Monday 15 October 2012

हमारी एक ही मंजिल .


हमारे मध्य नहीं है ,
कोई भी घोषित या
अघोषित प्रतिस्पर्धा.
फिर ,
हम एक दूसरे के प्रति ,
कैसे हो सकते हैं हिंसक .

साथ चलने की ,
उत्कट इच्छा में ,
कभी टकरा जाते हैं ,
हमारे कंधे और हाथ ,
देख लेते हैं आपस में ,
कनखियों से ,
जैसे देखते हैं ,
साथ-साथ चलते,
मुसाफिर ,
इसे भला,
कैसे मान लें द्वंद्व .

मैं रोज जीना ,
चढ़ता-उतरता हूँ ,
हर आहट पर
तुम्हारे पदचाप ,
सायास सुनने का
प्रयास करता हूँ ,
तुम्हें सामने
देखने की इच्छा में ,
नहीं देख कर ,
सूखी रंगोली सा ,
फैल जाता हूँ ,
तब ,
कैसे मान लूं .
नहीं है
हमारे मध्य सम्बन्ध.

हम बढ़ रहे हैं ,
एक ही दिशा में ,
और रखते हैं ,
एक दूसरे की ,
खोज-खबर ,
फैल जाती है ,
हमारे अंतर की,
आत्मीयता की गंध ,
जैसे फैल जाती है ,
मां की सेकी हुई ,
रोटियों की गंध ,
अब ,
इन हालात में ,
कैसे कहूं नहीं है ,
हमारी एक ही मंजिल .

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