तुम ने कितनी बार ,
अपनी दृष्टि से ,
मुझे छू लिया ,
और ,
हर बार किया है ,
मैंने शुचि अभिषेक ,
अब मैं पवित्र हूँ ,
किसी तीर्थ की तरह.
तुम्हारे कहे गये शब्द ,
मेरे कानों में ,
सीटियों की तरह गूंजते हैं ,
और ,
किसी अनुगूंज की तरह ,
दिशा-दिशा से टकराकर ,
लौट-लौट आते हैं ,
तब ,
मैं व्याकुल हो कर ,
तुम्हें तलाशता हूँ ,
खिलौने की चाहत में व्याकुल
किसी अबोध बच्चे की तरह .
कितनी बार तुम्हारी गंध
मेरे चारों ओर ,
लिपट जाती है ,
ओर ,
तुम्हारे भाव-तारल्य से ,
मैं भीग जाता हूँ ,
आपन्मस्तक ,
भोर में गिरती ओस बूंदों से ,
भीगे हुए मंदिर-कलश की तरह .
मैंने बहुत तोड़े हैं,
पत्थर ,
जमीन को किया है ,
समतल ,
वीथियों की जगह बनाये ,
राजपथ ,
चिनायें हैं शानदार ,
प्रासाद ,
लगाये हैं फलदार विटप ,
सजाये हैं हरित दुर्वा के ,
उद्यान,
ताकि तुम्हें ,
अपने पास रोक सकूं ,
परन्तु ,
साध दी गयी है मुझ पर गुलेल ,
और ,
बन गया हूँ किसी शिकार की तरह.
कितनी बार पकड़ी है ,
मैंने रोशनी की डोर ,
जिस के सहारे ,
तुम तक पहुँच सकूं ,
क्योंकि ,
मैंने जाना है ,
तुम रोशनी का हो श्रोत ,
भर लेना चाहता हूँ ,
तुमको अन्दर-बाहर ,
इसीलिए ,
खींचा चला आ रहा हूँ ,
कामना लिए किसी पतंगे की तरह.
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