथ तू सन ,
हाथ से अपने खेत को खन,
धीरे-धीरे खेत को खनता जा ,
घर कैसे भरते सीखता जा.

चल रे बाबा , नदी पे चल ,
घर डूबे जाते ,नदी पे चल .
कागज से अपनी नाव बना,
नदी में अपनी तू नाव तिरा ,
धीरे - धीरे नाव तिराता जा ,
घर कैसे तिरते सीखता जा.

चल रे बाबा , आँगन पे चल ,
घर बिखरे हैं , आँगन पे चल .
आँगन में आ कर मित्र बुला ,
मित्र बुला कर नव खेल रच.
धीरे-धीरे मित्रों में घुलता जा ,
घर कैसे बंधते सीखता जा .

चल रे बाबा , बाहर को चल ,
घर में घुटन ,बाहर को चल .
इधर-उधर देख कदम बढे ,
कदम बढे तो तू कदम बढ़ा .
धीरे-धीरे कदम बढ़ाता जा ,
घर कैसे चलते सीखता जा.

Thursday, 4 October 2012

बोलो , मेरे मित्र कुछ तो बोलो


कुछ लोग मिलते हैं ,
किसी लम्बे ,
पड़ाव पर .
कुछ क्षण में ही ,
आत्मीयता के बंध ,
मजबूती से बंध जाते हैं ,
जैसे लिपट जाए ,
रेंगती हुई कोई लता ,
किसी बढ़ते हुए पेड़ से .
तब क्या कहें ?
अनायास मिलन....
सौभाग्य .......
या
पूर्व जन्म का प्रारब्ध .
बोलो , मेरे मित्र कुछ तो बोलो

इसी चिंतन से ,
हाथों की पेन्सिल ,
हिलती रही ,
चलती रही ,
और ,
कुछ आकृतियाँ ,
उभरती गयी .
किसी ने कहा ,
यह चित्र है ,
किसी ने कहा ,
यह अचित्र है .
किसी ने कहा ,
यह आकृति है ,
किसी ने कहा ,
नहीं ,
यह एक विकृति है ,
मैं क्या मानूं ?
चित्र , अचित्र ,
आकृति या विकृति ?
बोलो , मेरे मित्र कुछ तो बोलो

ओह ! जब-जब तुम मिले,
जिस -जिस रूप में मिले ,
वाकई अद्भुत है .
अब तुम्हारे मिलन को
क्या कहूं -
घटना , संयोग ,
सम्बन्ध , आकर्षण
या,
पूर्व जन्म का कोई,
रिश्ता -नाता ,
या , फिर कोई ,
मनभावन समय का खेल ?
बोलो , मेरे मित्र कुछ तो बोलो .

Tuesday, 2 October 2012

मेरे रोने पर हँस पड़े हो यार क्या कहने .


तुम्हारी इन अदाओं के यार क्या कहने.
मेरे रोने पर हँस पड़े हो यार क्या कहने .

वो भी दिन था कि तुम मेरे पास आते थे ,
मुझ से मेरा ही पता पूछते हो क्या कहने .

गिड़गिड़ा कर माँगते थे मुझ से मेरे हाथ ,
वही हाथ मैले लगते हैं आज क्या कहने .

कहते थे मेरा खूँ गंगा के पानी सा निर्मल ,
अब पानी समझ के बहाते हो क्या कहने .

चीख कर माथे पे छप्पर की बातें कही थी ,
टीन-टप्पर ही उड़ा ले गए यार क्या कहने .

कभी मेरी बातें गीत - गजल हुआ करती ,
अब गर्म लावे सी वो लगती है क्या कहने .

कल तुम ने ही तीली जला कर दी मेरे हाथों ,
अब कहते हैं यह मेरी अदावट है क्या कहने.

मुझे मालूम है तुझे लौट कर आना है कल ,
गडियाली आंसू बहेंगे फिर यार क्या कहने .

Monday, 1 October 2012

तुम उस पार , मैं इस पार


  तुम उस पार , मैं इस पार
        बांधना चाहता हूँ ,
श्वांसों की झीनी नाजुक सी वो डोर.

मुझ को हिचक है तेरी गली में ,
तुझ को हिचक है मेरी गली में ,
         देखना चाहता हूँ ,
तेरी गली की सुर्ख रंगत लिए भोर .

चर्चा तुम्हारी खूब  मैंने सुनी है ,
चर्चा हमारी खूब तुमने सुनी है,
        मिलाना चाहता हूँ ,
कच्चे धागे के छिटके हुवे दो छोर .

सब लोग माने तुम हम से अलग हो ,
हम ने न माना तुम हम से अलग हो ,
        बताना चाहता हूँ ,
सदा से बसे हो मुझ में मेरे चितचोर.

लोग हंस के मारे  रोज पत्थरों से ,
महल भी चुना है उन्हीं पत्थरों से ,
         दिखाना चाहता हूँ ,
दर्द से भरा मेरे महल का पोर-पोर.

तुम्हें क्या पड़ी है जो सुध लो हमारी ,
हम नित्य सजाते छवि जो तुम्हारी ,
         ध्यान चाहता हूँ
घायल पंछी सा पहुंचा हूँ तेरे ही ठोर

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...