उजाले की नदी ले कर जो तुम आये .
किनारा ही पा लिया है जो तुम आये .
अंधेरों में बहुत कड़वे ,
घूँट ही उतारे हैं .
कई कंकड़ कई कांटे ,
हाथों से बुहारे हैं .
बहुत घावों को भूले हैं जो तुम आये .
उजाले की नदी ले कर जो तुम आये .
होठों को बंद किये बैठे ,
थे बहुत पहरे .
सुनता कौन हमारी पीर ,
थे सभी बहरे .
गूंगे भाव गीत बन बैठे जो तुम आये .
उजाले की नदी ले कर जो तुम आये .
चलो छोडो उनको अब,
हमें क्या कहना है .
दरिखाने में फूलों को ,
उन्हीं को सहना है.
आँखों से नहीं दिखता जो तुम आये .
उजाले की नदी ले कर जो तुम आये .
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.
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